कृपया भाग १ पिछले ब्लॉग में पढ़े -
एक लोटा समंदर - भाग १
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हम स्कूल पहुंचे तो काफी बच्चे पहले से आ चुके थे| मैडम जी भी आ गयी थी| कक्षा एक और दो को एक ही मैडम सबेरे से लेकर शाम तक अकेले पढ़ाती थी| पढ़ाती तो क्या थी, यूँ कहिये कि टाइम पास करती थी| वैसे भी गाँव के उजड्ड देहाती बच्चों को दिन भर रोके रखना ही अपने आप में एक बहुत महान कार्य था| नीम के पेड़ के नीचे जमीन पर हमारी क्लास लगती थी, और बगल में ही एक बहुत बड़ी तलैया थी| क्लास में बैठने के लिए सबको अपना अपना कुछ जुगाड़ लेकर आना पड़ता था| अमूमन बच्चे खाद या बीज इत्यादि कि बोरी साथ में बैठने के लिए लाते थे और रमेश जैसे कुछ बच्चे वो तकल्लुफ उठाने कि भी जहमत नहीं उठते थे और कोई ईंट का टुकड़ा उठा कर उसी पर बैठ जाते थे|
स्कूल खत्म होते होते मैडम ने उन बच्चों कि लिस्ट बताईं जिन्होंने अभी तक इस महीने की फीस जमा नहीं कि थी और साथ ही ये भी बताया कि फीस ना जमा करने पर नाम भी कट सकता है| इस लिस्ट में मेरा और रमेश दोनों का नाम था| रमेश को कोई फर्क नहीं पड़ता था, उसका तो मैडम को भी नहीं पता चलता था कि कब नाम कटा हुआ है और कब लिखा हुआ| लेकिन मेरे साथ ये पहली बार ऐसा हुआ था, मेरी फीस बब्बा समय रहते गाँव के किसी ना किसी आदमी के हाथ भिजवा देते थे| मुझे न जाने क्यू डर लगा की अगर मैंने कल तक फीस जमा नहीं करी तो मेरा नाम कट जायेगा, इसलिए नाम कटने की शर्मिंदगी से बचने के लिए मैंने फैसला किया की मैं आज ही शाम को बब्बा से फीस मांग के झोले में रख लूँगा और कल जमा कर दूंगा|
स्कूल की छुट्टी की घंटी बजते ही सभी बच्चे भेड़ के झुण्ड की तरह निकले और अपने अपने रास्तों पर इधर उधर फ़ैल गए| हमारे स्कूल से घर के रास्ते में एक कुआँ पडता था| पुराने ज़माने में जब पम्पिंग मशीन नहीं आई थी तब सिंचाई या तो नहरों से होती थी, या तो कुओं पर पुराहट (ट्यूबवेल) चला कर, इसलिए ५-६ खेत बाद एक न एक कुआँ दिख ही जाता था|
हम जैसे ही कुएं के पास पहुंचे रमेश ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकते हुए कहा -
“अबे रुक, एक चीज दिखता हूँ ”
“क्या है ? गांव चल के दिखा देना, अभी देरी हो गयी तो मम्मी पीटेंगी”
“अबे तुझे तो हमेशा ही देरी लगी रहती है, थोडा देर रुक के चलते हैं” इतना कहकर उसने जेब से लाल पीले रंग की चमकदार चीज निकली और कहा-
“ये देख ”
“ये क्या है”
“लट्टू"
“यार देखने में तो बड़ा मस्त है| इसे चला के दिखाओ”
“हाँ हाँ दिखाते हैं, दिखाते हैं, टेंशन कहे ले रहे हो मुन्ना” रमेश ने भाव खाते हुए अकडकर कहा और दूसरी जेब से डोरी निकली, फिर बड़े इत्मीनान से डोरी को लट्टू की कील से शुरू करके चारों और कई बार लपेटा| मैं बड़े कुतूहल के साथ सब देख रहा था|
“राजा अब देखो मजा| एक-दो-तीन" गिनकर रमेश ने झटके के साथ लट्टू फेंका और लट्टू जमीन पर गिरते ही तेजी के साथ गोल गोल घूमने लगा|
बचपन में हमें हर गोल गोल घूमने वली चीज से प्यार होता है| फिर चाहे वो हवा से चलने वाली चरखी हो या स्प्रिंग से घूमने वाले नचौने| रंग बिरंगा गोल-गोल लट्टू देख कर मेरा मन मोहित हो गया|
“यार रमेश ये तो बड़ा मस्त है|”
“क्या कहा था मैंने” रमेश ने गर्व से कहा| फिर तो अगले आधे घंटे रमेश ने अपनी लट्टू कला का भरपूर प्रदर्शन किया| कभी जमीन पर नचाता था तो कभी कुएं के चबूतरे पर| कभी जमीन पर नचा कर हाथ में उठा लेता था तो कभी सीधे हवा में ही फेंककर हथेली पर लैंड करा लेता था| लट्टू रमेश के इशारों पर नाच रहा था| मैं तो देख कर मंत्र मुग्धा हो गया|
“कब तुम ख़रीदे और कब सीख भी लिए ?" लट्टू की चमक से जन पड़ता था की एकदम नया है, मैंने अपनी शंका निवारण के लिए पूछा|
“भैया का चुरा के सीख लिए था, ये वाला तो कल ही ख़रीदे बाजार से एकदम नया नया|"
फिर उसने लट्टू का और बखान किया "देखो रंग भी कितना मस्त है, लाल और पीला| हरे रंग का भी था, लेकिन वो पसंद नहीं आया मुझे| छूकर देखो कितना चिकना भी है| इसकी कील भी बहुत मजबूत है, कभी टूटेगा नहीं लट्टू मेरा|”
आप नयी चीज खरीदते हो तो आपको लगता है की सामने वाला भी उसकी तारीफ करे| उसी तारीफ की लालसा में रमेश मुझे लट्टू से जुडी छोटी से छोटी चीज मजे से बता रहा था| और मैंने भी तारीफ करने में कोई कसर नहीं छोडी| वैसे लट्टू था भी बहुत शानदार, और रमेश ने जिस कुशलता के साथ उसका प्रदर्शन किया था, उसके बाद तो उस लट्टू की तारीफ न करना खुद की अज्ञानता का परिचय देना था|
“मुझे भी चलाने दो"
“अबे कभी चलाये हो ?”
“नहीं”
“फिर टूट गया तो” मैंने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया|
उसने थोडा देर सोचा फिर कहा “अच्छा ठीक है, अभी तो लट्टू नया है तो मैं अभी नहीं दूंगा, लेकिन तुम इसे कल सबेरे चला सकते हो, सिर्फ हमारी पक्की दोस्ती की खातिर”
बचपन में, बचपन में ही क्या मैंने तो बड़े होने पर भी देखा है, दोस्ती चाहे जितनी गहरी हो, कोई भी नयी चीज बिना एक बार खुद इस्तेमाल किये दोस्त को देने का मन नहीं करता है| एकदम नयी नयी शर्ट आप कभी दोस्त को नहीं देंगे, एक बार पहनने के बाद भले ही आप जिंदगी भर के लिए दे दे|
लेकिन मैं कल सुबह के वायदे से भी बहुत खुश था ,फीस वीस सब मैं भूल चुका था, अब मेरे दिमाग में सिर्फ लट्टू घूम रहा था, आज की रात बड़ी लंबी होने वाली थी|
एक लोटा समंदर - भाग ३
एक लोटा समंदर - भाग ४ (आखिरी भाग)
एक लोटा समंदर - भाग १
हम स्कूल पहुंचे तो काफी बच्चे पहले से आ चुके थे| मैडम जी भी आ गयी थी| कक्षा एक और दो को एक ही मैडम सबेरे से लेकर शाम तक अकेले पढ़ाती थी| पढ़ाती तो क्या थी, यूँ कहिये कि टाइम पास करती थी| वैसे भी गाँव के उजड्ड देहाती बच्चों को दिन भर रोके रखना ही अपने आप में एक बहुत महान कार्य था| नीम के पेड़ के नीचे जमीन पर हमारी क्लास लगती थी, और बगल में ही एक बहुत बड़ी तलैया थी| क्लास में बैठने के लिए सबको अपना अपना कुछ जुगाड़ लेकर आना पड़ता था| अमूमन बच्चे खाद या बीज इत्यादि कि बोरी साथ में बैठने के लिए लाते थे और रमेश जैसे कुछ बच्चे वो तकल्लुफ उठाने कि भी जहमत नहीं उठते थे और कोई ईंट का टुकड़ा उठा कर उसी पर बैठ जाते थे|
स्कूल खत्म होते होते मैडम ने उन बच्चों कि लिस्ट बताईं जिन्होंने अभी तक इस महीने की फीस जमा नहीं कि थी और साथ ही ये भी बताया कि फीस ना जमा करने पर नाम भी कट सकता है| इस लिस्ट में मेरा और रमेश दोनों का नाम था| रमेश को कोई फर्क नहीं पड़ता था, उसका तो मैडम को भी नहीं पता चलता था कि कब नाम कटा हुआ है और कब लिखा हुआ| लेकिन मेरे साथ ये पहली बार ऐसा हुआ था, मेरी फीस बब्बा समय रहते गाँव के किसी ना किसी आदमी के हाथ भिजवा देते थे| मुझे न जाने क्यू डर लगा की अगर मैंने कल तक फीस जमा नहीं करी तो मेरा नाम कट जायेगा, इसलिए नाम कटने की शर्मिंदगी से बचने के लिए मैंने फैसला किया की मैं आज ही शाम को बब्बा से फीस मांग के झोले में रख लूँगा और कल जमा कर दूंगा|
स्कूल की छुट्टी की घंटी बजते ही सभी बच्चे भेड़ के झुण्ड की तरह निकले और अपने अपने रास्तों पर इधर उधर फ़ैल गए| हमारे स्कूल से घर के रास्ते में एक कुआँ पडता था| पुराने ज़माने में जब पम्पिंग मशीन नहीं आई थी तब सिंचाई या तो नहरों से होती थी, या तो कुओं पर पुराहट (ट्यूबवेल) चला कर, इसलिए ५-६ खेत बाद एक न एक कुआँ दिख ही जाता था|
हम जैसे ही कुएं के पास पहुंचे रमेश ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकते हुए कहा -
“अबे रुक, एक चीज दिखता हूँ ”
“क्या है ? गांव चल के दिखा देना, अभी देरी हो गयी तो मम्मी पीटेंगी”
“अबे तुझे तो हमेशा ही देरी लगी रहती है, थोडा देर रुक के चलते हैं” इतना कहकर उसने जेब से लाल पीले रंग की चमकदार चीज निकली और कहा-
“ये देख ”
“ये क्या है”
“लट्टू"
“यार देखने में तो बड़ा मस्त है| इसे चला के दिखाओ”
“हाँ हाँ दिखाते हैं, दिखाते हैं, टेंशन कहे ले रहे हो मुन्ना” रमेश ने भाव खाते हुए अकडकर कहा और दूसरी जेब से डोरी निकली, फिर बड़े इत्मीनान से डोरी को लट्टू की कील से शुरू करके चारों और कई बार लपेटा| मैं बड़े कुतूहल के साथ सब देख रहा था|
“राजा अब देखो मजा| एक-दो-तीन" गिनकर रमेश ने झटके के साथ लट्टू फेंका और लट्टू जमीन पर गिरते ही तेजी के साथ गोल गोल घूमने लगा|
बचपन में हमें हर गोल गोल घूमने वली चीज से प्यार होता है| फिर चाहे वो हवा से चलने वाली चरखी हो या स्प्रिंग से घूमने वाले नचौने| रंग बिरंगा गोल-गोल लट्टू देख कर मेरा मन मोहित हो गया|
“यार रमेश ये तो बड़ा मस्त है|”
“क्या कहा था मैंने” रमेश ने गर्व से कहा| फिर तो अगले आधे घंटे रमेश ने अपनी लट्टू कला का भरपूर प्रदर्शन किया| कभी जमीन पर नचाता था तो कभी कुएं के चबूतरे पर| कभी जमीन पर नचा कर हाथ में उठा लेता था तो कभी सीधे हवा में ही फेंककर हथेली पर लैंड करा लेता था| लट्टू रमेश के इशारों पर नाच रहा था| मैं तो देख कर मंत्र मुग्धा हो गया|
“कब तुम ख़रीदे और कब सीख भी लिए ?" लट्टू की चमक से जन पड़ता था की एकदम नया है, मैंने अपनी शंका निवारण के लिए पूछा|
“भैया का चुरा के सीख लिए था, ये वाला तो कल ही ख़रीदे बाजार से एकदम नया नया|"
फिर उसने लट्टू का और बखान किया "देखो रंग भी कितना मस्त है, लाल और पीला| हरे रंग का भी था, लेकिन वो पसंद नहीं आया मुझे| छूकर देखो कितना चिकना भी है| इसकी कील भी बहुत मजबूत है, कभी टूटेगा नहीं लट्टू मेरा|”
आप नयी चीज खरीदते हो तो आपको लगता है की सामने वाला भी उसकी तारीफ करे| उसी तारीफ की लालसा में रमेश मुझे लट्टू से जुडी छोटी से छोटी चीज मजे से बता रहा था| और मैंने भी तारीफ करने में कोई कसर नहीं छोडी| वैसे लट्टू था भी बहुत शानदार, और रमेश ने जिस कुशलता के साथ उसका प्रदर्शन किया था, उसके बाद तो उस लट्टू की तारीफ न करना खुद की अज्ञानता का परिचय देना था|
“मुझे भी चलाने दो"
“अबे कभी चलाये हो ?”
“नहीं”
“फिर टूट गया तो” मैंने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया|
उसने थोडा देर सोचा फिर कहा “अच्छा ठीक है, अभी तो लट्टू नया है तो मैं अभी नहीं दूंगा, लेकिन तुम इसे कल सबेरे चला सकते हो, सिर्फ हमारी पक्की दोस्ती की खातिर”
बचपन में, बचपन में ही क्या मैंने तो बड़े होने पर भी देखा है, दोस्ती चाहे जितनी गहरी हो, कोई भी नयी चीज बिना एक बार खुद इस्तेमाल किये दोस्त को देने का मन नहीं करता है| एकदम नयी नयी शर्ट आप कभी दोस्त को नहीं देंगे, एक बार पहनने के बाद भले ही आप जिंदगी भर के लिए दे दे|
लेकिन मैं कल सुबह के वायदे से भी बहुत खुश था ,फीस वीस सब मैं भूल चुका था, अब मेरे दिमाग में सिर्फ लट्टू घूम रहा था, आज की रात बड़ी लंबी होने वाली थी|
एक लोटा समंदर - भाग ३
एक लोटा समंदर - भाग ४ (आखिरी भाग)