7/9/15

कैरम बोर्ड

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अगर आपने मेरी और कहानियां पढ़ी होंगी तो आपको पता होगा कि हमारी गर्मी की छुट्टियाँ गाँव में ही बीतती थी| जून का महीना जब ख़तम होने को होता था और मानसून की दो चार फुहारें जमीन को भिगोने लगती थी तो हम लोग अपना बोरिया बिस्तर बाँध के वापस गाँव से रवानगी लेते थे|

बचपन में गाँव से वापस आना हम लोगों को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था| एक तो छुट्टियाँ ख़तम होने का दुःख ऊपर से माई (दादी) और बब्बा (दादाजी) से बिछड़ने का गम| वापस आने पर कम से कम २-३ दिन तक तो हम तीनों भाई बहन गाँव की याद में आँसू बहाते रहते थे| फिर जब पापा हमें सांत्वना देते थे की माई और बब्बा हमसे मिलने जल्दी ही आयेंगे तो हम धीरे धीरे अपने पुराने रंग में वापस आते थे|

ऐसी ही गर्मी की छुट्टियाँ बिता कर हम एक बार वापस अपने फतेहपुर वाले घर में आये तो हमें पता लगा की कॉलोनी में कुछ नए लोग ट्रांसफर होके आये हैं| इनमे से एक थे कुशवाहा अंकल जिनकी अभी कुछ दिन पहले नयी नयी शादी हुई थी| कुशवाहा आंटी को आंटी बुलाओ तो वो मना करती थी और कहती थी की दीदी बुलाया करो| वैसे बाद में हम सभी बच्चों ने उन्हें खुद ही दीदी बुलाना शुरू कर दिया था क्यों की वो हम लोगों से दोस्तों सा ही व्यवहार करती थी| चाकलेट खानी हो या फ्री की कोका कोला पीनी हो, दीदी के घर में ये सब व्यवस्था रहती थी| हालाँकि हम सभी बच्चों ने बाद में उनके यहाँ जाना कम कर दिया था क्यों की उन्होंने दो काले रंग के बड़े बड़े डाबरमैन कुत्ते खरीद लिए थे जो हम बच्चों के बीच अपने कुत्तापे के लिए खासे बदनाम थे| 

उनके घर के बगल में आये थे विजय भैया और उनका परिवार| उनसे भी हम बच्चों की खासी दोस्ती हो गयी थी| इसका एक मुख्य कारण ये था कि वो भूतों की कहानियां सुनाने में माहिर थे | शाम को बिजली चली जाने पर हम सभी उनके घर इकठ्ठा होते थे और वो हम लोगों को कहानी सुनाया करते था| उनकी कहानियां शुरू तो बड़े खुशनुमा अंदाज में होती थी, लेकिन कहानी बढ़ने के साथ ही उसमे भूतों का आगमन होता था और ख़तम होते होते तक हमारी हालत ख़राब हो लेती थी| हालत तो ख़राब होती थी, लेकिन कहानियां सुनकर डरने में मजा भी बड़ा आता था| बिजली आने पर सबको अपने अपने घर जाना होता था तो बाहर सड़क पर अकेले निकलने में सबकी मौत आती थी| एक-दो-तीन बोलके सभी बच्चे एक सांस में भागते थे और अपने अपने घर जाकर ही रूकते थे मानो वाकई में कोई भूत उनका पीछा कर रहा है|

एक शाम मैं विजय भैया के यहाँ पहुंचा तो मंटू भैया और विवेक भैया पहले से ही वहां पर थे और उनके सामने बड़ा सा लकड़ी का एक बोर्ड रखा हुआ था| पता चला की ये कैरम बोर्ड है| कुछ ही देर में इस खेल ने  मुझे मंत्र मुग्ध कर दिया| आसन सा खेल था काले सफ़ेद रंग की गोटियाँ थी और उन्हें एक बड़ी गोटी जिसे स्ट्राइकर कहते थे, उसकी मदद से बोर्ड के कोने में बने चार छेदों में पिलाना होता था| काले रंग की गोटियों के ५ अंक और सफ़ेद रंग की गोटियों के १०| और कहीं लाल रंग की रानी पिला ली तो ५०, लेकिन उसके साथ एक कोई कवर भी पिलाना होता था | उनका एक खेल ख़तम हुआ तो मैंने भी खेलने के लिए कहा| वो पहले से तीन ही थे, उन्हें भी लगा होगा की ४ लोग होंगे तो खेल में ज्यादा मजा आएगा तो उन्होंने एक तरफ मुझे भी बैठा लिया| 

खेलना शुरू किया तो समझ आया की देखने में जितना आसान था खेलने में उतना आसान नहीं है| कितनी भी कोशिश करूं गोटी छेद के इर्द गिर्द जाके अटक जाती थी| इतनी खीझ लगती थी कि सब उठा के फेंक दूं| गर्मी का दिन था और मैं बाकी छोटे बच्चों की भांति हाफ पेंट पहनता था| पैर में पसीना आ रहा था और जैसे जैसे शाम हो रही थी वैसे वैसे मच्छरों ने पैरों के आस पास आतंक मचाना शुरू कर दिया था| नीचे पैर में मच्छर काट रहे हैं तो ऊपर गोटी पिलाने में ध्यान लगे तो कैसे| खैर खेल ख़तम होने से बस थोडा सा पहले मैंने एक काली गोटी पिलाई| ऐसा एहसास हुआ की मानों नोबल पुरस्कार जीत लिया हो| 

फिर क्या था, खेल में मजा आने लगा| थोड़ी देर में विवेक भैया और मंटू भैया अपने घरो में चले गए| विजय भैया भी उठना चाहते थे लेकिन मेरा मायूस चेहरा देख कर बेचारे मेरे साथ लगे रहे| अँधेरा होने पर बिजली गयी तो बाकी बच्चे आ गए| फिर मुझे पता लगा की हम ही निखट्टू रह गए थे, बाकी लोगों ने तो ये तिलिस्मी खेल मेरे से पहले ही सीख लिया था | फिर आज भूतों की कहानियां नहीं हुई, मैं कॉलोनी के बच्चों के साथ कैरम ही खेलता रहा| बिजली वापस आने पर जब सब चले गए तो कुछ देर तक तो मैं अकेले ही खुटर-पुटर करता रहा| 

घर आने पर चैन कहाँ, दिमाग में तो बस कैरम की काली सफ़ेद गोटियाँ घूम रही थी| सोचा की कितना बढ़िया खेल है, अगर बाहर बारिश हो रही है, या फिर सोचो की धूप है तो घर में खेलने के लिए कितना अच्छा खेल है| ताश हमारे घर में मना था, “चोर राजा मंत्री सिपाही”, या फिर “नाम जगह शहर” वगैरह खेल खेल के हम लोग बोर होने लगे थे| मुझे लूडो और सांप सीढ़ी कभी नहीं भाये क्यों की उसमे मुझे ऐसा लगता था कि सब भाग्य से होता है जो की मेरा कभी अच्छा नहीं रहा|  लेकिन कैरम ऐसा नहीं था| इसे खेलने के लिए कला चाहिए भाग्य नहीं| 

कैरम कॉलोनी में सिर्फ विजय भैया के यहाँ था| अब उनके यहाँ खेले भी तो कितना खेले, और फिर उनकी बोर्ड की परीक्षा भी थी इस साल| फिर धीरे धीरे जब ये खेल मेरे भाई को भी भा गया तो हमने फैसला किया की कैरम बोर्ड तो घर में होना ही चाहिए| कैरम बोर्ड कितने का मिलेगा ये तो हमें नहीं पता था लेकिन बाकि छोटे मोटे लूडो टाइप खेलों से कई गुना  महंगा होगा ये हमें पता था और ये भी की इसके लिए पिताजी को पटाना आसन काम नहीं होगा|

एक दिन शाम के समय अच्छे बचों की भांति हमने पढाई लिखाई करने के बाद चाय के समय अपने पिताजी से ये बाद जाहिर की| पापा ने तो पहले कुछ देर पुछा की भाई ये कैरम किस बला का नाम है | फिर बताने पर उन्होंने थोडा सोचा और कहा कि अगर इस बार के वार्षिक परीक्षा में मैं फर्स्ट आया तो परीक्षा ख़तम होने पर हमें कैरम बोर्ड दिला दिया जायेगा|

अब मेरे लिया कक्षा में फर्स्ट आना वैसे तो अभी तक  कोई बड़ी बात नहीं हुआ करती थी| लेकिन इसी साल आदित्य नाम के एक नए लड़के ने हमारे स्कूल में प्रवेश लिया था और उससे मेरी कांटे की टक्कर थी| और आदित्य का एडमिशन भी मेरे स्कूल में मेरी ही वजह से हुआ था| हुआ ये की आदित्य के पिताजी और मेरे पिताजी दोस्त थे और आदित्य के पुराने स्कूल से उसके पापा खुश नहीं थे| उसके पापा जब मुझसे मिले तो मेरी पढाई लिखाई से बहुत प्रभावित हुए, मैंने भी अपनी शेखी बघारने के लिए उन्हें २५ तक के पहाड़े आनन फानन में ही सुना दिए| फिर क्या था उन्होंने आदित्य का नाम भी मेरे स्कूल में लिखा दिया| यानि की कुल मिला के आप ये कह सकते हैं की मैंने अपने लिए कुआँ खुद ही खोदा|

खैर वार्षिक परीक्षा में बहुत दिन नहीं बचे थे| मैं परीक्षा की तैयारी में जी जान से जुट गया| सारे पाठ १०-१० बार पढ़े| पढने में ऐसा तल्लीन हुआ की बीच बीच में भूल जाता था कि मैं  इतना पढ़ क्यों रहा हूँ इस बार, लेकिन फिर जैसे ही याद आता था की ये कैरम के लिए है तो लाल लाल रानी मेरी आँखों के सामने घूमने लगाती थी और मैं दोबारा जोर शोर से जुट जाता था|

जैसे तैसे सारे एग्जाम ख़तम हुए| अंत में बस एक चित्रकला की परीक्षा बाकी थी| मैंने शाम को ही साड़ी का किनारा, सेब, आम, पपीता, कमल, गुलाब जैसे चित्रों को बना के अच्छी तैयारी कर ली थी| मैं पानी, कैमल का १५ रंगों वाला डब्बा ले के पहुँच गया| आम और साड़ी का किनारा बनाना था| मजे से दोनों चीजों बनायीं, रंगी और परीक्षा ख़तम की | 

मेरे सारे पेपर्स अच्छे हुए थे और मुझे लग रहा था कि फर्स्ट आने में मुझे कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए| उन दिनों परीक्षा की कॉपी जांचने के बाद एक दिन सब बच्चों को बुला के दिखाई जाती थी| उस दिन मेरा दिल तो रेलगाड़ी की गति से भाग रहा था| सुबह ब्रेड का एक टुकडा भी गले के नीचे नहीं उतरा| एक बार तो मन किया कि जाऊं ही नहीं और जो भी है शाम तक कोई न कोई दोस्त आके बता ही देगा| फिर लगा की नहीं जाके देख लेना चाहिए, मैं इंतजार तो वैसे भी नहीं कर पाऊँगा| 

गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान वगैरह की कॉपियां एक एक करके दिखाई जाने लगी और मैं आदित्य से बस थोडा आगे चल रहा था| आखिरी में जब चित्रकला का नंबर आया तो मैं ९ नंबर से आगे था| मुझे लगा की अब तो बस कैरम आई ही समझो, चित्रकला में मैं इतना भी ख़राब नहीं था और आम तो क्या ही मस्त बनाया था मैंने | लेकिन ये क्या, चित्रकला में मुझे ५० में से सिर्फ ३० नंबर मिले और आदित्य को ४०| मेरे तो होश ही फाख्ता हो गए| ये कैसे हो गया, मेरे आम को २५ में सिर्फ ७ नंबर| मुझे समझ नहीं आया| मैंने आदित्य से उसकी कॉपी दिखाने को कहा, पहले तो उसने मना किया लेकिन फिर मेरे मिन्नतें करने के बाद मान गया, उसका आम मेरे आम से ख़राब ही था, बेहतर तो किसी हाल में नहीं कह सकते|

मैं कॉपी लेके रामबाबू आचार्य जी के पास पहुँच गया, वो मुझे बहुत मानते थे| मैंने उनसे पूछा कि आम को इतने कम नंबर क्यों मिले तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा - “कैसे बनाया आम, राहुल”| मुझे समझ नहीं आया| फिर उन्होंने बोला - “रंग घोलने वाले आम से चित्र बनाया न तुमने?”

असल में उन दिनों रंग घोलने के लिए आम के आकर का एक छोटा प्लास्टिक का बर्तन आता था, उसमें रंग रखने और घोलने के लिए कई खांचे बने रहते थे| कई लड़कों के पास था और लड़के आम की रूपरेखा उसी से खींच लेते थे आचार्य जी को लगा की मैंने भी वही किया है| मैंने उनसे विनती करी कि नहीं मैंने खुद से बनाया है| उन्होंने एक लड़के से रंग घोलने वाला आम का बर्तन मंगाया और उसे मेरे चित्र के ऊपर रखा| मुझे अपनी आँखों पे भरोसा नहीं हुआ, एकदम लाइन के ऊपर लाइन, ये एक मात्र संयोग था लेकिन आचर्य जी को मैं समझा नहीं पाया| उन्होंने पुचकारते हुए कहा की आगे से खुद से बनाया करो और मुझे भगा गिया| अब मैं उन्हें कैसे समझाता की ये सब तो अनजाने में ऐसा हो गया|

अब कुछ नहीं हो सकता था| मेरी आँखों में आंसूं आ गए| दिल भारी भारी हो गया, समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ| स्कूल में सभी टीचर मुझे अच्छा बच्चा मानते थे और ख़ास तौर से रामबाबू आचार्य जी जो की मेरे क्लास टीचर भी थे, और मुझ पर ऐसा इलज़ाम मुझे बहुत खटक रहा था| फिर याद आया की अब तो कैरम भी हाथ से गया| और रोना आया| खैर मरता क्या न करता, भारी मन से घर के लिए निकला| 

घर पहुंचा तो क्या देखता हूँ कि मेरे घर भीड़ लगी हुई  है| कॉलोनी के सभी बचे झुण्ड लगा के आगे के कमरे में किसी चीज के इर्द गिर्द बैठे है| भीड़ में घुस के देखा तो मेरी आँखों को विश्वास नहीं हुआ| लकड़ी का एक बड़ा सा एकदम नया कैरम| मेरा भाई रोहित गोटियों और स्ट्राइकर वाला पैकेट खोल ही रहा था| मैंने रोहित से पुछा कि किसका है तो उसने बड़े भाव से कहा- “अपना ही है”| पापा जी बगल में ही बैठे थे, मैंने उनकी और देखा तो उन्होंने बस इतना कहा -”रामबाबू जी मिले थे, बोल रहे थे की अच्छी अंक प्राप्त किये हैं तुम लोगों ने इस साल"| फिर तो मेरी आँखों में फिर से आंसूं आ गए, इस बार ख़ुशी के| पिताजी ने तो पहले से ही कैरम खरीदने का सोच करके रखा था|

कैरम बहुत बढ़िया था, उसकी गोटियाँ प्लास्टिक की थी और लकड़ी की गोटियों के मुकाबले ज्यादा चमकदार थी| दो स्ट्राइकर थे जिनमे फूल पत्ती वाली डिजाईन भी बनी हुई थी| छेदों के नीचे जालीदार कपड़ा लगा हुआ था ताकि गोटियाँ नीचे न गिरें| पाउडर के लिए तुरंत पोंड्स की बड़ी बोतल लायी गयी और हमने उस दिन देर रात तक कैरम खेला| छुट्टी तो हो  ही गयी थी|

अब दिक्कत ये होती थी की हम तीन भाई बहन थे, और जो बीच में बैठता था उसे बिना वजह फायदा हो जाता था| इस समस्या से निपटने के लिए हमने मम्मी को कैरम सिखाया| और कुछ ही दिनों में मम्मी ने ऐसा सीखा की वो अब हम सबको टक्कर देने लगी थी| छुट्टी में खूब कैरम चलता था| हमने  कैरम के  कुछ एक नए खेल भी सीखे, मसलन इलाके वाला कैरम जिसमे आप कैरम के छेद, और बोर्ड पर के विभिन्न भाग इत्यादि गोटियाँ बीच में रख कर खरीद सकते थे| फिर आपके ख़रीदे इलाके पर कोई भी गोटी आये तो वो गोटी आपकी| इलाके के खेल में मम्मी को पछाड़ना मुश्किल था|

आने वाले सालों में हमारे घर में और भी बोर्ड गेम्स जैसे शतरंज इत्यादि आये लेकिन कैरम की महत्ता नहीं घटी |धीरे धीरे उसका रंग उतरने लगा और बोर्ड भी खुरदुरा  सा होने लगा था, लेकिन अब भी पोंड्स का कमाल था की मजे से खेल सकते थे| जब हम सभी भाई बहन घर से निकल गए तो कैरम बोर्ड हमने अपने भतीजों को दे दिया| 

अमेरिका में आने के बाद सालों बाद फिर से एक दिन कैरम खेलने का मौका मिला, लेकिन शायद गोटियाँ पिलाने की वो कला अब मैं भूल गया था, गोटियाँ फिर से छेद के इर्द गिर्द जाके रह जाती थी| ये तो नहीं पता कि आजकल के बच्चे मोबाइल गेम और विडियो गेम के ज़माने में कितना कैरम खेलते हैं लेकिन जो क्रेज कैरम को लेके हमारे बचपन में था वैसा क्रेज होना अब मुश्किल है|