12/5/13

बिल्ला और शेरा

कहानी का शीर्षक पढ़ कर आपको ऐसा लग रहा होगा कि हो न हो ये सत्तर के दशक की किसी फिल्म के खलनायक हैं| लेकिन बिल्ला और शेरा किसी हिंदी फिल्म के खूंखार खलनायक नहीं बल्कि मेरे बचपन के वे दो पत्र है जिनके बिना मेरे बचपन की कहानी अधूरी है|

गाँव में हमारे घर के पिछवाड़े में एक छोटा सा तालाब था| छोटा तालाब तो क्या उसे बड़ा गड्ढा ही समझ लीजिए| उसके पास में ही कनेर के फूल के साथ साथ ढेर सारे सरकंडे कि झाड़ियाँ भी थी| सरकंडा खोखले तने वाली एक झाड़ी थी जिसकी तलवार बना के मैंने और रमेश ने न जाने खेल खेल में कितने संग्राम लड़े हैं| ठंडी के दिनों में एक दिन शाम को यूँ ही हमारा युधाभ्यास का खेल जोर शोर से जारी था कि हमने तालाब के किनारे झाडियों में दो पिल्लों को देखा| दोनों कीचड में सने हुए थे और उन्हें देख कर लगता था कि पैदा हुए मुश्किल से बस एक या दो दिन हुए होंगे|

बचपन में मुझे कुत्तों से बहुत डर लगता था इसलिए मैंने रमेश को मना किया कि उन्हें मत छू, हो सकता है कि इनकी माँ आस पास ही कहीं हो| लेकिन रमेश ने अपनी प्रवृत्ति के अनुसार काम करते हुए मेरी एक न सुनी और झाडियों में घुस के दोनों पिल्ले उठा लाया| हम उन्हें कुएं पर लेकर आये और ठण्ड कि परवाह न करते हुए रगड़ रगड़ के धोया|

लेकिन कड़ाके कि इस ठण्ड में ठंडा पानी दोनों पिल्ले झेल नहीं पाए, और बुरी तरह कांपने लगे, साथ में कूँ कूँ कि आवाज भी करने लगे| थोड़ी ही देर में दोनों कि हरकत बहुत कम हो गयी और सूरज ढलने के साथ ही दोनों सुन्न हो गए| हम बहुत घबरा गए, हमें समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें| दोनों को बहुत हिलाया डुलाया लेकिन दोनों बेहोश पड़े रहे| हमें एकबारगी लगा कि कहीं दोनों मर तो नहीं गए, हम सोच कर ही सिहर गए| सौभाग्यवश तभी हमें शाम की बाजार करके बब्बा वापस आते दिखे| हम दोनों पिल्लों को लेकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें सारा मामला कह सुनाया| 

बब्बा ने तुरंत पिल्लों को मवेशीखाने के सामने रखीं पुआल पर रखवाया और लकड़ी इकट्ठा करने को कहा| हम दौड कर ढेर सारी लकडियाँ उठा लाए| बब्बा ने आग जलाई और दोनों पिल्लों को बारी बारी से सेंकना चालू किया| हम अभी भी आग के पास ही घुटनों के ऊपर सर रखकर बैठे हुए कुछ चमत्कार होने का इंतजार कर रहे थे| थोड़ी देर बाद दोनों ने थोड़ी हरकत करनी चालू करी तो हमारी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा| बब्बा ने रसोई से गरम दाल लाने को कहा| दोनों को हमने एक एक कटोरा दाल पिलाई| गरम गरम दाल पीकर दोनों की जान में जान आई|

फिर सुबह उठकर मैंने और रमेश ने उनका नाम-करण किया| काले रंग के पिल्ले का नाम रमेश ने बिल्ला रखा और भूरे रंग वाला पिल्ला मेरे हिस्से आया जिसका नाम मैंने शेरा या शेरू रख दिया|

दोनों बहुत जल्द हमारी दिनचर्या का एक अटूट हिस्सा बन गए| दोनों रोज हमारे साथ ही स्कूल जाते और साथ ही वापस भी आते| हमने बाज़ार से दो फीते भी ख़रीदे, लाल रंग का फीता बिल्ला के लिए और नीले रंग का शेरा के लिए, और फीते उनकी गर्दन में बाँध दिए| लेकिन फिर कुछ ही सालों के बाद मैं शहर आ गया था और फिर बिल्ला और शेरा की कहानियां गाँव आने पर सुनने को मिलती थी|

बिल्ला बहुत ही फुर्तीला चतुर और चालक कुत्ता था| बड़े होने पर जब तक दिन भर में गाँव के बीस-पचीस चक्कर न काट ले तब तक उसका मन नहीं भरता था| सिर्फ मेरे गाँव के ही नहीं बल्कि आस पास के गाँव के सारे कुत्ते भी बिल्ला से डरते थे| कोई बाहरी कुत्ता हमारे गाँव की सीमा में कदम भी रख दे तो उसकी खैर नहीं, बिल्ला उसे दौड़ा दौड़ा कर काटता था| हालांकि कुत्तों को दिन में सोना और रात में जागना चाहिए, लेकिन बिल्ला दिन भर भाग-भाग के इतना थक जाता था की रात में हमेशा रमेश की खटिया के नीचे सोया मिलता था|

इसके विपरीत शेरा शांत प्रवृत्ति का धीर गंभीर कुत्ता था| गाँव के सभी कुत्तों का वो मुखिया था और सभी कुत्ते उसका सम्मान करते थे| दिन हो या रात वो हमेशा मुझे तो जागते हुए ही दिखाई देता था| गाँव के चप्पे चप्पे पर उसकी पैनी नजर रहती थी| हर दिन शाम को गोधूली की बेला के समय गाँव के बाहर बरगद के पास वाले उसर में कुत्तों की संसद सभा होती थी, जिसमे मेरे गाँव के ही नहीं बल्कि अगल बगल के गाँव के कुत्ते भी शामिल होते थे| न जाने किन समस्यायों पर विचार विमर्श करते थे, जिसका कोई निष्कर्ष निकलता होगा इस बात पर मुझे शक है| कई बार तो आपस में ही झड़प हो जाती थी, लेकिन जैसे ही शेरा के इशारे पर बिल्ला की एक भौंक आती थी, सब दुम दबा के कूँ कूँ करते हुए पीछे हट जाते थे| 

गाँव के पास में ही उन दिनों एक छोटा सा जंगल हुआ करता था, उसमे बांस, शीशम, बबूल इत्यादि के ढेर सारे पेड़ हुआ करते थे और साथ ही सियारों का एक झुण्ड भी उसी जंगल में रहता था| रात में  गाहे-बगाहे सियारों का झुण्ड गाँव पर हमला बोल देता था और मवेशी बच्चों को उठा ले जाता था| हलांकि कभी किसी इंसानी बच्चे को उन्होंने निशाना नहीं बनाया था लेकिन खतरा हमेशा ही लगा रहता था| गाँव में कुत्ते रखने का असली कारण ये भी था की इन सियारों से थोड़ी बहुत सुरक्षा हो जाती थी| और फिर शेरा और बिल्ला के आने के बाद से तो सियारों की शामत ही आ गयी थी| शेरा ने कई बार सियारों के इरादों पर पानी फेरा था और उन्हें लहूलुहान किया था| लेकिन इधर बीच कुछ दिनों से, इसे चाहे बाकी कुत्तों की मक्कारी कहिये या सियारों की दिलेरी, सियारों की गतिविधियाँ बहुत बढ़ गयी थी और सभी गाँव वाले इससे बहुत परेशान थे लेकिन गाँव वालों में कभी इतना साहस नहीं आया कि वो जंगल में घुस कर सियारों को भगा सके|

एक रात यूँ ही सियार दबे पाँव आये और गिलारू गड़रिये के बाड़ से बकरियां चुरा कर भागे| शेरा तो जाग ही रहा था, उसने तुरंत ही सियारों की फौज भांप ली और उनके पीछे भौंकते हुए भागा| सभी बहुत गहरी नींद में थे, जब तक गाँव वाले जागते और मशाल-लालटेन इकट्ठा करते तब तक सियार दो बकरियों को लेकर जंगल में पहुँच गये थे और उनका पीछा करते हुए शेरा भी जंगल में अन्दर तक घुस आया था| सियारों को उन अनगिनत घावों का बदला लेने का एक अवसर मिल गया जो की शेरा ने उन्हें दिए थे| 

सियारों ने दोनों बकरियों को जंगल में घुसते ही बाहर छोड़ा और शेरा को चारों ओर से घेर लिया| शेरा बहुत बहादुरी से लड़ा, दो सियारों को उसने चित्त भी किया, बाकी को गंभीर घाव भी लगाये|  लेकिन जंगल शेरा के लिए अनजान था, और रात के अँधेरे में दर्जन भर सियारों का मुकाबला करना आसन काम नहीं था| जब तक गाँव वाले जंगल तक पहुंचे सियार शेरा को मरणासन्न करके जंगल में भाग चुके थे, हालाँकि शेरा की इस क़ुरबानी से दोनों बकरियों की जान बच गयी थी|

इन सब हो हल्ले से जब बिल्ला की नींद खुली तो वो जंगल की तरफ भागा, और शेरा का मृतप्राय शरीर देखा| फिर तो उसने किसी की परवाह नहीं की और सीधे जंगल में घुस गया| उसका सहस देख कर उसके साथी कुत्ते भी जंगल में घुस गए| सियारों ने बिल्ला पर प्रहार किये, घाव लगे, मांस कटा, खून बहा| लेकिन आज घावों की परवाह कौन करता था, बिल्ला पर तो शेरा की मौत का बदला लेने का जूनून सवार था| देखते ही देखते बिल्ला ने बाकी श्वान-वृन्द की मदद से सियारों को चित करना चालू किया, कुछ सियार जान बचा कर जंगल से बाहर भागे, लेकिन वहां गाँव वालों ने लाठी, गड़ासे, तबली से उनकी खबर ली| उसी रात वो जंगल सियार मुक्त हो गया|

शेरा मर तो गया था लेकिन गाँव वालों के लिए शेरा साहस का प्रतीक बन चुका था| सब उसके साहस की चर्चा किये जाते थे, कैसे उसने सियारों को खदेड़ा, कैसे दो सियारों को मारा, कैसे पीठ दिखा के भागने के बजाय उसने वीरगति को प्राप्त होना ज्यादा पसंद किया| उसे बाकायदा पीपल के पेड़ के नीचे चिता बना कर आग दी गयी| लेकिन शेरा के जाने के बाद बिल्ला भी अब शांत रहने लगा था, और वैसे भी सियारों से युद्ध में मिले घावों की  वजह से उसके अन्दर अब वो चुस्ती फुर्ती भी नहीं रह गयी थी|

अपनी कॉलेज की पढाई के समय एक बार जब मैं गाँव गया तो एक दिन मैं और रमेश रात के खाने के बाद कुएं की जगत पर ऐसे ही बैठकर कुछ बातें कर रहे थे| बिल्ला हमारे पास आया और सामने ही बैठ गया| मैंने बिल्ला का सर अपनी गोद में लिया और धीरे धीरे उसे सहलाने लगा, बिल्ला ने अपना अगला पैर मेरे हाथ पर रखा और आँखे मूँद ली, और फिर कभी न खोली| 

बिल्ला को भी मैंने और रमेश ने पीपल के पेड़ के नीचे आग लगा दी| आज भी हमारे गाँव में बच्चे शेर चीते की कहानी से ज्यादा बिल्ला-शेरा की कहानी सुनना पसंद करते हैं| जब कभी मैं शहर में कुत्तों को सजावट का सामान बने देखता हूँ तो मुझे लगता है की अच्छा हुआ बिल्ला और शेरा गावं की खुली हवा में पैदा हुए| दिन-रात गाँव की खाक छानना, तालाब के कीचड़ में लोटना पोतना, खुली हवा में बिना किसी करण भागना, साथी श्वानों के साथ दो-दो हाथ करना श्वान प्रवृत्ति है न की गर्म लिहाफ में दिन रात आराम से पड़े रहना, वो तो इंसान प्रवृत्ति है|

9/24/13

बरगद के पेड़ वाली चुड़ैल



मुझे बचपन में भूतों से बहुत डर लगता था| डरने को तो लोग सांप, बिच्छू, कनखजूरा जैसे कीड़ों और शेर, चीता जैसे खूंखार जानवरों से भी डरते हैं, लेकिन मेरा मानना था की ये कितने भी खतरनाक क्यों न हो लेकिन भूतों और चुड़ैलो के सामने ये कहीं नहीं टिकते| क्योंकि आप इन्हें देख सकते हैं, ये आप पर हमला करेंगे तो आप को पता लगेगा की हमला किधर से हुआ और कब हुआ| भूत और चुड़ैल तो चुटकी में आपका नामोनिशान मिटा दे और आपको पता भी न चले|

और हमारे गाँव में भूतों ( या यूं कहे कि भूतों की कहनियों) की कोई कमी भी नहीं थी| नहर के पास वाला भूत, जो बारिश में जब तक एक दो मवेशियों को नहर में डुबा कर भोजन न कर ले तब तक मानता नहीं था| सड़क के उस पार वाला भूत, जिसके सर सड़क पर होने वाली सारी मौतें मढ़ी जाती थी| कुएं वाला भूत, जिसके ऊपर कुएं के पास वाली जमीन के बंजर होना का मामला थोपा जाता था|

लेकिन सबसे खतरनाक और रहस्यमयी थी सूखे बरगद के पेड़ वाली चुड़ैल| गावों में रिवाज के अनुसार दीपावली में हम ऊपर लिखी सभी जगहों पर दिए जला के आते थे, ताकि भूत शांत रहे | लेकिन बरगद का पेड़ दीपावली पर भी अँधेरे में रहता था, कहते हैं पुराने ज़माने में  बहुत लोगों ने दिया जलाने की कोशिश की लेकिन कोई भी दिया आज तक वहाँ टिक नहीं पाया| बड़े बूढ़े हो चाहे बच्चे, बरगद के पेड़ के पास कोई नहीं जाता| वहाँ पर सिर्फ गर्भवती महिलाएं जा सकती थी, चुड़ैल का आशीर्वाद लेने|

जैसा की अक्सर होता है किसी भी भयावह और रहस्यमयी चीज के बारे में हजार तरह की कहानियां बन जाती है, वैसे ही बरगद के पेड़ वाली चुड़ैल कैसे आई, इसके बारे में भी बहुत कहानियां मशहूर है, लेकिन मैं आज आपको जो कहानी बताने जा रहा हूँ वो कहानी मेरी दादी ने सुनाई थी, और मैं इसी कहानी को सच मनाता हूँ |

बहुत साल पहले जब दादी पैदा भी नहीं हुई थी , तब की बात है | हमारे गाँव में पहलवान नाम का एक शख्स हुआ करता था जो की अपनी कुश्ती के लिए मशहूर था| पहलवान का असली नाम बेचनदास था और बेचन का नाम पहलवान कैसे पड़ा इसकी भी बड़ी रोचक घटना है| उस जमाने में प्रचंडवीर नाम का पहलवान बहुत मशहूर हुआ करता था, वो हमारे बगल के गाँव से था और आस पास के दस गावों तक उसे सालों साल कोई हरा नहीं पाया था, कहते हैं उसने एक बार एक भैसे को अपने मुक्कों से मार गिराया था| बेचन भी बहुत बलिष्ट था लेकिन उसे कभी पहलवानी में रूचि नहीं रही| एक दिन बेचन की किसी बात पर प्रचंडवीर से बहस हो गयी, प्रचंडवीर को तो अपनी पहलवानी का घमंड था, वो हाथापाई पर उतर आया, लेकिन उसकी आशा के विपरीत बेचन ने उल्टा उसे ही पीट दिया| गाँव में चर्चा होने लगी कि प्रचंड में अब वो दम नहीं रहा| प्रचंड ने अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने के लिए बेचन को कुश्ती की चुनौती दे दी|

बरगद का पेड़ तब हरा भरा था, बरगद के पेड़ के नीचे ही दंगल लगा, दूर दूर से लोग कुश्ती का ये मुकाबला देखने आये | लोग कहते हैं की उस दिन दोनों अंधाधुंध लड़े, दोपहर से शाम हो गयी, लेकिन देखने वाले जमे रहे| कभी लगता बेचन जीतेगा, कभी लगता की प्रचंड का पलड़ा भरी है| अंत में सूरज डूबने से थोडा पहले पसीने और खून में लथपथ बेचन ने प्रचंडवीर को अपने दोनों हाथों से ऊपर उठा लिया और बरगद की एक जड़ पर दे मारा| सूर्यास्त के साथ ही प्रचंडवीर की पहलवानी का भी अंत हो गया|

गाँव वाले बेचन को कंधे पर उठा के ले आये और उस दिन से उसका नाम पहलवान पड़ गया, उस जमाने में भी बहुत कम ही लोगों को उसका असली नाम पता था | बेचन की शादी त्रिलोचिनी से हुई| त्रिलोचिनी बहुत सुन्दर थी और उसके बड़े बड़े नयनों की चर्चा दूर दूर तक थी कुछ शोहदों ने तो लोचिनी पर बुरी नजर भी डाली लेकिन पहलवान के डर से किसी ने कुछ करने की हिम्मत नहीं की|

बरगद के पेड़ के ही नीचे पहलवान सुबह सुबह कुश्ती और “उड़ी” (लंबी कूद का एक खेल जिसमें मिटटी का एक छोटा टीला बनाकर उस पर से कूदा जाता है)  अभ्यास किया करता था और लोचिनी उसका साथ देती थी | दोनों में अटूट प्रेम था और पूरा गावं दोनों पर ही गर्व करता था| दोनों अपने जीवन से बहुत खुश और संतुष्ट थे|

लेकिन ये खुशी बहुत दिन तक नहीं रही| पहलवान को एक दिन किसी सांप ने काट लिया, जहरीला सांप था और घंटे भर में पहलवान का शरीर नीला पीला पड़ कर ठंडा हो गया| लोचिनी ने ये खबर सुनी तो सन्न रह गयी, उससे न रोया गया न कुछ बोला गया, बरगद के पेड़ के नीचे ही पहलवान की चिता को आग लगा दी गयी| पहलवान के मरने पर शोहदों को खुली छूट मिल गयी, सांत्वना देने के बहाने सबने लोचिनी को कुत्सित प्रलोभन दिए| लेकिन लोचिनी ने सबको करारा जवाब दिया, कई को तो सबके सामने बेइज्जत भी किया| पहलवान के मरने पर भी वो पहलवान की उतनी ही थी जितनी उसके जिन्दा रहते थी|  

कोई दो महीने बाद खबर आई की लोचिनी गर्भ से है| सबको लोचिनी के चरित्र पर शंका हुई, और इस शंका का फायदा उठाकर उन लोगों ने, जिन्हें लोचिनी ने कई बार सरे आम बेइज्जत किया था, खबर फैला दी की ये बच्चा नाजायज है| पंचायत बिठाई गयी, लोचिनी ने गाँव वालों को ज्यादा सफाई नहीं दी, बस इतना कहा की बच्चा पहलवान का ही है, लेकिन लोचिनी की बात पर पंचायत ने भरोसा नहीं किया और लोचिनी को गाँव से बाहर निकाल दिया| लोचिनी को इससे कोई फरक नहीं पड़ा, वैसे भी पहलवान के मरने के बाद इस गाँव से लोचिनी को कोई लगाव नहीं रह गया था|

गाँव से बहार निकल कर लोचिनी ने बरगद के पेड़ के नीचे ही एक छोटी सी झोपड़ी बनायीं| पहलवान के मरने के दुःख में उसने खाना पीना वैसे ही कम कर दिया था| देखते ही देखते भरा पूरा शरीर कुम्हला कर हड्डी का ढांचा मात्र रह गया| महीने भर में ही उसकी उम्र बीस साल बढ़ी प्रतीत होती थी | अस्त व्यस्त सफ़ेद सारी में, कान्तिविहीन झुर्रीदार चेहरे के साथ खुले बालों में वो बहुत भयावह प्रतीत होती थि| उसका व्यवहार भी अजीब हो गया था| वो घंटों बरगद के पेड़ के नीचे बैठ कर खुद से बातें किया करती थी| वो ये मानने लगी थी कि पहलवान अब भी जिन्दा है और वो अब भी कुश्ती और उड़ी का अभ्यास करताहै| “बस थोडा और कोशिश करो, आधा हाथ और कूदो तो सबको पिछाड दोगे,” “आज तुमहरा मन नहीं लग रहा अभ्यास में” जैसी आवाजें बरगद के पेड़ के पास रात भर सुनी जा सकती थी| कभी वो रात में उठ कर जोर जोर ताली बजाने लगती थी और ढोल बजा कर नाचने लगती थी, जैसा वो पहलवान के कुश्ती जीतने पर किया करती थी|

गाँव के लोगों ने उसे जीते जी ही भूत मान लिया था, उससे कोई बात नहीं करता था| रात में वो पानी भरने गाँव के एक कुएं पर आती थी तो गाँव की औरतों से दो-चार शब्द बोल लेती थी | औरतें भी उसके फूले हुए पेट की वजह से उस पर दया दिखाकर कभी कभार कुछ खाने को दे देती थी|

एक दिन बहुत जोर की बारिश हुई, सब जन जीवन पानी पानी हो रहा था| काली घुप्प अँधेरी रात में लोचिनी प्रसव वेदना से तड़प रही थी और जोर जोर से दर्द में चिल्ला रही थी| बिजली की चमक में बरगद का पेड़ उस छोटे से झोपड़े के साथ बहुत भयावह लग रहा था, फिर भी गावं की एक औरत हिम्मत करके लोचिनी के पास गयी| लोचिनी ने एक मरे हुए बच्चे को जनम दिया| उस औरत ने जब लोचिनी को बताया की बच्चा मरा हुआ है तो लोचिनी शेरनी की तरह उस पर झपटी और बच्चा उसके हाथ से छीनते हुए बोली “नहीं मेरा बच्चा मरा नहीं है, वो बस अभी सो रहा है, भाग जाओ तुम, सोने दो इसे”| लोचिनी की आँखें और दांत बहार आ गए, नाक और मुहं में खून उतर आया, बिजली की चमक में जब उसका भयावह चेहरा दिखा तो वो औरत तुरंत वहाँ से भाग खड़ीं हुई|

दो दिन तक लोचिनी को किसी ने नहीं देखा, बस लोरी की आवाजें आती थी बरगद के पेड़ के नीचे से| फिर एक दिन लोचिनी ने अपनी रंगबिरंगी जरीदार साड़ी निकली, जो उसने पहलवान के साथ शादी में पहनी थी | उसने साड़ी पहनी, सारे गहने पहने, आँखों और चहरे पर काजल चपोड़ा और सर में ढेर सारा सिन्दूर डाल कर कुएं पर पानी भरने आई|

“लोचिनी ये तुम्हे क्या हो गया है, ये कैसा स्वांग रचा है तुमने” गावं की एक बुढिया ने कुएं की जगत पर पूछा|
“अरे काकी आज नन्नी के बाबा आने वाले हैं, वो नन्नी को देखेंगे तो बहुत खुश होंगे”
“कौन नन्नी ?”
“अरे मेरी बिटिया काकी, बहुत बदमाश है, पूरा दिन सोती रहती है अब इसके बाबा आयेंगे तो जगेगी”

इस पर बुढिया कुछ जवाब नहीं दे पाई, बस आँखें फाड़े लोचिनी को देखती रही|

उसी रात लोचिनी ने झोपड़े के पास एक छोटा गड्ढा खोदा, अपनी मरी बिटिया को उसमे रखा, अपने सारे गहने और कपडे उतार कर अपनी मरी बिटिया के पास रखा और और गड्ढे को मिट्टी से ढँक दिया| फिर उसने एक सफ़ेद साड़ी में खुद को लपेटा और दूसरी सफ़ेद साड़ी से झोपड़ी के ऊपर चढ कर फांसी लगा ली| कहते कि किसी की भी झोपड़ी के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई और लोचिनी की लाश को गिद्ध नोच नोच के खा गए और उसकी सफ़ेद साड़ी के चीथड़े बहुत दिनों तक ऐसे ही लटके रहे|

साल भर में बरगद का पेड़ भी सूख गया (जिसका एक वैज्ञानिक कारण ये था की बरगद के पास से जाने वाली नहर सूख गयी थी, तो हो सकता है की पेड़ भी उसी वजह से सूख गया हो) | जब गावं में जन्म के दौरान एक दो बच्चों की मौत हुई (जोकि उस ज़माने में बहुत आम बात थी) तो उसे लोग लोचिनी की घटना से जोड़ने लगे| तांत्रिक बुला कर बरगद के तने पर धागे लपेट दिए गए और झोपड़े की जगह एक छोटा मंदिर बना दिया गया जहाँ सिर्फ गर्भवती महिलाएं जा सकती थी और धागे लपेट कर अपनी बच्चे की सुरक्षा के लिए आशीष मांगती थी | मेरी दादी ने भी पिताजी के जन्म के पहले वहाँ पर धागे लपेटे थे, और मेरी माँ ने मेरे लिए|

जब बहुत जिद करने पर ये कहानी मेरी दादी ने मुझे सुनाई तो कई दिन तक मैं रात में सो नहीं पाया, आँख बंद करते ही बरगद का सूखा पेड़ सामने आ जाता था| बड़े होने पर मैंने भूत प्रेतों में विश्वास  छोड़ दिया, लेकिन फिर भी मेरी आज तक कभी हिम्मत नहीं हुई की मैं बरगद के पेड़ के पास भी जाऊं| मेरे सारे तर्क मिलकर भी बरगद के पेड़ वाली चुड़ैल का डर मेरे दिल से नहीं निकाल पाते हैं|

2/24/13

एक लोटा समंदर - भाग ४ (आखिरी भाग)

एक लोटा समंदर - भाग १
एक लोटा समंदर - भाग ३ 
-----------------------------------------------------------------------------------------

मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ| मेरे पैसे रमेश छीन कर भाग चुका था, और वो भी कोई आम पैसे नहीं थे, फीस के पैसे थे| ये बात बब्बा को पता लगी तो मेरी खैर नहीं थी| और कहीं गलती से ये पता लग गया की पैसे कैसे गए हैं तब तो और खैर नहीं थी| घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं होने के कारन पैसों की बहुत अहमियत थी, वैसे भी एक किसान के घर में एक एक पैसे का हिसाब रखा जाता है, तब पर भी पूरा नहीं पडता है|

पैसे वापस मिलना भी संभव नहीं था, अब तक तो रमेश ने उन पैसों से दूसरा लट्टू खरीद लिया होगा| अभी तो मैं स्कूल भी नहीं जा सकता था| मुझे ऐसा लग रहा था की मैं स्कूल गया तो मैडम फीस के बारे में जरूर पूछेंगी और फीस नहीं मिलने पर मेरा नाम आज ही कट जायेगा|

बब्बा की नजर में मैं बहुत अच्छा लड़का था, पढ़ने में बहुत होशियार, बड़ों का सम्मान करना, सभी काम समय से खतम करना जैसे आदर्श बालक के सभी गुण मेरे अंदर थे| और इन सब का बब्बा सभी के सामने बहुत बखान भी करते थे और गांव के बाकि लड़कों, बड़े क्या छोटे क्या, को मेरी मिसाल दिया करते थे| मुझे लगा की अब मैं बब्बा की नज़रों में गिर जाऊँगा|

ऐसी ही कई विचार, जिनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं था, मेरे दिमाग में आने लगे| जब आप छोटे होते हो तब आपकी दुनिया बहुत सीमित होती है| घर, परिवार, स्कूल, दोस्त यही सब आपकी दुनिया होती है, और इस दुनिया में थोडा सा असंतुलन आते ही आपका बाल मन सोचता है की अब सब खतम हो गया| मेरी भी हालत वही थी, अंततः मार खाने और नाम कटाने से बचने के लिए मैंने मन बनाया की मैं भाग जाऊँगा| मैंने सुन रखा था की बगल वाले गाँव के पास जो बजार है, उसके बाहर से जो सड़क जाती  है उस पर इलाहबाद जाने की बस मिलती है| वहाँ जाकर क्या करूँगा, ये अभी सोचा नहीं था|

सड़क से मुझे बहुत डर लगता था, सड़क पर तेज भागती गाड़ियों का खौफ गांव के सभी बचों में था, आज तक मैं सड़क तक अकेले नहीं गया था | सड़क बहुत दूर भी थी, लेकिन मैंने मन बना लिया था और अपने नन्हे कदम तेजी से बढाता जा रहा था| लेकिन जितना ही मैं के सड़क के करीब आता गया, उतना ही मेरा डर बढ़ता गया| मैं सड़क से कुछ दूरी पर आकर ठिठक कर रुक गया| सड़क पर बहुत गाडियां तो नहीं थी, लेकिन जो भी वो बहुत तेजी में होर्न बजती हुई, इधर से उधर भागी जाती थी|

तभी अचानक से एक सवारी जीप तेजी से होर्न बजाते हुए, सामने चलती बस को ओवरटेक करने के चक्कर में मेरे बहुत करीब से निकली| ये इतनी अचानक से हुआ की मुझे कुछ पता ही नहीं चला, अगले ही छन मैं तेजी से वापस कुएं की तरफ भाग रहा था| ठण्ड थी फिर भी मैं पसीने से तर-बतर हो गया, हांफ हांफ के जान निकली जा रही थी लेकिन फिर भी जब तक मैंने कुएं तक नहीं पहुंचा तब तक भागता ही रहा, और कुएं पर पहुँच कर उसके चबूतरे के पास ही गश खाकर गिर गया|

उसके बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं, जब मेरी आँखें खुली तो मैं अपने दालान के बाहर खटिया पर पड़ा था| मम्मी धीरे धीरे मेरा सर सहला रही थी| खटिया के सामने बब्बा खड़े थे और थोड़ी ही दूर पर रमेश भी खड़ा था|

“ कईसन हए अब ? ” बब्बा ने पूछा|
“ठीक हूँ”
“बिहोश कैसे होई गए ?”
“वो मैं वो ...” मैं इतना बोल कर चुप हो गया, मुझे लगा सड़क वाली बात तो इन्हें पाता नहीं होगी|
“सरकिया पे काउ करइ ग रहे ?” बब्बा को न जाने सब कैसे पाता चल चुका था|
मुझे इसका कोई जवाब नहीं सूझा, मैं बस मम्मी की गोद में सिमट गया|

असल में हुआ ये था की रमेश मुझसे पैसे छीन कर भाता तो, लेकिन स्कूल नहीं गया और न ही मेरे पैसों से उसने लट्टू ख़रीदा| मैं उसका सबसे अच्छा दोस्त था, और मेरे पैसे छीन कर वो बहुत दुखी था| पैसे वापस देने के लिए वो वापस से कुएं पर आने लगा तो उसने मुझे सड़क से कुएं की तरफ भागते हुए देखा, कुएं पर पहुँच कर जैसे ही मैं बेहोश हुआ वो पास के खेतों में काम कर रहे बब्बा को बुला लाया|

“अगली बार भागिहो तो बताई के भागिहो” बब्बा ने हंसते हुए कहा, और सभी लोग हंसाने लगे| उन्हें सब पाता लग गया था, मैं भी मम्मी की गोद में बैठे बैठे मुस्कुराने लगा|

अगली सुबह स्कूल जाने से पहले मैं रमेश के घर गया तो वो पहले ही निकल गया था| शायद वो अब भी लट्टू की घटना के कारण मुझसे नहीं मिलना चाह रहा था| मैं कुएं पर पहुंचा तो रमेश पहले से बैठा दिखा मुझे| मैं भी रुक गया| कुछ देर हमने कुछ नहीं बोला फिर उसने कहा - “माफ कर दे ना यार”

रमेश ने इस तरह माफ़ी मांगी तो मुझे लगा की गलती तो मेरी थी, लेकिन माफ़ी रमेश मांग रहा है| मैंने भी रमेश से कहा - “गलती मेरी ही थी, मुझे लट्टू चलाना नहीं आता था, तो मुझे जिद नहीं करनी चाहिए थी”

“चल सिखाता हूँ तुझे लट्टू”, ऐसा कहकर उसने दो चमकते हुए लट्टू जेब से निकाले|
“कहाँ से मिले ?”
“बब्बा ने फीस के पैसे वापस नहीं लिए और लट्टू खरीदने को कहा”|

लट्टू नचाते उछालते हम स्कूल की ओर चल दिए|


2/21/13

एक लोटा समंदर - भाग ३


कृपया पिछले भाग पहले के ब्लॉग में पढ़े - 

एक लोटा समंदर - भाग १

----------------------------------------------------------------------------------------------------------------

रात भर मुझे लट्टू के ही सपने आते रहे| कभी मैं विशालकाय लाल पीले रंग के लट्टू पर बैठा लट्टू के साथ नाच रहा हूँ तो कभी लट्टू के ढेर में तैर रहा हूँ| कभी कोई राक्षस मेरा सोने का लट्टू छीन कर अठ्ठाहास करता हुआ भगा जाता है तो कभी स्कूल के पास वाले तालाब में मेरा लट्टू खो गया है और मैं उसे ढूंढ रहा हूँ|  कभी लगा लट्टू आकाश में उड़ा जा रहा है और उसके पीछे मैं भी उड़ा जा रहा हूँ|

किसी तरह रात बीती और सबेरा हुआ| रोज की भांति नहा धो कर मैं जैसे ही बब्बा के पास गया मुझे फीस की याद आ गयी| मैंने बब्बा से फीस मांगी तो बब्बा ने कहा की किसी के हाथों भिजवा देंगे और मुझे उसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है| लेकिन पता नहीं मुझे क्या हो गया, मैं नहीं माना और बब्बा से फीस के पैसे लेकर ही उठा| फीस लेकर, खाकर मैं रमेश के घर आज आधे घंटे पहले ही पहुँच गया, ताकि लट्टू नचाने के लिए थोडा समय मिले मुझे|

रमेश के घर पहुंचा तो देखा रमेश मजे से गन्ना चूस रहा है, मुझे देखकर बोला - “इतनी जल्दी क्यों आ गए ? नौ बज गए क्या ?”
“नहीं अभी नहीं, लेकिन आज थोडा जल्दी चलेंगे, मुझे लट्टू भी तो नाचना है”
मेरा ये बोलना था की रमेश ने मुहं पर उंगली रखकर मुझे चुप रहने का इशारा करते हुए फुसफुसाकर कहा -
“अबे तुम मरवाओगे| यहाँ ये सब बातें नहीं करो, अभी भैया ने सुन लिया तो खाल उधेड़ के भूसा भर देंगे”
“फिर कहाँ नचाएंगे ?”
“वहीँ कल वाली जगह, कुएं के पास| तुम थोड़ी देर रुको मैं कुछ खा के आता हूँ| वैसे भी तुम्हें न जाने लट्टू का कौन सा भूत सवार है जो तुम आधा घंटा पहले ही आ धमाके|”

मरता क्या न करता, वहीँ खटिया पर बैठ कर इन्तजार किया| थोड़ी देर में रमेश अपना स्लेट लेकर आ गया|

कुएं के पास पहुँच कर मैंने कहा - “अब दो मुझे|”
“हाँ हाँ इतने अधीर क्यों हो रहे हो, देते है ना| ” कहकर रमेश ने जेब से लट्टू और डोरी निकली और मुझे दे दिया| ऐसे तो देखने में लट्टू नचाना बड़ा आसान लगता था, लेकिन जब मैंने कोशिश की तो पता चला की इतना आसान काम नहीं है| मेरी कई कोशिशों के बावजूद लट्टू नहीं नाचा, कभी डोरी हाथ से फिसल जाती थी, तो कभी लट्टू कील के बल गिरने के बजाय उल्टा गिर जाता था|

हारकर मैंने रमेश से सिखाने को कहा, रमेश ने बड़े इत्मीनान से लट्टू नचाने की कला का बारीकी से वर्णन किया| किस तरह से डोरी लपटानी है, किस तरह से लट्टू को हाथ में पकडना है, और कितनी तेजी से किस कोण पर हवा में फेंकना है सब कुछ बताया|

ट्रेनिंग लेकर मैंने फिर से कोशिश की, लेकिन ढाक वही तीन पात, लट्टू फिर भी नहीं नाचा| फिर मेरे नन्हें दिमाग में एक ख्याल कौंधा, मुझे लगा की शायद मैं अगर जमीन की बजाय कुएं की पक्की जगत (चबूतरा) पर कोशिश करूँ तो कुछ काम बन जाये| हम दोनों चबूतरे पर चढ गए और फिर से डोरी लपेट कर मैंने लट्टू हवा में उछाला| इस बार लट्टू जैसे ही पक्के चबूतरे पर गिरा, तेजी से नाचने लगा| मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा| रमेश भी खुश हुआ की चलो सिखाना कुछ काम तो आया| हम दोनों चबूतरे पर खुशी के मारे उछालने लगे|

लेकिन ये खुशी बहुत देर नहीं रही, लट्टू नाचते हुए कुएं के और करीब पहुँच गया| मैं और रमेश लट्टू की ओर लपके, लेकिन इससे पहले की हम कुछ कर पाते, लट्टू हमारी आँखों के सामने कुएं में गिर गया| मुझे लगा की लकड़ी का लट्टू तो डूबेगा नहीं, लेकिन शायद लोहे की कील की वजह से पानी में गिरते ही लट्टू दुपुक की आवाज के साथ डूबकर रसातल की ओर चला गया|

मुझे काटो तो खून नहीं, लगा की पैर जम गए हैं और चबूतरे में धंसे जा रहे हैं, दिल की धडकन तो लट्टू के चबूतरे का किनारा छोडते ही रुक गयी थी| दिमाग एकदम खाली हो गया, कुछ सूझना बंद हो गया| रमेश कुछ देर तक तो कुएं में ही देखता रह गया, शायद उसे समझने में थोडा देर लगी की लट्टू डूब गया है| फिर वो चबूतरे से नीचे कूदा और जमीन पर पैर पटक पटक कर रोने, चिल्लाने लगा|

रमेश रोता जा रहा था और मेरा लट्टू डूबा दिया, मेरा लट्टू डूबा दिया चिल्लाता जा रहा था| मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ| थोड़ी देर बाद जब रमेश रो,चिल्ला कर थक गया तो मुझसे कहा - “मेरा लट्टू वापस करो”
“लेकिन वो तो डूब गया है ” मैंने मासूमियत से कहा, मनो उसे ये बात पाता नहीं हो|
“वो मुझे नहीं पाता, मुझे मेरा लट्टू वापस चाहिए”
“मैं कहाँ से लाकर दूं, दोस्ती की खातिर मुझे माफ कर दे” मैंने दोस्ती की दुहाई देकर रमेश को पटाने की कोशिश की|
रमेश ने थोड़ी देर सोचा भी, लेकिन उसे उस समय लट्टू की अहमियत दोस्ती से कहीं ज्यादा दिख रही थी| “नहीं, दोस्ती-वोस्ती नहीं पाता मुझे| मुझे मेरा लट्टू दो, नहीं तो लट्टू के पैसे दो”

पैसे का नाम सुनते ही मुझे याद आया की फीस के पैसे मेरी जेब में पड़े थे, पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगा की रमेश को ये बात पता चल गयी है, और इसीलिए वो पैसे मांग रहा है और मैं किसी भी हालात में फीस के पैसे उसे नहीं दे सकता था| मैं शर्ट की जेब पर हाथ रखकर वहाँ से भागा, लेकिन जैसा की मैंने पहले भी बता चुका हूँ की रमेश को खेल कूद में कोई नहीं हरा सकता था, उसने मुझे दौडकर थोड़ी ही देर में धर दबोचा और मेरे पैसे छीन कर भागा| मैंने थोड़ी देर तक उसका पीछा किया लेकिन उसकी तेज चाल के आगे मेरी एक न चली और वो थोड़ी ही देर में नज़रों से ओझल हो गया| मैं कुएं के पास वापस आकार चबूतरे से टेक लेकर फूट फूट कर रोने लगा|


2/20/13

एक लोटा समंदर - भाग २

कृपया भाग १ पिछले ब्लॉग में पढ़े - 

एक लोटा समंदर - भाग १

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

हम स्कूल पहुंचे तो काफी बच्चे पहले से आ चुके थे| मैडम जी भी आ गयी थी| कक्षा एक और दो को एक ही मैडम सबेरे से लेकर शाम तक अकेले पढ़ाती थी| पढ़ाती तो क्या थी, यूँ कहिये कि टाइम पास करती थी| वैसे भी गाँव के उजड्ड देहाती बच्चों को दिन भर रोके रखना ही अपने आप में एक बहुत महान कार्य था| नीम के पेड़ के नीचे जमीन पर हमारी क्लास लगती थी, और बगल में ही एक बहुत बड़ी तलैया थी| क्लास में बैठने के लिए सबको अपना अपना कुछ जुगाड़ लेकर आना पड़ता था| अमूमन बच्चे खाद या बीज इत्यादि कि बोरी साथ में बैठने के लिए लाते थे और रमेश जैसे कुछ बच्चे वो तकल्लुफ उठाने कि भी जहमत नहीं उठते थे और कोई ईंट का टुकड़ा उठा कर उसी पर बैठ जाते थे|

स्कूल खत्म होते होते मैडम ने उन बच्चों कि लिस्ट बताईं जिन्होंने अभी तक इस महीने की फीस जमा नहीं कि थी और साथ ही ये भी बताया कि फीस ना जमा करने पर नाम भी कट सकता है| इस लिस्ट में मेरा और रमेश दोनों का नाम था| रमेश को कोई फर्क नहीं पड़ता था, उसका तो मैडम को भी नहीं पता चलता था कि कब नाम कटा हुआ है और कब लिखा हुआ| लेकिन मेरे साथ ये पहली बार ऐसा हुआ था, मेरी फीस बब्बा समय रहते गाँव के किसी ना किसी आदमी के हाथ भिजवा देते थे| मुझे न जाने क्यू डर लगा की अगर मैंने कल तक फीस जमा नहीं करी तो मेरा नाम कट जायेगा, इसलिए नाम कटने की शर्मिंदगी से बचने के लिए मैंने फैसला किया की मैं आज ही शाम को बब्बा से फीस मांग के झोले में रख लूँगा और कल जमा कर दूंगा|

स्कूल की छुट्टी की घंटी बजते ही सभी बच्चे भेड़ के झुण्ड की तरह निकले और अपने अपने रास्तों पर इधर उधर फ़ैल गए| हमारे स्कूल से घर के रास्ते में एक कुआँ पडता था| पुराने ज़माने में जब पम्पिंग मशीन नहीं आई थी तब सिंचाई या तो नहरों से होती थी, या तो कुओं पर पुराहट (ट्यूबवेल) चला कर, इसलिए ५-६ खेत बाद एक न एक कुआँ दिख ही जाता था| 


हम जैसे ही कुएं के पास पहुंचे रमेश ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकते हुए कहा -
“अबे रुक, एक चीज दिखता हूँ ”
“क्या है ? गांव चल के दिखा देना, अभी देरी हो गयी तो मम्मी पीटेंगी”
“अबे तुझे तो हमेशा ही देरी लगी रहती है, थोडा देर रुक के चलते हैं” इतना कहकर उसने जेब से लाल पीले रंग की चमकदार चीज निकली और कहा-
“ये देख ”
“ये क्या है”
“लट्टू"
“यार देखने में तो बड़ा मस्त है| इसे चला के दिखाओ”
“हाँ हाँ दिखाते हैं, दिखाते हैं, टेंशन कहे ले रहे हो मुन्ना” रमेश ने भाव खाते हुए अकडकर कहा और दूसरी जेब से डोरी निकली, फिर बड़े इत्मीनान से डोरी को लट्टू की कील से शुरू करके चारों और कई बार लपेटा| मैं बड़े कुतूहल के साथ सब देख रहा था|
“राजा अब देखो मजा| एक-दो-तीन" गिनकर रमेश ने झटके के साथ लट्टू फेंका और लट्टू जमीन पर गिरते ही तेजी के साथ गोल गोल  घूमने लगा|

बचपन में हमें हर गोल गोल घूमने वली चीज से प्यार होता है| फिर चाहे वो हवा से चलने वाली चरखी हो या स्प्रिंग से घूमने वाले नचौने| रंग बिरंगा गोल-गोल लट्टू देख कर मेरा मन मोहित हो गया|

“यार रमेश ये तो बड़ा मस्त है|”
“क्या कहा था मैंने” रमेश ने गर्व से कहा| फिर तो अगले आधे घंटे रमेश ने अपनी लट्टू कला का भरपूर प्रदर्शन किया| कभी जमीन पर नचाता था तो कभी कुएं के चबूतरे पर| कभी जमीन पर नचा कर हाथ में उठा लेता था तो कभी सीधे हवा में ही फेंककर हथेली  पर लैंड करा लेता था| लट्टू रमेश के इशारों पर नाच रहा था| मैं तो देख कर मंत्र मुग्धा हो गया|
“कब तुम ख़रीदे और कब सीख भी लिए ?"  लट्टू की चमक से जन पड़ता था की एकदम नया है, मैंने अपनी शंका निवारण के लिए पूछा|
“भैया का चुरा के सीख लिए था, ये वाला तो कल ही ख़रीदे बाजार से एकदम नया नया|"
फिर उसने लट्टू का और बखान किया "देखो रंग भी कितना मस्त है, लाल और पीला| हरे रंग का भी था, लेकिन वो पसंद नहीं आया मुझे| छूकर देखो कितना चिकना भी है| इसकी कील भी बहुत मजबूत है, कभी टूटेगा नहीं लट्टू मेरा|”
आप नयी चीज खरीदते हो तो आपको लगता है की सामने वाला भी उसकी तारीफ करे| उसी तारीफ की लालसा में रमेश मुझे लट्टू  से जुडी छोटी से छोटी चीज मजे से बता रहा था| और मैंने भी तारीफ करने में कोई कसर नहीं छोडी| वैसे लट्टू  था भी बहुत शानदार, और रमेश ने जिस कुशलता के साथ उसका प्रदर्शन किया था, उसके बाद तो उस लट्टू की तारीफ न करना खुद की अज्ञानता का परिचय देना था|

“मुझे भी चलाने दो"
“अबे कभी चलाये हो ?”
“नहीं”
“फिर टूट गया तो” मैंने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया|
उसने थोडा देर सोचा फिर कहा “अच्छा ठीक है, अभी तो लट्टू नया है तो मैं अभी नहीं दूंगा, लेकिन तुम इसे कल सबेरे चला सकते हो, सिर्फ हमारी पक्की दोस्ती की खातिर”

बचपन में, बचपन में ही क्या मैंने तो बड़े होने पर भी देखा है, दोस्ती चाहे जितनी गहरी हो, कोई भी नयी चीज बिना एक बार खुद इस्तेमाल किये दोस्त को देने का मन नहीं करता है| एकदम नयी नयी शर्ट आप कभी दोस्त को नहीं देंगे, एक बार पहनने के बाद भले ही आप जिंदगी भर के लिए दे दे|

लेकिन मैं कल सुबह के वायदे से भी बहुत खुश था ,फीस वीस सब मैं भूल चुका था, अब मेरे दिमाग में सिर्फ लट्टू घूम रहा था, आज की रात बड़ी लंबी होने वाली थी|


एक लोटा समंदर - भाग ३ 
एक लोटा समंदर - भाग ४ (आखिरी भाग)

एक लोटा समंदर - भाग १

कड़ाके की हड्डी गला देने वाली ठंडी पड़ रही थी, और साथ ही साथ थोडा थोडा कुहरा भी छाया हुआ था| धूप अभी निकलने की कोशिश ही कर रही थी, लेकिन इन सब की परवाह न करते हुए रोज की ही भांति बब्बा का कौड़ा (लकड़ी का अलाव) जल चुका था| वैसे मैं रोज बब्बा के जागने के बाद ही जागता था, इसलिए मुझे कभी पता नहीं चला की ये कौड़ा बब्बा कब जलाते हैं और कौड़ा जलाने के लिए इतनी ढेर साडी लकड़ी कहाँ से लाते हैं| लेकिन इतना पता था की सूरज की पहली किरण निकलने से पहले गोशाला के पास में कौड़ा जल जाता था और गाँव के सभी बूढ़े आ जाते थे|

जब मैं जगा तो गाँव के ५-६ बूढ़े पहले से ही बब्बा के पास पुआल पर आसान जमा के बैठे थे और हुक्के की गुड गुड के साथ सर्दी की सुबह वाली चाय का आनंद ले रहे थे| आज चर्चा का विषय ये था की चरखे पर किसके गन्ने की पेराइ होगी और किसका गुड बनेगा| गाँव में सभी लोग मिल बाँट कर काम करते हैं, तो एक ही चरखे पर बारी बारी से सब अपना गन्ना पेर लेते हैं| वैसे भी हमारे गाँव में सिर्फ घर के इस्तेमाल भर का ही गन्ना लोग उगाते थे इसलिए एक-दो दिन में ही एक खेत गन्ने की पेराई हो जाती थी|

खैर मुझे इन सब मामलों में कोई बहुत रूचि नहीं थी, वैसे भी ६ साल के बच्चे को इन सब मामलों में रूचि रहनी भी नहीं चाहिए| गाँव से कोई १ किलोमीटर की दूरी पर के एक स्कूल में मैं पढने जाता था| बाकि बच्चों के विपरीत मुझे स्कूल जाना बहुत अच्छा  लगता था और साथ ही मुझे किसी ने सिखा दिया था की हमेशा नहा के स्कूल जाना चाहिए| तो ठंडी पड़े, कुहरा पड़े, ओले पड़े लेकिन मैं रोज सुबह सुबह दुदहिया बाल्टी (बाल्टी जिदामे बब्बा दूध दुहते थे, ये बाल्टी बाकि बाल्टियों की अपेक्षा छोटी थी और चूँकि मैं भी बहुत छोटा था और बड़ी बाल्टी उठा नहीं पता था, इसलिए मैं हमेशा दुदहिया बाल्टी ही इस्तेमाल करता था) दालान के पास लगे सरकारी नल पर नहाने पहुँच जाता था| अब कायदे से नहाना तो मुझे आज तक नहीं आया तो बचपन में मैं तो क्या ही नहाता होऊंगा| आधा पानी मेरे ऊपर गिरता था, आधा नल के चबूतरे के पास लगे छोटे से नीम के पेड़ पर|

हर दिन की तरह आज भी जैसे ही जाड़े की गुगुनी धुप बढ़ी मैं नहा धो कर आ गया| सिर पर ढेर सारा सरसों का तेल चपोड़ा, और खाने के लिए बैठ गया| ठंडी के दिनों में अक्सर सबेरे खिचड़ी बनती थी| ठंडी का दिन हो और सुबह सुबह आलू मटर की खिचड़ी मिल जाये तो क्या कहने| और मैं तो जब तक दो-तीन चम्मच घी न डलवा लू खिचड़ी में तब तक हाथ भी नहीं लगता था| यादवों के घर में पैदा होने से ये एक फायदा तो हुआ था, बाकि किसी चीज की चाहे जितनी कमी हो लेकिन दूध दही घी की कमी कभी नहीं रही| मैंने खिचड़ी खायी और फिर बब्बा के पास जाकर बैठ गया| अब तक धूप भी अच्छे से निकल आई थी|

बब्बा मेरे दादा जी थे| बब्बा को घर में सभी लोग, चाहे वो बड़ा हो या छोटा, बब्बा ही कहते थे| मेरे पापा भी बब्बा को बब्बा कहते थे और मैं भी बब्बा को बब्बा कहते था| घर के बहार उनका दूसरा नाम था, सब उन्हें प्रधान कहके बुलाते थे| वो पहले १० साल तक गाँव के प्रधान रह चुके थे, और इसलिए उनका नाम प्रधान पद गया था, पूरा गाँव उन्हें प्रधान के नाम से ही जनता था| बस चिठ्ठी के ऊपर प्रधान लिख दो चिठ्ठी अपने आप हमारे ही घर पहुंचेगी, भले ही वो फिर वर्तमान प्रधान की ही क्यों न हो| बब्बा को मैंने हमेशा सफ़ेद धोती कुरते में देखा था और उनके साथ हमेशा एक बांस की चढ़ी रहती थी| शादी ब्याह में या किसी खास मौके पर बब्बा कुरते के ऊपर एक जैकेट भी पहनते थे और बांस की साधारण छड़ी की जगह शहर से मंगाई हुई एक महँगी छड़ी का इस्तेमाल करते थे| वैसे तो बब्बा घर पर हुक्का ही पीते थे लेकिन उनके साथ हमेशा बीडी का एक बंडल रहता था| पूर्व प्रधान होने की वजह से या किसी और वजह से ये तो मुझे पता नहीं, लेकिन बब्बा का पूरा गाँव बहुत सम्मान करता था|

स्कूल गाँव से काफ़ी दूरी पर था, इसलिए मैं अकेले नहीं जाता था, मेरे साथ मेरा पक्का दोस्त रमेश भी जाता था| रमेश मेरी ही उमर का था लेकिन मेरे विपरीत उसकी पढाई लिखाई में बिलकुल भी रूचि नहीं थी| लेकिन खेल कूद में उसका कोई सानी नहीं था| स्लेट रंगने के विभिन्न तरीकों से लेकर गाँव के बाहर पीपल और गूलर के पेड़ों पर विराजमान भूतों के बारे में उसको पूरा ज्ञान था, और ये ज्ञान वो मुझे मौका मिलने पर देता रहता था| साइकिल का टायर दौड़ने में वो हमारी बाल मंडली का चैंपियन था|

जैसे जैसे सूरज चढ़ा, बब्बा कि मंडली भी धीरे धीरे विसर्जित हो गयी और बब्बा भी खेत में जाने कि तैयारी करने लगे| मैं भी अपना झोला स्लेट लेकर रमेश के घर पहुँच गया| रमेश को स्कूल जाने के लिए किसी तैयारी कि जरूरत नहीं होती थी| वो जिस हाल में रहता था उसी हाल में अपना स्लेट लेकर स्कूल के लिए निकाल लेता था, वैसे भी पढाई उसे करनी नहीं होती थी| मैंने एक दो बार रमेश-रमेश आवाज़ दी और रमेश स्लेट लेकर हाजिर हो गया| हम दोनों हरे हरे मटर के खेतों में दो नन्हे खरगोशों कि भांति उछालते कूदते स्कूल के लिए निकाल दिए|


एक लोटा समंदर - भाग २
एक लोटा समंदर - भाग ३ 

1/26/13

एक सूरज निकला था

पूरब ने अभी अभी सूरज को क्षितिज से निकलते देखा है| सूरज वैसे तो रोज ही निकलता है लेकिन आज सूरज का रंग और दिनों से ज्यादा लाल है और तपिश और दिनों से ज्यादा तेज है| कल रात भीषण चक्रवात के साथ मूसलाधार बारिश हुई थी| सब पानी पानी हो गया था, जन जीवन अस्त व्यस्त था, धरती कीचड में सन गयी थी| सूरज अपनी  चिलचिलाती धुप में सब कुछ सुखा देना चाहता था|

और ऐसा नहीं है की आकाश साफ़ था| रुई के फाहों से कुछ बादल पिघले नीलम से स्याह आकाश में इधर उधर बिखरे पड़े थे| लेकिन सूरज को इनसे कोई फरक नहीं पड़ रहा था| सूरज अपनी ही धुन में मदमस्त हाथी की भांति बढ़ रहा था और जैसे-जैसे दिन चढा सूरज भी बादलों की डोर पकडे आकाश के बीचों बीच आ गया| अब तो सूरज की तपिश और भी बढ़ गयी थी और लग रहा था की आज तो आकाश से आती सूर्य की चमक में सब कुछ विलीन हो जायेगा|

तभी क्षितिज से बादलों का एक छोटा झुरमुट उमडता-घुमड़ता दिखाई दिया| ये बादल सफ़ेद नहीं थे, ये काले बदल थे, जिनके बारे में मशहूर था की ये सिर्फ गरजते ही नहीं बरसते भी हैं| लेकिन इन बादलों का झुरमुट बहुत बड़ा नहीं था, लगा की इतना छोटा मरियल सा समूह आकाश में पूरी तीव्रता से चमकते सूर्य का क्या बिगाड़ पायेगा|

कुछ बादलों ने आगे बढ़ कर सूरज को ढक लिया और उसकी रोशनी को मद्धम कर दिया| हालाँकि बादलों के ऊपर सूरज ने चमकना नहीं छोड़ा, लेकिन अब ये चमक धरती तक नहीं पहुँच पा रही थी| कुछ सूरज ने इन काले बादलों के साथ संग्राम किया और कुछ हवा ने सूरज का साथ दिया, देखते ही देखते कुछ ही देर में ये काले बदल छंट गए और सूरज और भी तीव्र ओज से आकाश में चमकने लगा|

लेकिन ये बादल किसी भी तरीके से उस वीभत्स सेना का अंश मात्र भी नहीं थे जो क्षितिज पर सही समय आने का इंतजार कर रही थी| शायद बादलों का छोटा झुरमुट सिर्फ सूरज की टोह लेने आया था| क्षितिज पर फिर से बादलों का एक झुण्ड निकला और इस बार जैसे-जैसे वो हवा के रथ पर सवार सूरज की और आगे बढ़ा, उनके पीछे क्षितिज से निकलते काले बादलों की पूरी सेना दिखाई दी| वो आगे बढते ही जा रहे थे, जितना ही वो आगे बढ़ कर पीछे जगह खाली करते, क्षितिज से उतने ही नए काले बादल निकल कर उस आकाश को भर देते| हवा भी, जिसने अभी कुछ देर पहले सूरज को इन बादलों के प्रहार से बचाया था वो अब विश्वासघात पर उतर आई थी| धीरे धीरे आकाश बादलों से भर गया|

सूरज ने बहुत देर तक इन बादलों से लड़ाई की, कभी वो बादलों के पीछे जाकर वार करता तो कभी आगे आकार चमकता| इन बादलों से सूरज कभी विजय नहीं प्राप्त कर सका था, और आज का दिन कुछ अलग नहीं था, फिर भी सूरज इनसे जद्दोजहद करने में लगा था| कुछ देर में सूरज को बादलों ने पीछे धकेल दिय और धरती पर अंधकार छ गया, भीषण चक्रवात के साथ बदल बरसने लगे, अब पूरे आसमान में काले बादलों का राज था |

घंटों बारिश के बाद हवा ने बादलों को आकाश से खदेडना चालू किया| हवा का अब भी पता नहीं चल रहा था की वो सूरज के साथ है की बादलों के साथ| बादल हटे तो, लेकिन अपने हिस्से की तबाही वो बरपा चुके थे और अट्ठाहस करते हुए भागे जाते थे| जैसे जैसे बादल छंटे सूरज की एक झलक दिकाई दी| लेकिन दिन अब खतम होना चाहता था और सूरज एक घायल हारे हुए सिपाही की भांति गिरते पड़ते क्षतिज की ओर बढ़ता जा रहा था| क्षितिज पर पहुँच कर सूरज गिर गया| सूरज के शरीर से रिसते हुए रक्त की बूंदों से देखते देखते पूरा आकाश लाल हो गया| सूरज अब पूरी तरह क्षितिज से लुढक चुका था|