6/18/14

एक खाऊँ दो खाऊँ तीन खाऊँ चारों

ये एक बाल कहानी है, जिसे मेरे पिताजी ने बचपन में हमें न जाने कितनी बार सुनाई है| इस कहानी से कुछ शिक्षा मिलती है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन इस कहानी में वो सब कुछ था जिसकी तलाश एक बच्चे को होती है| अब जैसा की मैंने कहा ये एक बाल कहानी है तो कृपया इस कहानी को बाल मन से पढ़ने की कोशिश करें|

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तो भाई ऐसे ऐसे करके कई दिन पहले किसी गाँव में एक ब्राह्मण हुआ करता था| उसके पिता गाँव के पण्डित थे और पूजा पाठ का काम किया करते थे| लेकिन न तो पोथी पत्री उसके पल्ले पड़ी और न ही मन्त्रों से उसकी मित्रता हो पाई और फिर पिता की मृत्यु के बाद उसे गरीबी ने घेर लिया| जब ब्राह्मण देव की शादी हुई तो उन्हें लगा की अब ऐसे तो जीवन निर्वाह होने से रहा| हालत गिरती गयी और जब खाने पीने के भी लाले पड़ गए तो उन्होंने अपनी पत्नी से सलाह मशवरा करके फैसला किया कि शहर जाकर कुछ कमाई की जाये|

अब शहर बहुत दूर था तो पंडित जी ने शाम को ही सब सामान तैयार किया और अपनी पोटली बना ली| तडके सुबह उठकर नहाये धोये| पत्नी ने एक गठ्ठर में थोडा सत्तू बाँध दिया और उसके साथ ही एक खोइंचा बना के रख दिया| खोइंचा एक बहुत मोटी रोटी होती है जिसमे लहसुन, नमक, मिर्च इत्यादि पहले से ही पड़ा रहता है, इसलिए खोइंचा आप यूँ की बिना किसी सालन के खा सकते हैं| खैर सब तैयारी करके पंडित जी घर से निकल लिए|

चलते चलते सुबह बीती और फिर धूप बढ़ी तो पंडित जी ने अपना गमछा निकल कर सर पर रख लिया| लेकिन फिर भी कुछ राहत नहीं मिली| पसीने के वजह से शरीर से पानी भी निकल रहा था और बहुत जल्द ही पंडित जी को प्यास लगने लगी| अब घर से तो पानी लेके चले नहीं थे पंडित जी और फिर बीच में कहीं कुएं इत्यादि पर रूक के कुछ जलपान भी नहीं किया था तो उनकी हालत जो है वो ख़राब होने लगी|

फिर कुछ दूर जाकर उन्हें आम के पेड़ों का एक बाग़ दिखा, पंडित जी ने सोचा की चलो पानी न सही, थोडा देर अमराई की छाया में आराम कर लिया जाये फिर आगे जाके पानी ढूँढेंगे| लेकिन पंडित जी की शायद किस्मत तेज़ थी, बाग़ में पहुंचे तो देखा की बाग़ में ही एक कुआँ भी है, पंडित जी फूले नहीं समाये| फटाफट अपने रस्सी और लोटे से पानी निकल कर पिया | गला थोडा तर हुआ तो जान में जान आई| पंडित जी ने सोचा की अब न जाने कितनी दूर पर पानी मिले, तो क्यों न यही कुछ जलपान भी कर लिया जाये|

कुएं के चबूतरे पर पंडित जी ने पोटली खोल के देखा की पंडिताइन ने क्या रखा है खाने के लिए| सत्तू पंडित जी को कुछ खास पसंद नहीं था तो उनका दिल खोइंचे पर आया| लेकिन खोइंचा देख कर पंडित जी दुविधा में पड़ द गए, खोइंचा काफी बड़ा और मोटा था, और पंडित जी को अभी इतनी भूख भी नहीं लगी थी | फिर पंडित जी को लगा की अभी न जाने कितना समय लगे शहर पहुँचने में और न जाने खाने का क्या इन्तेजाम हो पायेगा| इसी उधेड़ बन में उन्होंने खोइंचे के चार तुकडे किये और अपने से ही बोलने लगे “एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों |”

उसी कुएं में चार भूत भी रहते थे| वो भी मजे से शायद सो रहे थे की उन्होंने पंडित जी की आवाज सुनी - “एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों” भूतों ने ये सुना तो उनकी हालत ख़राब हो गयी| उन्हें लगा की पंडित को पता लग गया है की कुएं में चार भूत रहते हैं और वो रहे हैं की कितने भूतों को खाया जाये| चारों भूत डर गए और आपस में सलाह मशवरा करने लगे की अब इस विकट समस्या का समाधान कैसे हो| बहुत सोच विचार करके उन्होंने फैसला किया की सीधे जाकर ब्राह्मण देवता से बात करनी चाहिए और जान छोड़ देने की विनती करनी चाहिए|

चारों भूत बाहर निकले और पंडित जी के सामने हाथ जोड़ के खड़े हो गए | पंडित जी ने अपने सामने चार भूत देखे तो उनकी घिग्घी बंध गयी, लगा की अब ये विपत्ति कहाँ से आ गयी| लेकिन एक भूत ने विनती भरे स्वर में कहा - “हे विप्र देव| आपकी महिमा अपरम्पार है, आप की मंत्र शक्ति से कौन नहीं डरता है| लेकिन आप हम भूतों को क्यों खाना चाहते हैं| हमसे ऐसी क्या भूल हो गयी है ब्राह्मण देवता |”

पंडित जी ने भूत के ये शब्द सुने तो उन्हें तुरंत सब माजरा समझ आ गया| उन्हें लगा की इस मौके का फायदा उठाना चाहिए | तुरंत गमछे से खोइंचे को ढकते हुए कहा - “तुम भूतों ने बहुत आतंक मचा रखा है, तुम्हारे डर से न तो कोई इस बाग़ में आम खाने आता है न ही पानी पीने| और फिर मुझे भूख भी बहुत लगी है | आज मैं तुम लोगों को खा के तुम्हरे इस आतंक का अंत कर दूंगा|”

ब्राह्मण के ऐसे कठोर शब्द सुने तो भूतों के होश फाख्ता हो गए| पंडित जी का अभिनय रंग लाया था | अब क्या किया जाये, विप्र देव तो बहुत ही गुस्से में लग रहे थे| एक भूत ने किसी तरह अपने को संयत करते हुए कहा -” विप्र देव आप हमारी जान बख्श दे | हम गाँव के किसी भी व्यक्ति को परेशान नहीं करते हैं| और जहाँ तक आपकी भूख का सवाल है तो उसका हल हमारे पास है|”

“क्या हल है ” पंडित जी ने कुतूहल वश पुछा| बाकि तीन भूत भी उसकी ओर आशा भरी नज़रों से देखने लगे की भाई ने ऐसा क्या प्लान बनाया है |

“इम भीम क्डीम” करके एक भूत ने मंत्रोच्चारण किया और तुरंत एक चाँदी की कड़ाही प्रकट हो गयी| पंडित जी तो देख के दंग रहे गए| कड़ाही पंडित जी को देते हुए भूत ने फिर कहा - “ हे विप्र देव| ये लीजिये चमत्कारी कड़ाही, जब भी आप को भूख लगे आप बस अपने मन पसंद व्यंजन का विचार मन ही मन आँख बंद करके करे और आँख खोलते ही कड़ाही वो व्यंजन आपके सामने प्रस्तुत कर देगी|”

पंडित जी को लगा की ये तो भाग्य ही खुल गए| बैठे बैठे ही खाने की समस्या का जिंदगी भर के लिए समाधान हो गया, वैसे भी पंडित जी  को खाने के सिवाय और चाहिए भी क्या| पंडितजी ने तुरंत कड़ाही लेते हुए बनावटी गुस्से से कहा “ठीक है ठीक है| हम तुम्हारी कड़ाही से प्रसन्न हुए, इसलिए तुम्हारी जान बख्शते हैं|” भूतों ने सुना तो खुश हो गए| कड़ाही देकर पंडित जी को विदा किया और वापस कुएं के अन्तः तल में विलीन हो गए |

अब पण्डित जी कहानी लेकर ख़ुशी ख़ुशी वापस चले अपने घर की ओर| लेकिन शायद रास्ता भटक गए और रात होने तक भी आधी ही दूरी तय कर पाए| अँधेरा हो गया था, रास्ते में  एक घर दिखाई दिया, पंडित जी ने सोचा की क्यू न रात भर के लिए ठहराने का आग्रह किया जाये|

पंडित जी ने दरवाजा खटखटा कर पूछा तो पता चला की घर का स्वामी तेल का व्यापारी था, और उसने एक ब्राह्मण को अपने द्वार पर देखा तो बहुत खुश हुआ और ख़ुशी ख़ुशी पंडित जी को रात भर ठहराने के लिए हामी भर दी| थोड़ा जलपान करने के बाद व्यापारी ने अपनी पत्नी से पंडित जी के लिए भोजन बनाने को कहा तो पंडित जी को कड़ाही याद आ गयी| तुरंत उन्हें रोकते हुए कहा की कहाँ परेशान परेशां होते हैं और अपनी जादूई कड़ाही निकाली|

फिर तो क्या था, पण्डित जी ने देखते ही देखते हलवा पूरी, मटर पनीर की सब्जी, कटहल की तरकारी, खीर, सेवई, मिठाई, रायता और न जाने क्या क्या सब सामने परोस दिया| ऐसी चमत्कारी कड़ाही देख के व्यापारी का तो मन ही डोल गया| सभी ने जम कर भोजन किया और सोने चले गए|

लेकिन व्यापारी को अब नींद कहाँ, उसके सामने अभी भी चमत्कारी कड़ाही ही घूम रही थी| ऐसी कड़ाही मिल जाये तो क्या कहने एक ढाबा खोल लूँ, बिना कुछ किये हजारों का धंधा तो ऐसे ही हो जाये| व्यापारी के मन में चोर घुसा गया| अपनी पत्नी को जगा कर मन की बात बताई, उसे भी ये बात जँच गयी| अपने रसोई से वो वैसी ही दिखने वाली एक कड़ाही लेकर आई, और व्यापारी ने जाकर पंडित जी की कड़ाही बदल दी |

सबेरा हुआ, पंडित जी ने व्यापारी से विदा ली और नकली कड़ाही लेकर घर की ओर निकल लिए| मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे की पंडिताइन देखेगी तो कितना खुश होगी| जल्दी जल्दी कदम बढाकर दोपहर के खाने से पहले घर पहुँच गए| पंडिताइन ने पंडित को आते हुए देखा तो पहले तो बहुत नाराज हुई, कहा की अभी कल तो गए थे इतनी जल्दी मुहं उठा के चले आये, कमाने गए थे की सैर करने?  मैंने तो खाना भी नहीं बनाया आज| लेकिन पंडित जी ने कड़ाही निकलते हुए कहा “अरे पंडिताइन गुस्सा क्यू होती हो, थूक दो गुस्सा और खाने की तो तुम परेशानी लो ही नहीं| आज मैं जो चीज लाया हूँ की तुम जिंदगी भर मेरे चरण धो के पियोगी| तुम्हारा दिल खुश कर देंगे| अभी देखो तुमहरा मनपसंद हलवा तैयार करते हैं|”

पंडिताइन को लगा की पण्डित पगला गया है लेकिन फिर भी वो कुछ न बोली और कड़ी रही| पंडित जी ने कड़ाही निकाली और आँख बंद करके पंडिताइन का मनपसंद गाजर का हलवा मन में सोचा और आँखे खोली| लकिन ये क्या कड़ाही तो वैसी की वैसी ही रही, कुछ बने भी कैसे कड़ाही तो व्यापारी ने बदल दी थी| कई बार प्रयत्न किया लेकिन ढाक के वही तीन पात, कुछ नहीं हुआ| पंडिताइन ने उपहास करते हुए कहा कहा - “वाह क्या हलवा था, भाई मेरा तो मन भर गया, थोडा तुम भी खा लो" और रसोई में चली गयी|

पंडित जी को समझ नहीं आ रहा था की आखिर क्या हो गया, व्यापारी ने काफी आवभगत करी थी इसलिए उन्हें उस पर शक नहीं हुआ| उन्हें लगा की भूतों ने ही घटिया क्वालिटी की कड़ाही दी होगी, लेकिन अब ये कहानी पत्नी को बताते तो और मजाक बनता इसलिए उन्होंने चुप्पी रखने में ही अपनी समझदारी समझी|

खैर कुछ दिन और बीते और फिर से पंडित जी ने शहर जाने के लिए पत्नी से मशवरा क्या| असल मे तो उनका प्लान ये था कि भूतों की खबर ली जाएगी| फिर से सब तैयारी करके, गठरी, खोइंचा और साथ में वो कड़ाही लेकर पंडित जी फिर से कुएं पर पहुंचे और खोइंचे के टुकड़े करके बोलने लगे - एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों

भूतों ने सुना तो सोचा की ये विपदा फिर से कैसे आ गयी| “विप्र देव को हमसे क्या दुश्मनी है, इन्हें चमत्कारी कड़ाही तो दे दी फिर भी हमें खाने पर ही तुले हुए हैं” एक भूत ने कहा| पंडित जी और जोर जोर से बोलने लगे| डर कर भूत फिर से बाहर निकले और कहा - “हे विप्र श्रेष्ठ, हमसे क्या भूल हो गयी अब?”

“धूर्त हो तुम लोग, ये लो अपनी कड़ाही, किसी काम की नहीं है| बस एक बार इसने खाना बनाया और फिर उसके बाद ख़राब हो गयी” पंडित जी ने कड़ाही भूतों की ओर फेंकते हुए कहा| जिस भूत ने कड़ाही दी थी उसकी ओर बाकि भूतों ने गुस्से भरी नज़रों से देखा| उस भूत ने भी कड़ाही की जांच पड़ताल की लेकिन उसे समझ नहीं आया की आखिर ये समस्या कैसे आ गयी|

“मैं तुम सब को अभी भस्म करता हूँ” पंडित जी ने गरजते हुए कहा | सभी भूत डर गए उन्हें समझ आ रहा था की फिर से सिर्फ एक कड़ाही थमा देने से पंडित जी के कोप से बचा नहीं जा सकता है| इसलिए एक भूत ने फिर से “इम भीम क्डीम” का जाप करते हुए चांदी के सिक्के से भरी एक पोटली पंडित जी को दी| पोटली का रहस्य ये था की जितने ही सिक्के पोटली से निकाले जायेंगे उतने ही सिक्के फिर से पोटली में अपने आप भर जायेंगे| एक तरह से ये एक अनंत सिक्कों वाली एक पोटली थी|

इस उपहार से पंडित जे कैसे इनकार कर सकते थे| ख़ुशी ख़ुशी पोटली ली और भूतों से विदा लेके वापस घर की ओर चले, लेकिन फिर से पंडित जी रास्ता भटक गए और रात गुजरने के लिए व्यापारी के यहाँ रुके| रात के भोजन के बाद पंडित जी ने अपनी शेखी बघारने के लिए व्यापारी को पोटली दिखा दी|

अब जैसा की आप अनुमान लगा सकते हैं, हुआ वाही, रात में व्यापारी ने पोटली बदल दी| और जब पंडित जी घर पहुंचे पोटली से चाँदी के सिक्के निकाल के पंडिताइन को दिए| पंडिताइन खुश हो गयी लेकिन पण्डित जी ने देखा कि पोटली तो फिर से भरी ही नहीं| फिर से पंडित जी का शक भूतों पर ही गया| और इस बार पंडित जी गुस्से से आग बबूला हो गए और अगली ही सुबह फिर से कुएं पर जा धमाके|

खैर इस बार जब पंडित जी ने एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चरों का जाप किया तो भूतों को भी गुस्सा आ गया| हालाँकि पण्डित जी कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि भूतों को तो सिर्फ वहम था की पंडित जी कोई पहुंचे हुए ब्राह्मण हैं और मन्त्रों से भूतों को ख़तम कर देंगे, लेकिन फिर भी पंडित जी भूतों के डरने की वजह से वाकई में खुद को पहुंचा हुआ तांत्रिक समझने लगे थे और पूरे गर्मजोशी से भूतों को ललकार रहे थे| जब भूत निकले तो भूतों ने पण्डित जी से पूरी घटना सुनाने को कहा| पंडित जी ने पूरी कहानी कह सुनाई| कहानी सुनकर भूतों को समझ आ गया की हो न हो ये सब उस तेल व्यापारी की ही कारस्तानी है|

लेकिन ये बात पण्डित जी को बताने के बजाय उन्होंने एक दूसरा उपाय सोचा| “इम भीम क्डीम” करके एक भूत ने इस बार पंडित जी के लिए एक रस्सी और एक डंडा निकल के दिया| पंडित जी ने पूछा कि ये क्या काम करता है तो भूतों ने कहा की बस पंडित जी अप ऐसा कहियेगा की “ले झपट दे पलट काम कर दनादन” और फिर देखिये रस्सी डंडे का कमाल| पंडित जी के मन में शंका तो थी की आखिर क्या कम करेगी ये लेकिन फिर भी वो विदा लेके चल दिए|

पंडित जी रात गुजारने के लिए फिर से व्यापारी के यहाँ रुके| व्यापारी को कुतूहल तो था ही कि इस बार पंडित जी क्या लाये हैं उसने पंडित जी को जलपान करते ही पुछा| फिर क्या था, पहले की तरह ही पंडित जी ने रस्सी डंडा निकला और जैसे ही उन्होंने कहा “ले झपट दे पलट काम कर दनादन" रस्सी ने झट से व्यापारी को बाँध लिया और डंडे ने उसकी धुनाई चालू कर दी|

“मार डाला रे मार डाला रे” चिल्लाते हुए व्यापारी इधर उधर भागने लगा लेकिन डंडे ने उसका पीछा नहीं छोड़ा| व्यापारी की पत्नी आ गयी और पंडित जी से आग्रह करने लगी कि रस्सी डंडे को रोकिये| लेकिन अब पंडित जी  को तो कुछ पता ही नहीं था की इसे रोकना कैसे है “रूक जा, बंद हो जा, थम जा” जैसे न जाने कितने जुमले पंडित जी ने उपयोग किये लेकिन डंडा पिटाई करता ही रहा| पत्नी को लगा की शायद ये सब उनकी चोरी का नतीजा है, तो उसने पंडित जी को कड़ाही और सिक्कों वाली पोटली की बात बता दी और दोनों लाके पंडित जी को वापस कर दिए|

ऐसा करते ही डंडा रूक गया और रस्सी ने भी व्यापारी को छोड़ दिया | पंडित जी एक तरफ तो गुस्से में थे कि लाला ने चोरी की और धोखा दिया, लेकिन फिर खुश भी थे कि उन्हें उनका सामान वापस मिल गया| व्यापारी ने क्षमा याचना की तो पंडित जी ने उदार हृदयता दिखाते हुए लाला को क्षमा कर दिया और ख़ुशी ख़ुशी कडाही और पोटली लेकर अपने घर की ओर चल दिए|

अगले दिन जब पंडित ने असली कड़ाही से गाजर का हलवा बनाकर पण्डिताइन को खिलाया तो फिर तो क्या कहने| पण्डिताइन ने पण्डित जी को गले से लगा लिया|