6/5/14

बचपन: मेरी साईकिल

मानव विकास के बड़े बड़े अविष्कारों में आग और पहिये को गिना जाता है, सही भी है| लेकिन यदि हम नए समय के अविष्कारों में से चुने तो मेरे ख्याल से साइकिल का अविष्कार एक बहुत ही क्रांतिकारी अविष्कार था| साईकिल एक बहुत ही उम्दा अविष्कार है| दो पहियों की शानदार सवारी, न तेल का झंझट न ही बैटरी का| बस उचक के गद्दी पर बैठ गए और लगे ताबड़तोड़ पैडल मारने और मिनटों में ही साईकल हवा से बातें करते हुए फर्राटे से भागी जाती है| मेरे बचपन के कई साल इस रहस्य का पर्दाफाश करने में गुजर गए कि सिर्फ दो पहियों पर चलने की बावजूद ये साईकिल गिरती क्यों नहीं है|

साईकिल से मेरा पहला परिचय गाँव में हुआ था| मेरे पिताजी को शादी में काले रंग की बाईस इंची एटलस साइकिल मिली थी| हालाँकि पिताजी को तो बहुत चलाने का मौका नहीं मिला लेकिन मेरे चचेरे भाइयों ने साईकिल का जमकर उपयोग किया| अब साईकिल जितनी ज्यादा ऊँची थी, मैं उतना ही छोटा तो मेरी ये धारणा बनना स्वाभाविक था की साईकिल बच्चों के काम की चीज नहीं है|

एक बालक कैची साइकिलिंग को अंजाम देता हुआ 
लेकिन हमेशा की तरह ही मेरे बचपन के दोस्त रमेश ने मेरी इस धारणा का उपहास बनाने में देरी नहीं की| साईकिल ऊँची होने के कारण उसके पैर पैडल तक नहीं पहुंचते थे इसलिए वो गद्दी पर बैठ कर नहीं चला सकता था| इस समस्या के समाधान के लिए उसने साईकिल चलने की दूसरी विधा “कैंची साइकिलिंग” सीख ली| |साईकिल के मुख्या डंडे के नीचे से एक पैर दूसरी तरफ के पैडल पर और एक हाथ गद्दी पर रख कर दूसरे हाथ से हैंडल को संभालता हुआ जब मेरे सामने से वो साईकिल पर सवार सरपट निकला तो मुझे एकबारगी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ| मुझे वो साइकिल सवारी कम और  किसी सर्कस का करतब ज्यादा लगता था| रमेश ने मुझे भी कैंची साइकिलिंग सिखाने का वचन दिया लेकिन मेरी आत्मा कभी इतना साहस ही नहीं जुटा सकी की मैं इस करतब को अंजाम दे सकूं| 

फिर जब मैं गाँव से शहर गया तो वहां मुझे भिन्न भिन्न प्रकार की साइकिलों को देखने का मौका मिला| तीन पहिये की बच्चों वाली साईकिल, सपोर्टर वाली छोटी साईकिल, आगे हैंडल में टोकरी लगी लड़कियों वाली साइकिल वगरह| और यहीं पर अपने कॉलोनी के एक दोस्त की साईकिल पर मैंने साईकिल की सवारी सीखी| 

अब मुझे ये तो याद नहीं कि साईकिल किसने सिखाई और मैंने कैसे सीखी, लेकिन इतना याद है की दोस्त की साईकिल छोटी सी बच्चों वाली साईकिल थी और नाम था उसका बज़ूका| लाल-पीले रंग की चमकदार साईकिल जिसके हैंडल में आगे की तरफ दो सींगे और पिछले पहिये में दो सपोर्टर लगे हुए थे| सीखने में मेरे घुटने छिले, टखने टूटे, कोहनी लहूलुहान हुयी लेकिन क्या मजाल की मेरी हिम्मत में थोड़ी भी कमी आये| कुछ ही महीनों में मैं कॉलोनी का सबसे कुशल साईकिल सवार बन गया|

मेरे मन में भी साईकिल खरीद का विचार आया कि काश साईकिल होती तो बड़ा मजा आता सरपट दौड़ाने में, लेकिन मुझे पता था की जब तक उपयोगिता सिद्ध न हो जाये तब तक हमारे घर में पेन्सिल की नोंक तक तो आती नहीं थी तो साईकिल तो बहुत दूर की बात है| और उस उम्र में साईकिल की सबसे बड़ी उपयोगिता स्कूल या कोचिंग जाने के लिए होती थी, लेकिन फतेहपुर में मेरा स्कूल बहुत पास था|

जब पिता जी का ट्रांसफर हुआ और हम प्रतापगढ़ गए तो मुझे लगा की शायद अब कुछ जुगाड़ हो जाये लेकिन फिर से मेरा मनहूस स्कूल चंद कदमों की दूरी पर निकला और फिर से एक बार मेरी आशाओं पर तुषारापात हो गया| लेकिन ये बहुत दिनों तक नहीं चला और नवीं कक्षा में मैंने कोचिंग ज्वाइन कर ली| ये कहना मुश्किल है की मैंने साईकिल लेने के लालच में कोचिंग की या कोचिंग की इसलिए साईकिल ली, लेकिन कुल मिला जुला के कोचिंग काफी दूर थी और ये फैसला हुआ की मेरे लिए एक साईकिल खरीदी जाएगी|

अब तो मैंने साईकिल के सपने देखने लगा| साईकिल कैसी होनी चाहिए, उसका रंग कैसा होना चहिये, उसकी ऊँचाई कितनी होनी चाहिए, गद्दी कौन सी होनी चहिये, उसमे कैरिअर होना चाहिए कि नहीं आदि आदि| फिर साईकिल भी दो प्रकार की होती थी, एक रेंजर स्टाइल की साईकिल जिसमे हैंडल सीधा होता है और उसमे दो सींगे लगे होती है और टीवी पर उसका बड़ा प्रचार भी आता था| दूसरी थी साधारण साईकिल जिसका हैंडल साईकिल सवार की तरफ मुड़ा होता था और जिसे बड़े बूढ़े लोग चलाया करते थे| मैं और मेरे भाई दोनों के मन में तो यही था कि रेंजर स्टाइल की साईकिल ले, लेकिन फिर मेरे पिता जी ने साधारण स्टाइल की साईकिल की मजबूती के जो गुणगान किये और कोचिंग के अतिरिक्त एक हजार अन्य उपयोग गिना डाले तो हमारे पास कोई और चारा नहीं था| हमने १८ इंची एटलस साइकिल खरीदने का तय किया|

अगले दिन मैं और मेरा भाई पिताजी के साथ साईकिल खरीद करने शहर के मशहूर गुप्ता साईकिल वाले की दुकान पर पहुँच गए| हम दोनों के उत्साह और उमंग का ठिकाना नहीं था| मन में गुलगुले फूट रहे थे की जा तो रहे हैं रिक्शे पर लेकिन आयेंगे साईकिल पर सवार| दुकान पर पहुंचे तो पिता जी ने हमसे साईकिल चुनने को कहा| हमने काले लाल रंग की शानदार साईकिल, फिर साईकिल के साथ गद्दी, हैंडल, पैडल के कवर और घंटी इत्यादि चुने| साईकिल में एक मजबूत करियर और एक मजबूत स्टैंड भी लगा जो की रेंजर साईकिल के फुसफुस स्टैंड और करिअर के मुकाबले कहीं मजबूत था| साईकिल के साथ ही पिता जी ने एक हवा भरने वाला पंप, ग्रीस, तेल, रिंच इत्यादि रखरखाव के सामान भी खरीद लिए|

फिर साईकिल खरीद होने के बाद कुछ देर तक तो मेरे और मेरे भाई में बहस हुई कि साईकिल घर कौन ले जायेगा| मैंने अपनी उम्र और अनुभव का वास्ता देते हुए किसी तरह ये बहस जीती और मैं नयी साईकिल पर सवार होकर घर के लिए निकला| जैसा की अभी आपको बताया, वैसे तो मेरा रेंजर साईकिल खरीदने का मन था लेकिन पहली ही सवारी में इस साईकिल ने मेरा मन मोह लिया और फिर शाम के समय बाजार की टिमटिमाती रोशनी और शोरगुल में साईकिल को दुकान से घर सरपट भगाते समय मेरे मन में ख़ुशी को जो आलम था वो बयां नहीं किया जा सकता| बालों और कानों में सर्र सर्र हवा एक संगीत की भांति लग रही थी| घर दूर था लेकिन आज थकान किसे लगती थी, मैंने जान बूझ कर लम्बा रास्ता लिया और आराम से घर पहुंचा|

हालाँकि मेरी कोचिंग बहुत दिन नहीं चली और मैंने छोड़ दी और उसके साथ साईकिल चलाना भी कम हुआ लेकिन फिर भी साईकिल के प्रति मेरा और मेरे भाई का प्रगाढ़ प्रेम कभी कम नहीं हुआ| हर दूसरे हफ्ते साईकिल को पानी से धोया जाता था और सूखे कपडे से पोछा जाता था| उसके बाद मैं और मेरा भाई एक कुशल मेकेनिक की भांति बड़ी ही तन्मयता के साथ साईकिल के एक एक पेंच, नट, बोल्ट का निरिक्षण करते थे, साईकिल की चैन में ग्रीस लगाते थे, और साईकिल के पहियों में और ब्रेक में तेल डालते थे| फिर हवा चेक की जाती थी और कम होने पर पम्प से हवा भरी जाती थी|

साईकिल पंचर होने पर तुरंत पंचर ठीक करने दुकान पर पहुँच जाते थे और फिर साईकिल मेकेनिक पानी में ट्यूब डुबो डुबो के पंचर ठीक करता था| दो साल में टायर ट्यूब, गद्दी वगरह बदलने का रिवाज होता था| एक भी पुर्जा इधर से उधर हुआ नहीं कि मैं और मेरा भाई रिंच पेंचकस लेकर तैयार हो जाते थे और यही कारण था कि साईकिल की मजबूती कई सालों बाद भी भी जस की तस थी| 

और ऐसा नहीं है कि साईकिल यूँ ही बस घर पर पड़ी रहती थी| साईकिल की वजह से मम्मी जी की कभी न ख़तम होने वाली हजार फरमाइशें पूरी करना अब आसान हो गया था| पास वाली दुकान से पकौड़ी बनाने के लिए एक पाव बेसन लाना हो या हलवे के लिए आधा किलो सूजी और शक्कर, बिजली चली जाने पर मोमबत्ती लानी हो या लालटेन का शीशा, सब्जी मंडी से सब्जी लानी हो या चौक से पनीर, नाश्ते के लिए जलेबी दही लाना हो या शाम के समोसे, अब हमारा सब काम साईकिल से ही होता था| आटा ख़तम हो गया? कोई बात नहीं साईकिल के मजबूत करियर पर गेहूं लाद कर चक्की तक पहुंचा आये| सिलेंडर ख़तम हो गया? साईकिल तैयार है, तीन डंडों के बीच में खाली सिलेंडर फंसाया और नया सिलेंडर लाद के ले आये| अब मुझे समझ आ रहा था की पिताजी क्यों स्टालिश लेकिन कमजोर फुसफुस रेंजर साईकिल लेने की बजाये एक मजबूत साईकिल लेना चाहते थे| 

खैर शहर बदला और मैं कॉलेज की पढाई के लिए इलाहबाद आ गया और मेरे भाई को साईकिल की इकलौती बादशाहत मिली|  लेकिन साईकिल धीरे-धीरे पुरानी हो रही थी, और उसमे जंग भी लगना चालू हो गयी थी| मेरी अनुपस्थिति में मेरे भाई को भी साईकिल के रखरखव में उतना आनंद नहीं आता था| ये फैसला हुआ की अब साईकिल को लोहे के भाव बेंच देना चाहिए, लेकिन इससे पहले की साईकिल की बिक्री होती, एक चोर महाशय रात के अँधेरे में आये और साईकिल घर के आंगन से उठा ले गए| मुझे कॉलेज में ये खबर मिली तो बड़ा दुःख हुआ की साईकिल को आखिरी बार टाटा भी नहीं बोल पाया| किसी बेजान चीज से उसके बाद शायद ही मुझे कभी इतना लगाव हुआ हो|

बीच के सालों में मोटरसाकिल की वजह से साईकिल के प्रयोग और महत्ता में भारी कमी आई थी | लेकिन इधर कुछ दिनों से एक नया और बहुत ही अच्छा प्रचालन निकला है| लोग साईकिल की महत्ता साईकिल के वातावरण-अनुकूल सवारी होने के कारण मानने लगे हैं और लोगों का साईकिल के प्रति स्नेह फिर से बढ़ने लगा है| कारण कोई भी हो मेरे इतना कुछ लिख देने के बाद आप इतना तो मान ही गए होंगे की साईकिल वाकई में एक बहुत ही क्रन्तिकारी अविष्कार था|