6/11/14

कविता : शौक़-ए-दीदार अगर है तो नजर पैदा कर

कोई कहता ये भला है, कोई कहता वो बुरा है, न जाने किसका है असर और कौन बे-असर
इसके झंडे गड़ रहे, उसके तख़्त पलट रहे, किसकी झुग्गी उड़ गयी, अब बसेगा किसका नगर
चोर साधू होने का ढिंढोरा पीट रहा, जो साधू है उसे लोग पीट रहे, बता कौन साधू कौन चोर?
खुद सोच समझ और कर फैसला, वो कहते हैं न कि शौक़-ए-दीदार अगर है तो नजर पैदा कर

इस गली न जाना, यहाँ रहती औरतें जो बेंचती अपना जिस्म, जिन्हें नहीं समाज की जरा फ़िकर
रात के अँधेरे में वहां बजता संगीत, जगमगाती रोशनी, जिन्दा मांस नोचने जुट जाता पूरा शहर
कहा स्त्री की करो पूजा मिलेंगे देवता, फिर क्यों जला दिया उस स्त्री को? डुबो दिया उसे तुमने
बंद कर दी धड़कन उसकी पहली सांस से पहले, अब ढूँढ लो तुम कन्या पढ़ी लिखी सुशील सुन्दर

इस अछूत के पास न जाना, धर्म रूठ जायेगा लग गयी जो इसकी परछाई, रहो इससे दूर होकर
फिर लूट ली अस्मत और टांग दिया पेड़ पे, कैसे किया ये सब बिना छूए, भाई तुम तो बड़े जादूगर
सबको मालिक ने एक सा बनाया, सब के खून का एक रंग सबको लगाती भूख प्यास एक सामान
फिर देखी सफ़ेद टोपी मना कर दिया साथ खेलने से, न लगाई देर झट से कर दिया इतना अंतर

सच की होती जीत झूठ हमेशा परास्त होता, फिर क्यों बोली लगती, बिकता सच बंद कमरों के अन्दर
तू मेरा यार है चल साथ बैठते, फिर क्यों भोंकते छुरा, वादे करते प्रेम के फिर बिकता प्रेम मोबाईल पर
बस बहुत हो गया, बकवास बंद कर, न बता मुझे कौन भला कौन बुरा, कौन चोर कौन साधू  
खुद सोचूंगा समझूँगा और करूँगा फैसला, हमें भी अब है शौक़-ए-दीदार हम भी अब करेंगे पैदा नजर