7/22/12

कूलर महाशय

उत्तर भारत की गर्मी की महिमा का जितना वर्णन किया जाये उतना कम है | मई जून में घर से बाहर निकलो तो ऐसा लगता है की आसमान से आग बरस रही है, फिर क्या दिन क्या रात  | सूरज की रोशनी इतनी तेज और चमकीली होती है की आँख खोलना मुश्किल हो जाता है | जमीन इतनी गरम हो जाती है की नंगे पैर चलो तो लगता है की अंगारों पर चल रहे हैं | पसीना तो बहुत आता है लेकिन सब गर्मी से भाप बन कर उड़ जाता है | और अगर न उड़ पाए तो और मुसीबत, पसीने से लथपथ पूरा शरीर चिप चिप करने लगता है | बच्चे तो बच्चे बड़े भी घमौरियों की चुभन से हैरान हो जाते हैं | टीवी पर ठंडा ठंडा कूल कूल जैसे प्रचारों की भरमार हो जाती है | पथ्थरों और इंटों से बने मकान ऐसे जलने-तपने लगते हैं मानो भठ्ठी हो | घर के बाहर तो इस गर्मी का कोई इलाज़ नहीं है, लेकिन घर के अन्दर इस भीषण गर्मी से दो-दो हाथ करने की हिमाकत कोई कर सकता है तो वो हैं हमारे कूलर महाशय |

हम गर्मी की छुट्टियों में हर साल गाँव जाते थे | अब गाँव में आम की अमराइयों की बयार और पीपल के पेड़ की घनी शीतल छाँव से ही काम चल जाता था और अगर इतने पर भी मन न भरे तो जाके तलैया या नहर में डुबकी लगा लो | इसलिए गाँव में कूलर महाशय को कभी जानने समझने का मौका नहीं मिला | ऐसे ही कक्षा ३ या ४ की गर्मी की छुट्टियाँ मनाकर हम गाँव से वापस फतेहपुर लौटे तो देखा की बेडरूम की खिड़की से सटा हुआ घर के बाहर की तरफ कुछ रखा हुआ है | बाहर झाँक के देखा तो लोहे के स्टैंड पर एक दैत्याकार  कूलर रखा हुआ है |

लोहे का कूलर जिसे पापा ने खरीदने की बजाय किसी दुकान से असेम्बल कराया था | एक बड़ी सी पानी की टंकी, खस-खस  से भरी हुए तीन तरफ की दीवारें और सामने की तरफ एक बड़ा सा एक्झास्ट पंखा | वैसे तो अमूमन छोटे कूलर में पानी को टंकी से खींच कर खस-खस के ऊपर डालने वाली मशीन जिसे हम टुल्लूर बोलते थे, टंकी के अन्दर ही लगी होती थी | लेकिन इस भीमकाय कूलर का काम छोटे मोटे टुल्लुर से चलने वाला नहीं था तो एक बड़ा टुल्लुर अलग से लगाना पड़ा था | टंकी से एक पाइप निकल कर टुल्लुर में आता था और दूसरा टुल्लुर से निकल कर कूलर में जाता था | टुल्लुर चोरी न हो जाये इसके लिए टुल्लुर घर के अन्दर खिड़की पर था और पाइप खिड़की से बाहर निकली हुई थी | कूलर के पीछे वाली दीवार दरवाजे का काम करती थी जिसे कूलर की सफाई वगैरह करने के लिए खोल कर निकाल सकते थे | और सामने की तरफ पंखे के आगे खड़ी -पड़ी लोहे की पत्तियां थी जिसे आप ऊपर-नीचे दायें-बाये घुमा कर हवा की दिशा को कण्ट्रोल कर सकते थे |

खैर जैसे ही पापा ने कूलर स्टार्ट किया कूलर और टुल्लुर की आवाज से पूरा घर भर गया और उसके साथ ही एक अजीब से मछली वाली गंध फ़ैल गयी जो की अक्सर कूलर स्टार्ट करने के कुछ देर बाद तक फैली रहती थी | हम सभी बच्चे यानि की मैं मेरा भाई और मेरी बहन कूलर के सामने खड़े हो गए | हालाँकि मैं इतना छोटा था की पैर उठाने पर भी मेरा सिर्फ गर्दन के ऊपर वाला हिस्सा कूलर के सामने आ पा रहा था, फिर भी बाल उड़ाते हुए कूलर की सर्र सर्र हवा का मैंने खूब मजा लिया |

लेकिन इस मजे के साथ ढेर सारे काम भी बढ़ गए | कूलर का पानी एक दिन में ख़तम हो जाता था तो शाम को पानी आने पर कूलर में पाइप लगा के पानी भरना पडता था और निगरानी करनी पड़ती थी ताकि टंकी भरते ही पानी बंद किया जा सके वर्ना पानी बाहर गिर के सब कीचड़ कर देता था | साथ ही हफ्ते में एक बार कूलर की टंकी भी साफ़ करनी पड़ती थी |

इसके साथ ही हर साल कूलर की रंगाई का कार्यक्रम होता था | गर्मी की शुरुआत होने पर पापा ब्लैक जापान नामक कला पेन्ट कूलर की टंकी और स्टैंड रंगने के लिए और कोई एक रगीन पेन्ट कूलर की दीवारें रंगने के लिए लाते थे | और कूलर रंगने की जिम्मेदारी हम दोनों भाइयों को सौपी जाती थी | हम दोनों भाइयों को रंगाई पुताई में बड़ा आनंद आता था, तो हम लोग अपना काम बाँट लेते थे मसलन टंकी के अन्दर मैं करूंगा और टंकी के बाहर का हिस्सा मेरा भाई  | बाकायदा कूलर की दीवारों को रेगमाल से घिस-घिस कर कर पहले जमा हुआ नमक निकालते थे और फिर पोतने के बाद धुप में थोड़ी देर के लिए रखते थे सूखने के लिए | इस कार्यक्रम के कारण हमारे कूलर महाशय की तबियत हमेशा दुरुस्त बनी रही | कुछ सालों के बाद तो पानी के टंकी पर पेन्ट की इतनी मोटी परत बन गयी कि अगर लोहा हटा भी दो तो भी पेन्ट की दीवार में पानी टिका रहे | कूलर की घास भी हर दूसरे तीसरे साल बदलवानी पड़ती थी | जिस दिन नयी घास लग के आती थी उस दिन कूलर एक्स्ट्रा ठंढी हवा देता था | पानी को सुगन्धित करने वाला इत्र भी खरीद के लाते थे ताकि कूलर चलने पर कमरा महकता रहे |

हमारे प्रतापगढ़ आने पर कूलर महाशय की जिंदगी में काफी बदलाव आये और हमे ये भी पता चला की हमारे कूलर महाशय बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे | प्रतापगढ़ में पानी की बहुत समस्या था | रोज सबेरे-शाम सिर्फ कुछ समय के लिए पानी आता था | इसलिए पानी इकठा करके रखना पड़ता था | १०० लीटर की एक बड़ी टंकी और एक बड़ा टब तो खरीद लिया था लेकिन फिर भी कभी कभी पानी ख़तम हो जाता था | इस समस्या के समाधान के लिए कूलर की टंकी में भी पानी हमेशा रखा जाने लगा, फिर चाहे गर्मी हो चाहे ठंडी | बस अंतर ये था की गर्मी में कूलर जी स्टैंड पर टिके रहते थे और ठंडी में उन्हें उतार कर चार इंटों का आसन दिया जाता था | उस पानी को कपडे बर्तन धोने जैसे कामों के लिए इस्तेमाल किया जाता था | और फिर यहाँ पानी भी बहुत धीरे आता था इसलिए पाइप से कूलर में चढ़ता नहीं था, तो पानी को बाल्टी-बाल्टी भरना पड़ता था जो कि काफी मेहनत वाला काम था | इसके साथ ही यहाँ पर खिड़की बहुत बड़ी थी तो हम लोगों ने दफ्ती और गत्ते कूलर के मुहं को छोड़ कर  पूरे खिड़की में लगा दिए ताकि ठंडी हवा बाहर न भाग सके | 

प्रतापगढ़ में मेरा और मेरे भाई का कमरा बिलकुल अलग था | दिन में तो हम सभी कूलर के सामने ही जमघट लगाये रखते थे लेकिन  कूलर जी की सेवा करने के बाद भी हमें रात में ठंडी हवा से वंचित होना पडता था | हमने पापा जी गुजारिश करी की एक छोटा कूलर हमारे कमरे में भी लगा  दिया जाये | पापा जी मान  भी जाते थे लेकिन इससे पहले  कि कूलर आये हम गर्मी की छुट्टियाँ मानने गाँव निकाल जाते थे और वापस आने पर हीलाहवाली में कूलर सेलेक्ट करते करते इतनी गर्मी बचती ही नहीं थी की कूलर खरीद हो सके, और इस तरह कभी दूसरा कूलर आया ही नहीं |

खैर कुछ सालों के बाद मैं और मेरा भाई घर से निकल गए तो हमें इन सब चीजों की जरूरत भी नहीं रही | फिर हमारे घर से चले जाने पर कूलर के रख रखाव में भी कमी आ गयी | और फिर कूलर काफी पुराना भी हो चला था | स्टैंड की एक टांग टूट गयी थी तो उसकी जगह एक के ऊपर एक ईंटें रखकर काम चलाना पड़ता था | टंकी में जहाँ पर पाइप लगी थी वहां से लगातार पानी टपकने लगा था | सामने की तरफ ऊपर-नीचे दाये-बाये हवा घुमाने वाली पत्तियां भी जम गयी थी और हमेशा एक ही दिशा में आती थी | बॉडी भी कुछ सालों बाद पुताई के आभाव में जंग खाकर ज़र्ज़र हो गयी | अंततः पंखा निकलकर बाकि का कूलर अभी पिछले साल लोहे के भाव कबाड़ी को बेंच दिया, हालाँकि उसमें लोहे से ज्यादा तो मुझे बीसियों परत पेन्ट का वज़न लग रहा था | प्लान ये था की एक दूसरी कूलर की बॉडी खरीद कर पंखा उसमें लगा दिया जायेगा | लेकिन फिर AC लग गया और पंखे को भी किसी इलेकट्रेशियन को बेच दिया गया |

कूलर अब भी उत्तर भारत के मध्यम वर्गीय परिवार का एक अहम् हिस्सा है और पिछले कुछ सालों में जिस तरह से सूरज देव का प्रकोप बढ़ा है, मुझे तो कूलर महाशय की अहमियत कम होती नहीं लग रही | AC खरीदना हर किसी के बस की बात नहीं, और अगर कोई खरीद भे ले तो उत्तर भारत में जिस तरह बिजली की किल्लत है उस हिसाब से कितना AC चल पायेगा उसका भगवन ही मालिक है | तमतमाती चिलचिलाती  गर्मी में घरों की खिडकियों से चिपके हुए कूलर, उत्तर भारत के शहरों और कस्बों की पहचान हैं और आने वाले कुछ समय तक ये पहचान बनी रहेगी |


7/4/12

हमारे रेडियो जी

रेडियो जी से मेरी पहली मुलाक़ात मेरे गाँव में हुई थी | मेरे पापा को शादी में मेरे नाना जी ने तीन मुख्या चीजें दी थी | एक काले रंग की १८ इंच की एटलस साइकिल जिसे मेरे चचेरे भईया लोगों ने गाँव में जम के इस्तेमाल किया | दूसरी चाभी भरकर चलने वाली एक HMT घडी जिसे मेरे पापा आज भी पहनते हैं | और तीसरा एक रेडियो, जिसकी मैंने अभी चर्चा की |  काले रंग का रेडियो जिसके ऊपर भूरे रंग का एक चमड़े का कवर भी लगा हुआ था जो की चिपुटिया बटन से बंद होता था | मेरे दादा जी ( जिन्हें हम बब्बा कहते थे ) के बार बार डांटने पर भी मेरे भैया लोग रेडियो से चिपके रहते थे, जो की उस समय मेरी समझ से परे था | वो तो बाद में जब मैं क्रिकेट के लिए दीवाना हुआ तो लगा की क्रिकेट विश्व कप (१९९२) की कमेंट्री सुनने के लिए रेडियो से चिपके रहना बड़ा लाजिमी था |

फिर १९९४ में जब गर्मी की छुट्टियों में गाँव में आनद भैया की शादी हुई तो वड़ोदरा से ताऊ जी एक बड़ा रेडियो ले आये | था तो वैसे वो टेप रेकॉर्डर या कैसेट प्लयेर , लेकिन हम सब उसे रेडियो ही बोलते थे | तभी मैंने जिंदगी में पहली बार कैसेट भी देखा | टेप रेकॉर्डर बहुत बड़ा था, बिजली तो थी नहीं गाँव में तो उसमें एक के पीछे एक बड़े साइज़  की ६ बैटरी लगानी पड़ती थी | एक बटन दबाओ तो हौले से कैसेट डालने वाला खांचा खुलता था, फिर उसमें कैसेट डाल के उसे बंद करके दूसरा बटन दबाओ तो गाना बजने लगता था | वैसे कक्षा ४ का बच्चा छोटा तो नहीं बोला जायेगा, लेकिन फिर भी मुझे टेप रेकॉर्डर छूने की सख्त मनाही थी |

फिर जब हम फ़तेहपुर आये तो टेप रेकॉर्डर हर बर्थ-डे पार्टी का एक अहम् किरदार था | केक, समोसे वगरह खा के पेप्सी ख़तम करने के बाद टेप रेकॉर्डर का बजाना तय था | कुछ बच्चे जो बचपन से ही नाचने गाने में शौक़ीन थे वो तो खुद अपना जौहर दिखा देते थे | और कुछ जो थोडा शर्मीले किस्म के थे उन्हें कालोनी की आंटी लोग नाचने पर मजबूर कर देती थी | "अरे अपना मंटू तू चीज बड़ी मस्त मस्त पर बहुत अच्छा नाचता है, बेटा जरा नाच के दिखा दो ", फिर कालोनी के कोई एक बड़े भईया कैसेट को आगे पीछे भगा के गाना लगाते थे और मंटू चालू हो जाते थे | अच्छी बात ये रही की मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ |

लेकिन इन सब के बाद भी TV के आ जाने के कारण हमें कभी टेप रेकॉर्डर या रेडियो की जरूरत नहीं महसूस हुई, या यूं कहिये की हमने कभी सोचा ही नहीं इस बारे में | फिर एक दिन हम स्कूल से आये तो देखा की एक सफ़ेद रंग का डब्बा रखा हुआ है फ्रिज के पास | उत्सुकतावश मम्मी से पुछा तो उन्होंने ये कहकर बात टाल दी की कोई अंकल का कुछ सामान पड़ा हुआ है | बात आई गयी हो गयी | लेकिन अगली सुबह जब हम जागे तो घर में भगवान् जी वाला कोई गाना बज रहा था | सामने देखा तो TV बंद थी | लगा की ये आवाज कहाँ से आ रही है | बेड के बगल में देखा तो हमारे सनमाईका वाले स्टूल पर टेप रेकॉर्डर बज रहा था | ये सब ऐसे अचक्के में हुआ की टेप-रेकॉर्डर  के लिए खुश होने का मौका ही नहीं मिला |

टेप रेकॉर्डर फिलिप्स कम्पनी का टू-इन-वन टेक्नोलोजी वाला था | टू-इन-वन बोले तो आप उस पर कैसेट भी बजा सकते हो और रेडियो भी चला सकते हो | काले रंग का टेप रेकॉर्डर जिसके सामने के आधे भाग में स्पीकर था और दूसरे आधे भाग में कैसेट डालने वाला खांचा | उसी के ऊपर हर रेडियो की पहचान, चैनल वाला रुलेर था जिसमें फ्रीक्वेंसी सफ़ेद रंग से लिखी हुई थी और एक लाल रंग की डंडी स्पीकर के बगल में लगे गोल पहिये को घुमाने से रूलर पर इधर उधर सरकती थी | ऊपर की तरफ एक बड़ा गोल पहिया था जिसे घुमाने से आवाज कम तेज़ होती थी | उसी के बगल में एक खिसकने वाली बटन थी जिसे खिसककर एक किनारे ले आओ तो कैसेट बजता था और दूसरे किनारे ले जाओ तो रेडियो | ऐसी ही एक दूसरी बटन रेडियो का AM / FM  / SM चंगे करने के लिए थी | पीछे की तरफ एक ढक्कन था जिसे खोलो तो चार बड़े साइज़ की बैटरी डालने की जगह थी |

रूलर के ऊपर की तरफ ही कैसेट को कण्ट्रोल करने वाली बटनें लगी थी | पहली बटन गाना रोकने (पॉस करने) की थी जिसे आधा दबाकर रखने से गाना बहुत पतली से आवाज में तेज़ तेज़ भागता था, पॉस करने से ज्यादा हमने उस बटन का इस्तेमाल इसी काम के लिए किया हालाँकि हमें इसके कारण डांट बहुत पड़ी | आगे की बटनें गाना चलाने और, आगे पीछे करने की थी | आखिरी बटन आवाज रिकॉर्ड करने वाली थी | अब चूंकि उस बटन के दबाने से कैसेट में अगड़म बगड़म चीजें रिकॉर्ड करके कैसेट के ख़राब होने का खतरा था, इसलिए हमें पापा ने ये बताया की इस बटन को दबाने से रेडियो जल जायेगा और सब ख़राब हो जायेगा और इसलिए इस बटन को कभी नहीं छूना है  | जब तक हमें उस बटन की असलियत नहीं पता चली तब तक मेरा भाई इसी से यही समझता था की बड़े बेवकूफ है रेडियो वाले, आखिर ऐसी बटन की जरूरत ही क्या थी |

रेडियो के साथ ही पापा जी तीन  कैसेट लाये थे | एक तो भजन वाली, दूसरी लता मंगेशकर जी के बहुत पुराने गानों की कैसेट | डिस्को सोंग्स का जमाना था और बचपन में लता जी के सभी धीर धीरे बजने वाले गाने थकेले बकवास लगते थे | तीसरी कैसेट थी राजा हिन्दुस्तानी की | अब न तो हमें भजन में कोई इंटेरेस्ट था न ही लता जी के पुराने गानों में तो हमने हमारे चहेते सुरेन्द्र मामा से रिक्वेस्ट  करी | मामा जी इलाहबाद में रहते थे और अक्सर हमारे घर आया करते थे | मामा जी ने ४-५ कैसेट गोविंदा, करिश्मा, रवीना के गानों से रिकॉर्ड करवा के हमको दे दी | कैसेट आने पर सबसे पहला काम तो हमने ये किया की सभी गाने बजा बजा के गानों ली लिस्ट एक सफ़ेद कागज पर लिखकर हर कैसेट के कवर के ऊपर चिपका दी ताकि पता रहे की किस कैसेट में कौन सा गाना है | फिर हम सब वही गाने सुना करते थे, रेडियो हमने अब भी सुनना स्टार्ट नहीं किया था और TV की वजह से रेडियो जी की पूछ वैसे भी बहुत कम थी |

फिर जब हम प्रतापगढ़ आये तो १ साल के लिए एंटेना न होने की वजह से टीवी नहीं चला | फिर तो रेडियो जी की चाँदी हो गयी | सुबह से शाम तक हमारे घर में विविध भारती बजता रहता था | सुबह सुबह "चित्रलोक" जैसे गानों वाले ढेर सरे प्रोग्राम और शाम को "हवा महल" जैसे श्रव्य नाटक | एक साल के बाद TV लगाने के बाद भी टेप और रेडियो से हमारा मोह नहीं छूटा |

मेरे छोटे भाई ने तब तक गाने रिकॉर्ड करने वाली रहस्यमयी बटन की सच्चाई भी खोज कर ली थी | और साथ ही साथ लखनऊ से पकड़ने वाले एक दूसरे FM चैनल की भी खोज कर ली गयी थी जिस पर ढेर सारे काँटा लगा टाइप रीमिक्स गाने आते थे | जैसे ही कोई अच्चा गाना आता था मेरा भाई उसे लता जी के पुराने गानों वाली कैसेट पे रिकॉर्ड कर लेता था | अब चूंकि गाना रिकॉर्ड करते समय इस बात का ख्याल रखना पड़ता था की गाना सही जगह पर रिकॉर्ड हो इसलिए वो पेंसिल या नीले रंग वाली रेनोल्ड्स पेन को कैसेट के दांतों वाले छेद में डाल के घुमा फिरा के ठीक जगह पर ले आता था और पहले से सब फिट करके रखता था | और तो और गाना रिकॉर्ड करते समय इधर उधर की फालतू आवाज न रिकॉर्ड हो इसलिए वो पंखा भी बंद कर देता था |

रेडियो के साथ एक अच्छी बात ये थी की बिजली न होने पर भी इसे बैटरी डाल कर चलाया जा सकता था | किसी ने बता दिया था की बैटरी को धूप में रखने से फिर से थोड़ी सी चार्ज हो जाती है, तो जब एवर-रेडी की वो चार बैटरियां  रेडियो नहीं चला पाती थी तो उन्हें धूप में रख देते थे | और अगर धूप में रखने पर भी काम न चले तो नयी बैटरी आने तक इमरजेंसी टोर्च की रिचार्जेबल बैटरी रेडियो के साथ तार जोड़-जाड कर फिट कर लेते थे और काम चलाते थे |

फिर एक दिन पापा जी के  एक एक मित्र राजबिहारी अंकल रेडियो मांग कर ले गए | राज बिहारी अंकल बहुत फक्कड़ स्वाभाव के थे, मुहं में हमेश गुटखा या पान ठुसा रहता था और उन्हें किसी भी चीज के लिए ना करना मुश्किल था | रेडियो जी गए तो चुस्त तंदरुस्त अवस्था में लेकिन दो महीना बाद वापस आये फटेहाल अवस्था में | कैसेट बजने पर खर्र खर्र की आवाज आती थी | कैसेट को आगे पीछे करने वाली बटन ने काम करना बंद कर दिया था | और साथ ही रेडियो का FM  / SM बदलने वाला बटन गायब हो गया था |

फिर धीरे धीरे हम सभी घर से पढाई के लिए इधर उधर निकल लिए | मम्मी बिजली चली जाने पर जब टीवी नहीं चलती थी, तो कभी कभी रेडियो पर गाने सुन लिया कराती थी | आधी कैसेट्स तो ख़राब हो गयी, कुछ खो गयी और कुछ जो बची उनमें छोटे भाई के रिकॉर्ड किये हुए रीमिक्स गाने थे जो की मम्मी को पसंद नहीं थे | फिर जब पापा का ट्रान्सफर सीतापुर से हुआ तो टेप रेकॉर्डर मम्मी ने किसी को ऐसे ही दे दिया |

मेरे भेतीजे को गाने सुनने का बहुत शौक़ है | एक दिन ऐसे ही बात चली तो बोला की चाचा मुझे भी रेडियो सुनना बहुत पसंद है | मुझे सुन कर अच्छा लगा, मैंने कहा अपना रेडियो तो दिखाओ | तो उसने झट से अपना चमचमाता स्मार्ट फोन निकला और रेडियो का एक अप्प्लिकेशन खोल कर दिखा दिया | मैंने मन ही मन कहा, लो ये है इनका रेडियो | शायद इसे ही जनरेशन गैप कहते हैं और पता ही नहीं चला की कब हम जनरेशन गैप के उपरी पायदान पर पहुँच गए | बाकी का तो पता नहीं लेकिन आज भी जब मैं रेडियो का नाम सुनाता हूँ तो खर्र खर्र की आवाज, रेडियो का स्टेशन वाला वो रूलर , कैसेट का दांतों वाले दो सफ़ेद पहिये और काले रंग की फिल्म अनायास ही याद आ जाती है |