6/18/14

एक खाऊँ दो खाऊँ तीन खाऊँ चारों

ये एक बाल कहानी है, जिसे मेरे पिताजी ने बचपन में हमें न जाने कितनी बार सुनाई है| इस कहानी से कुछ शिक्षा मिलती है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन इस कहानी में वो सब कुछ था जिसकी तलाश एक बच्चे को होती है| अब जैसा की मैंने कहा ये एक बाल कहानी है तो कृपया इस कहानी को बाल मन से पढ़ने की कोशिश करें|

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तो भाई ऐसे ऐसे करके कई दिन पहले किसी गाँव में एक ब्राह्मण हुआ करता था| उसके पिता गाँव के पण्डित थे और पूजा पाठ का काम किया करते थे| लेकिन न तो पोथी पत्री उसके पल्ले पड़ी और न ही मन्त्रों से उसकी मित्रता हो पाई और फिर पिता की मृत्यु के बाद उसे गरीबी ने घेर लिया| जब ब्राह्मण देव की शादी हुई तो उन्हें लगा की अब ऐसे तो जीवन निर्वाह होने से रहा| हालत गिरती गयी और जब खाने पीने के भी लाले पड़ गए तो उन्होंने अपनी पत्नी से सलाह मशवरा करके फैसला किया कि शहर जाकर कुछ कमाई की जाये|

अब शहर बहुत दूर था तो पंडित जी ने शाम को ही सब सामान तैयार किया और अपनी पोटली बना ली| तडके सुबह उठकर नहाये धोये| पत्नी ने एक गठ्ठर में थोडा सत्तू बाँध दिया और उसके साथ ही एक खोइंचा बना के रख दिया| खोइंचा एक बहुत मोटी रोटी होती है जिसमे लहसुन, नमक, मिर्च इत्यादि पहले से ही पड़ा रहता है, इसलिए खोइंचा आप यूँ की बिना किसी सालन के खा सकते हैं| खैर सब तैयारी करके पंडित जी घर से निकल लिए|

चलते चलते सुबह बीती और फिर धूप बढ़ी तो पंडित जी ने अपना गमछा निकल कर सर पर रख लिया| लेकिन फिर भी कुछ राहत नहीं मिली| पसीने के वजह से शरीर से पानी भी निकल रहा था और बहुत जल्द ही पंडित जी को प्यास लगने लगी| अब घर से तो पानी लेके चले नहीं थे पंडित जी और फिर बीच में कहीं कुएं इत्यादि पर रूक के कुछ जलपान भी नहीं किया था तो उनकी हालत जो है वो ख़राब होने लगी|

फिर कुछ दूर जाकर उन्हें आम के पेड़ों का एक बाग़ दिखा, पंडित जी ने सोचा की चलो पानी न सही, थोडा देर अमराई की छाया में आराम कर लिया जाये फिर आगे जाके पानी ढूँढेंगे| लेकिन पंडित जी की शायद किस्मत तेज़ थी, बाग़ में पहुंचे तो देखा की बाग़ में ही एक कुआँ भी है, पंडित जी फूले नहीं समाये| फटाफट अपने रस्सी और लोटे से पानी निकल कर पिया | गला थोडा तर हुआ तो जान में जान आई| पंडित जी ने सोचा की अब न जाने कितनी दूर पर पानी मिले, तो क्यों न यही कुछ जलपान भी कर लिया जाये|

कुएं के चबूतरे पर पंडित जी ने पोटली खोल के देखा की पंडिताइन ने क्या रखा है खाने के लिए| सत्तू पंडित जी को कुछ खास पसंद नहीं था तो उनका दिल खोइंचे पर आया| लेकिन खोइंचा देख कर पंडित जी दुविधा में पड़ द गए, खोइंचा काफी बड़ा और मोटा था, और पंडित जी को अभी इतनी भूख भी नहीं लगी थी | फिर पंडित जी को लगा की अभी न जाने कितना समय लगे शहर पहुँचने में और न जाने खाने का क्या इन्तेजाम हो पायेगा| इसी उधेड़ बन में उन्होंने खोइंचे के चार तुकडे किये और अपने से ही बोलने लगे “एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों |”

उसी कुएं में चार भूत भी रहते थे| वो भी मजे से शायद सो रहे थे की उन्होंने पंडित जी की आवाज सुनी - “एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों” भूतों ने ये सुना तो उनकी हालत ख़राब हो गयी| उन्हें लगा की पंडित को पता लग गया है की कुएं में चार भूत रहते हैं और वो रहे हैं की कितने भूतों को खाया जाये| चारों भूत डर गए और आपस में सलाह मशवरा करने लगे की अब इस विकट समस्या का समाधान कैसे हो| बहुत सोच विचार करके उन्होंने फैसला किया की सीधे जाकर ब्राह्मण देवता से बात करनी चाहिए और जान छोड़ देने की विनती करनी चाहिए|

चारों भूत बाहर निकले और पंडित जी के सामने हाथ जोड़ के खड़े हो गए | पंडित जी ने अपने सामने चार भूत देखे तो उनकी घिग्घी बंध गयी, लगा की अब ये विपत्ति कहाँ से आ गयी| लेकिन एक भूत ने विनती भरे स्वर में कहा - “हे विप्र देव| आपकी महिमा अपरम्पार है, आप की मंत्र शक्ति से कौन नहीं डरता है| लेकिन आप हम भूतों को क्यों खाना चाहते हैं| हमसे ऐसी क्या भूल हो गयी है ब्राह्मण देवता |”

पंडित जी ने भूत के ये शब्द सुने तो उन्हें तुरंत सब माजरा समझ आ गया| उन्हें लगा की इस मौके का फायदा उठाना चाहिए | तुरंत गमछे से खोइंचे को ढकते हुए कहा - “तुम भूतों ने बहुत आतंक मचा रखा है, तुम्हारे डर से न तो कोई इस बाग़ में आम खाने आता है न ही पानी पीने| और फिर मुझे भूख भी बहुत लगी है | आज मैं तुम लोगों को खा के तुम्हरे इस आतंक का अंत कर दूंगा|”

ब्राह्मण के ऐसे कठोर शब्द सुने तो भूतों के होश फाख्ता हो गए| पंडित जी का अभिनय रंग लाया था | अब क्या किया जाये, विप्र देव तो बहुत ही गुस्से में लग रहे थे| एक भूत ने किसी तरह अपने को संयत करते हुए कहा -” विप्र देव आप हमारी जान बख्श दे | हम गाँव के किसी भी व्यक्ति को परेशान नहीं करते हैं| और जहाँ तक आपकी भूख का सवाल है तो उसका हल हमारे पास है|”

“क्या हल है ” पंडित जी ने कुतूहल वश पुछा| बाकि तीन भूत भी उसकी ओर आशा भरी नज़रों से देखने लगे की भाई ने ऐसा क्या प्लान बनाया है |

“इम भीम क्डीम” करके एक भूत ने मंत्रोच्चारण किया और तुरंत एक चाँदी की कड़ाही प्रकट हो गयी| पंडित जी तो देख के दंग रहे गए| कड़ाही पंडित जी को देते हुए भूत ने फिर कहा - “ हे विप्र देव| ये लीजिये चमत्कारी कड़ाही, जब भी आप को भूख लगे आप बस अपने मन पसंद व्यंजन का विचार मन ही मन आँख बंद करके करे और आँख खोलते ही कड़ाही वो व्यंजन आपके सामने प्रस्तुत कर देगी|”

पंडित जी को लगा की ये तो भाग्य ही खुल गए| बैठे बैठे ही खाने की समस्या का जिंदगी भर के लिए समाधान हो गया, वैसे भी पंडित जी  को खाने के सिवाय और चाहिए भी क्या| पंडितजी ने तुरंत कड़ाही लेते हुए बनावटी गुस्से से कहा “ठीक है ठीक है| हम तुम्हारी कड़ाही से प्रसन्न हुए, इसलिए तुम्हारी जान बख्शते हैं|” भूतों ने सुना तो खुश हो गए| कड़ाही देकर पंडित जी को विदा किया और वापस कुएं के अन्तः तल में विलीन हो गए |

अब पण्डित जी कहानी लेकर ख़ुशी ख़ुशी वापस चले अपने घर की ओर| लेकिन शायद रास्ता भटक गए और रात होने तक भी आधी ही दूरी तय कर पाए| अँधेरा हो गया था, रास्ते में  एक घर दिखाई दिया, पंडित जी ने सोचा की क्यू न रात भर के लिए ठहराने का आग्रह किया जाये|

पंडित जी ने दरवाजा खटखटा कर पूछा तो पता चला की घर का स्वामी तेल का व्यापारी था, और उसने एक ब्राह्मण को अपने द्वार पर देखा तो बहुत खुश हुआ और ख़ुशी ख़ुशी पंडित जी को रात भर ठहराने के लिए हामी भर दी| थोड़ा जलपान करने के बाद व्यापारी ने अपनी पत्नी से पंडित जी के लिए भोजन बनाने को कहा तो पंडित जी को कड़ाही याद आ गयी| तुरंत उन्हें रोकते हुए कहा की कहाँ परेशान परेशां होते हैं और अपनी जादूई कड़ाही निकाली|

फिर तो क्या था, पण्डित जी ने देखते ही देखते हलवा पूरी, मटर पनीर की सब्जी, कटहल की तरकारी, खीर, सेवई, मिठाई, रायता और न जाने क्या क्या सब सामने परोस दिया| ऐसी चमत्कारी कड़ाही देख के व्यापारी का तो मन ही डोल गया| सभी ने जम कर भोजन किया और सोने चले गए|

लेकिन व्यापारी को अब नींद कहाँ, उसके सामने अभी भी चमत्कारी कड़ाही ही घूम रही थी| ऐसी कड़ाही मिल जाये तो क्या कहने एक ढाबा खोल लूँ, बिना कुछ किये हजारों का धंधा तो ऐसे ही हो जाये| व्यापारी के मन में चोर घुसा गया| अपनी पत्नी को जगा कर मन की बात बताई, उसे भी ये बात जँच गयी| अपने रसोई से वो वैसी ही दिखने वाली एक कड़ाही लेकर आई, और व्यापारी ने जाकर पंडित जी की कड़ाही बदल दी |

सबेरा हुआ, पंडित जी ने व्यापारी से विदा ली और नकली कड़ाही लेकर घर की ओर निकल लिए| मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे की पंडिताइन देखेगी तो कितना खुश होगी| जल्दी जल्दी कदम बढाकर दोपहर के खाने से पहले घर पहुँच गए| पंडिताइन ने पंडित को आते हुए देखा तो पहले तो बहुत नाराज हुई, कहा की अभी कल तो गए थे इतनी जल्दी मुहं उठा के चले आये, कमाने गए थे की सैर करने?  मैंने तो खाना भी नहीं बनाया आज| लेकिन पंडित जी ने कड़ाही निकलते हुए कहा “अरे पंडिताइन गुस्सा क्यू होती हो, थूक दो गुस्सा और खाने की तो तुम परेशानी लो ही नहीं| आज मैं जो चीज लाया हूँ की तुम जिंदगी भर मेरे चरण धो के पियोगी| तुम्हारा दिल खुश कर देंगे| अभी देखो तुमहरा मनपसंद हलवा तैयार करते हैं|”

पंडिताइन को लगा की पण्डित पगला गया है लेकिन फिर भी वो कुछ न बोली और कड़ी रही| पंडित जी ने कड़ाही निकाली और आँख बंद करके पंडिताइन का मनपसंद गाजर का हलवा मन में सोचा और आँखे खोली| लकिन ये क्या कड़ाही तो वैसी की वैसी ही रही, कुछ बने भी कैसे कड़ाही तो व्यापारी ने बदल दी थी| कई बार प्रयत्न किया लेकिन ढाक के वही तीन पात, कुछ नहीं हुआ| पंडिताइन ने उपहास करते हुए कहा कहा - “वाह क्या हलवा था, भाई मेरा तो मन भर गया, थोडा तुम भी खा लो" और रसोई में चली गयी|

पंडित जी को समझ नहीं आ रहा था की आखिर क्या हो गया, व्यापारी ने काफी आवभगत करी थी इसलिए उन्हें उस पर शक नहीं हुआ| उन्हें लगा की भूतों ने ही घटिया क्वालिटी की कड़ाही दी होगी, लेकिन अब ये कहानी पत्नी को बताते तो और मजाक बनता इसलिए उन्होंने चुप्पी रखने में ही अपनी समझदारी समझी|

खैर कुछ दिन और बीते और फिर से पंडित जी ने शहर जाने के लिए पत्नी से मशवरा क्या| असल मे तो उनका प्लान ये था कि भूतों की खबर ली जाएगी| फिर से सब तैयारी करके, गठरी, खोइंचा और साथ में वो कड़ाही लेकर पंडित जी फिर से कुएं पर पहुंचे और खोइंचे के टुकड़े करके बोलने लगे - एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों

भूतों ने सुना तो सोचा की ये विपदा फिर से कैसे आ गयी| “विप्र देव को हमसे क्या दुश्मनी है, इन्हें चमत्कारी कड़ाही तो दे दी फिर भी हमें खाने पर ही तुले हुए हैं” एक भूत ने कहा| पंडित जी और जोर जोर से बोलने लगे| डर कर भूत फिर से बाहर निकले और कहा - “हे विप्र श्रेष्ठ, हमसे क्या भूल हो गयी अब?”

“धूर्त हो तुम लोग, ये लो अपनी कड़ाही, किसी काम की नहीं है| बस एक बार इसने खाना बनाया और फिर उसके बाद ख़राब हो गयी” पंडित जी ने कड़ाही भूतों की ओर फेंकते हुए कहा| जिस भूत ने कड़ाही दी थी उसकी ओर बाकि भूतों ने गुस्से भरी नज़रों से देखा| उस भूत ने भी कड़ाही की जांच पड़ताल की लेकिन उसे समझ नहीं आया की आखिर ये समस्या कैसे आ गयी|

“मैं तुम सब को अभी भस्म करता हूँ” पंडित जी ने गरजते हुए कहा | सभी भूत डर गए उन्हें समझ आ रहा था की फिर से सिर्फ एक कड़ाही थमा देने से पंडित जी के कोप से बचा नहीं जा सकता है| इसलिए एक भूत ने फिर से “इम भीम क्डीम” का जाप करते हुए चांदी के सिक्के से भरी एक पोटली पंडित जी को दी| पोटली का रहस्य ये था की जितने ही सिक्के पोटली से निकाले जायेंगे उतने ही सिक्के फिर से पोटली में अपने आप भर जायेंगे| एक तरह से ये एक अनंत सिक्कों वाली एक पोटली थी|

इस उपहार से पंडित जे कैसे इनकार कर सकते थे| ख़ुशी ख़ुशी पोटली ली और भूतों से विदा लेके वापस घर की ओर चले, लेकिन फिर से पंडित जी रास्ता भटक गए और रात गुजरने के लिए व्यापारी के यहाँ रुके| रात के भोजन के बाद पंडित जी ने अपनी शेखी बघारने के लिए व्यापारी को पोटली दिखा दी|

अब जैसा की आप अनुमान लगा सकते हैं, हुआ वाही, रात में व्यापारी ने पोटली बदल दी| और जब पंडित जी घर पहुंचे पोटली से चाँदी के सिक्के निकाल के पंडिताइन को दिए| पंडिताइन खुश हो गयी लेकिन पण्डित जी ने देखा कि पोटली तो फिर से भरी ही नहीं| फिर से पंडित जी का शक भूतों पर ही गया| और इस बार पंडित जी गुस्से से आग बबूला हो गए और अगली ही सुबह फिर से कुएं पर जा धमाके|

खैर इस बार जब पंडित जी ने एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चरों का जाप किया तो भूतों को भी गुस्सा आ गया| हालाँकि पण्डित जी कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि भूतों को तो सिर्फ वहम था की पंडित जी कोई पहुंचे हुए ब्राह्मण हैं और मन्त्रों से भूतों को ख़तम कर देंगे, लेकिन फिर भी पंडित जी भूतों के डरने की वजह से वाकई में खुद को पहुंचा हुआ तांत्रिक समझने लगे थे और पूरे गर्मजोशी से भूतों को ललकार रहे थे| जब भूत निकले तो भूतों ने पण्डित जी से पूरी घटना सुनाने को कहा| पंडित जी ने पूरी कहानी कह सुनाई| कहानी सुनकर भूतों को समझ आ गया की हो न हो ये सब उस तेल व्यापारी की ही कारस्तानी है|

लेकिन ये बात पण्डित जी को बताने के बजाय उन्होंने एक दूसरा उपाय सोचा| “इम भीम क्डीम” करके एक भूत ने इस बार पंडित जी के लिए एक रस्सी और एक डंडा निकल के दिया| पंडित जी ने पूछा कि ये क्या काम करता है तो भूतों ने कहा की बस पंडित जी अप ऐसा कहियेगा की “ले झपट दे पलट काम कर दनादन” और फिर देखिये रस्सी डंडे का कमाल| पंडित जी के मन में शंका तो थी की आखिर क्या कम करेगी ये लेकिन फिर भी वो विदा लेके चल दिए|

पंडित जी रात गुजारने के लिए फिर से व्यापारी के यहाँ रुके| व्यापारी को कुतूहल तो था ही कि इस बार पंडित जी क्या लाये हैं उसने पंडित जी को जलपान करते ही पुछा| फिर क्या था, पहले की तरह ही पंडित जी ने रस्सी डंडा निकला और जैसे ही उन्होंने कहा “ले झपट दे पलट काम कर दनादन" रस्सी ने झट से व्यापारी को बाँध लिया और डंडे ने उसकी धुनाई चालू कर दी|

“मार डाला रे मार डाला रे” चिल्लाते हुए व्यापारी इधर उधर भागने लगा लेकिन डंडे ने उसका पीछा नहीं छोड़ा| व्यापारी की पत्नी आ गयी और पंडित जी से आग्रह करने लगी कि रस्सी डंडे को रोकिये| लेकिन अब पंडित जी  को तो कुछ पता ही नहीं था की इसे रोकना कैसे है “रूक जा, बंद हो जा, थम जा” जैसे न जाने कितने जुमले पंडित जी ने उपयोग किये लेकिन डंडा पिटाई करता ही रहा| पत्नी को लगा की शायद ये सब उनकी चोरी का नतीजा है, तो उसने पंडित जी को कड़ाही और सिक्कों वाली पोटली की बात बता दी और दोनों लाके पंडित जी को वापस कर दिए|

ऐसा करते ही डंडा रूक गया और रस्सी ने भी व्यापारी को छोड़ दिया | पंडित जी एक तरफ तो गुस्से में थे कि लाला ने चोरी की और धोखा दिया, लेकिन फिर खुश भी थे कि उन्हें उनका सामान वापस मिल गया| व्यापारी ने क्षमा याचना की तो पंडित जी ने उदार हृदयता दिखाते हुए लाला को क्षमा कर दिया और ख़ुशी ख़ुशी कडाही और पोटली लेकर अपने घर की ओर चल दिए|

अगले दिन जब पंडित ने असली कड़ाही से गाजर का हलवा बनाकर पण्डिताइन को खिलाया तो फिर तो क्या कहने| पण्डिताइन ने पण्डित जी को गले से लगा लिया|


6/11/14

कविता : शौक़-ए-दीदार अगर है तो नजर पैदा कर

कोई कहता ये भला है, कोई कहता वो बुरा है, न जाने किसका है असर और कौन बे-असर
इसके झंडे गड़ रहे, उसके तख़्त पलट रहे, किसकी झुग्गी उड़ गयी, अब बसेगा किसका नगर
चोर साधू होने का ढिंढोरा पीट रहा, जो साधू है उसे लोग पीट रहे, बता कौन साधू कौन चोर?
खुद सोच समझ और कर फैसला, वो कहते हैं न कि शौक़-ए-दीदार अगर है तो नजर पैदा कर

इस गली न जाना, यहाँ रहती औरतें जो बेंचती अपना जिस्म, जिन्हें नहीं समाज की जरा फ़िकर
रात के अँधेरे में वहां बजता संगीत, जगमगाती रोशनी, जिन्दा मांस नोचने जुट जाता पूरा शहर
कहा स्त्री की करो पूजा मिलेंगे देवता, फिर क्यों जला दिया उस स्त्री को? डुबो दिया उसे तुमने
बंद कर दी धड़कन उसकी पहली सांस से पहले, अब ढूँढ लो तुम कन्या पढ़ी लिखी सुशील सुन्दर

इस अछूत के पास न जाना, धर्म रूठ जायेगा लग गयी जो इसकी परछाई, रहो इससे दूर होकर
फिर लूट ली अस्मत और टांग दिया पेड़ पे, कैसे किया ये सब बिना छूए, भाई तुम तो बड़े जादूगर
सबको मालिक ने एक सा बनाया, सब के खून का एक रंग सबको लगाती भूख प्यास एक सामान
फिर देखी सफ़ेद टोपी मना कर दिया साथ खेलने से, न लगाई देर झट से कर दिया इतना अंतर

सच की होती जीत झूठ हमेशा परास्त होता, फिर क्यों बोली लगती, बिकता सच बंद कमरों के अन्दर
तू मेरा यार है चल साथ बैठते, फिर क्यों भोंकते छुरा, वादे करते प्रेम के फिर बिकता प्रेम मोबाईल पर
बस बहुत हो गया, बकवास बंद कर, न बता मुझे कौन भला कौन बुरा, कौन चोर कौन साधू  
खुद सोचूंगा समझूँगा और करूँगा फैसला, हमें भी अब है शौक़-ए-दीदार हम भी अब करेंगे पैदा नजर




6/5/14

बचपन: मेरी साईकिल

मानव विकास के बड़े बड़े अविष्कारों में आग और पहिये को गिना जाता है, सही भी है| लेकिन यदि हम नए समय के अविष्कारों में से चुने तो मेरे ख्याल से साइकिल का अविष्कार एक बहुत ही क्रांतिकारी अविष्कार था| साईकिल एक बहुत ही उम्दा अविष्कार है| दो पहियों की शानदार सवारी, न तेल का झंझट न ही बैटरी का| बस उचक के गद्दी पर बैठ गए और लगे ताबड़तोड़ पैडल मारने और मिनटों में ही साईकल हवा से बातें करते हुए फर्राटे से भागी जाती है| मेरे बचपन के कई साल इस रहस्य का पर्दाफाश करने में गुजर गए कि सिर्फ दो पहियों पर चलने की बावजूद ये साईकिल गिरती क्यों नहीं है|

साईकिल से मेरा पहला परिचय गाँव में हुआ था| मेरे पिताजी को शादी में काले रंग की बाईस इंची एटलस साइकिल मिली थी| हालाँकि पिताजी को तो बहुत चलाने का मौका नहीं मिला लेकिन मेरे चचेरे भाइयों ने साईकिल का जमकर उपयोग किया| अब साईकिल जितनी ज्यादा ऊँची थी, मैं उतना ही छोटा तो मेरी ये धारणा बनना स्वाभाविक था की साईकिल बच्चों के काम की चीज नहीं है|

एक बालक कैची साइकिलिंग को अंजाम देता हुआ 
लेकिन हमेशा की तरह ही मेरे बचपन के दोस्त रमेश ने मेरी इस धारणा का उपहास बनाने में देरी नहीं की| साईकिल ऊँची होने के कारण उसके पैर पैडल तक नहीं पहुंचते थे इसलिए वो गद्दी पर बैठ कर नहीं चला सकता था| इस समस्या के समाधान के लिए उसने साईकिल चलने की दूसरी विधा “कैंची साइकिलिंग” सीख ली| |साईकिल के मुख्या डंडे के नीचे से एक पैर दूसरी तरफ के पैडल पर और एक हाथ गद्दी पर रख कर दूसरे हाथ से हैंडल को संभालता हुआ जब मेरे सामने से वो साईकिल पर सवार सरपट निकला तो मुझे एकबारगी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ| मुझे वो साइकिल सवारी कम और  किसी सर्कस का करतब ज्यादा लगता था| रमेश ने मुझे भी कैंची साइकिलिंग सिखाने का वचन दिया लेकिन मेरी आत्मा कभी इतना साहस ही नहीं जुटा सकी की मैं इस करतब को अंजाम दे सकूं| 

फिर जब मैं गाँव से शहर गया तो वहां मुझे भिन्न भिन्न प्रकार की साइकिलों को देखने का मौका मिला| तीन पहिये की बच्चों वाली साईकिल, सपोर्टर वाली छोटी साईकिल, आगे हैंडल में टोकरी लगी लड़कियों वाली साइकिल वगरह| और यहीं पर अपने कॉलोनी के एक दोस्त की साईकिल पर मैंने साईकिल की सवारी सीखी| 

अब मुझे ये तो याद नहीं कि साईकिल किसने सिखाई और मैंने कैसे सीखी, लेकिन इतना याद है की दोस्त की साईकिल छोटी सी बच्चों वाली साईकिल थी और नाम था उसका बज़ूका| लाल-पीले रंग की चमकदार साईकिल जिसके हैंडल में आगे की तरफ दो सींगे और पिछले पहिये में दो सपोर्टर लगे हुए थे| सीखने में मेरे घुटने छिले, टखने टूटे, कोहनी लहूलुहान हुयी लेकिन क्या मजाल की मेरी हिम्मत में थोड़ी भी कमी आये| कुछ ही महीनों में मैं कॉलोनी का सबसे कुशल साईकिल सवार बन गया|

मेरे मन में भी साईकिल खरीद का विचार आया कि काश साईकिल होती तो बड़ा मजा आता सरपट दौड़ाने में, लेकिन मुझे पता था की जब तक उपयोगिता सिद्ध न हो जाये तब तक हमारे घर में पेन्सिल की नोंक तक तो आती नहीं थी तो साईकिल तो बहुत दूर की बात है| और उस उम्र में साईकिल की सबसे बड़ी उपयोगिता स्कूल या कोचिंग जाने के लिए होती थी, लेकिन फतेहपुर में मेरा स्कूल बहुत पास था|

जब पिता जी का ट्रांसफर हुआ और हम प्रतापगढ़ गए तो मुझे लगा की शायद अब कुछ जुगाड़ हो जाये लेकिन फिर से मेरा मनहूस स्कूल चंद कदमों की दूरी पर निकला और फिर से एक बार मेरी आशाओं पर तुषारापात हो गया| लेकिन ये बहुत दिनों तक नहीं चला और नवीं कक्षा में मैंने कोचिंग ज्वाइन कर ली| ये कहना मुश्किल है की मैंने साईकिल लेने के लालच में कोचिंग की या कोचिंग की इसलिए साईकिल ली, लेकिन कुल मिला जुला के कोचिंग काफी दूर थी और ये फैसला हुआ की मेरे लिए एक साईकिल खरीदी जाएगी|

अब तो मैंने साईकिल के सपने देखने लगा| साईकिल कैसी होनी चाहिए, उसका रंग कैसा होना चहिये, उसकी ऊँचाई कितनी होनी चाहिए, गद्दी कौन सी होनी चहिये, उसमे कैरिअर होना चाहिए कि नहीं आदि आदि| फिर साईकिल भी दो प्रकार की होती थी, एक रेंजर स्टाइल की साईकिल जिसमे हैंडल सीधा होता है और उसमे दो सींगे लगे होती है और टीवी पर उसका बड़ा प्रचार भी आता था| दूसरी थी साधारण साईकिल जिसका हैंडल साईकिल सवार की तरफ मुड़ा होता था और जिसे बड़े बूढ़े लोग चलाया करते थे| मैं और मेरे भाई दोनों के मन में तो यही था कि रेंजर स्टाइल की साईकिल ले, लेकिन फिर मेरे पिता जी ने साधारण स्टाइल की साईकिल की मजबूती के जो गुणगान किये और कोचिंग के अतिरिक्त एक हजार अन्य उपयोग गिना डाले तो हमारे पास कोई और चारा नहीं था| हमने १८ इंची एटलस साइकिल खरीदने का तय किया|

अगले दिन मैं और मेरा भाई पिताजी के साथ साईकिल खरीद करने शहर के मशहूर गुप्ता साईकिल वाले की दुकान पर पहुँच गए| हम दोनों के उत्साह और उमंग का ठिकाना नहीं था| मन में गुलगुले फूट रहे थे की जा तो रहे हैं रिक्शे पर लेकिन आयेंगे साईकिल पर सवार| दुकान पर पहुंचे तो पिता जी ने हमसे साईकिल चुनने को कहा| हमने काले लाल रंग की शानदार साईकिल, फिर साईकिल के साथ गद्दी, हैंडल, पैडल के कवर और घंटी इत्यादि चुने| साईकिल में एक मजबूत करियर और एक मजबूत स्टैंड भी लगा जो की रेंजर साईकिल के फुसफुस स्टैंड और करिअर के मुकाबले कहीं मजबूत था| साईकिल के साथ ही पिता जी ने एक हवा भरने वाला पंप, ग्रीस, तेल, रिंच इत्यादि रखरखाव के सामान भी खरीद लिए|

फिर साईकिल खरीद होने के बाद कुछ देर तक तो मेरे और मेरे भाई में बहस हुई कि साईकिल घर कौन ले जायेगा| मैंने अपनी उम्र और अनुभव का वास्ता देते हुए किसी तरह ये बहस जीती और मैं नयी साईकिल पर सवार होकर घर के लिए निकला| जैसा की अभी आपको बताया, वैसे तो मेरा रेंजर साईकिल खरीदने का मन था लेकिन पहली ही सवारी में इस साईकिल ने मेरा मन मोह लिया और फिर शाम के समय बाजार की टिमटिमाती रोशनी और शोरगुल में साईकिल को दुकान से घर सरपट भगाते समय मेरे मन में ख़ुशी को जो आलम था वो बयां नहीं किया जा सकता| बालों और कानों में सर्र सर्र हवा एक संगीत की भांति लग रही थी| घर दूर था लेकिन आज थकान किसे लगती थी, मैंने जान बूझ कर लम्बा रास्ता लिया और आराम से घर पहुंचा|

हालाँकि मेरी कोचिंग बहुत दिन नहीं चली और मैंने छोड़ दी और उसके साथ साईकिल चलाना भी कम हुआ लेकिन फिर भी साईकिल के प्रति मेरा और मेरे भाई का प्रगाढ़ प्रेम कभी कम नहीं हुआ| हर दूसरे हफ्ते साईकिल को पानी से धोया जाता था और सूखे कपडे से पोछा जाता था| उसके बाद मैं और मेरा भाई एक कुशल मेकेनिक की भांति बड़ी ही तन्मयता के साथ साईकिल के एक एक पेंच, नट, बोल्ट का निरिक्षण करते थे, साईकिल की चैन में ग्रीस लगाते थे, और साईकिल के पहियों में और ब्रेक में तेल डालते थे| फिर हवा चेक की जाती थी और कम होने पर पम्प से हवा भरी जाती थी|

साईकिल पंचर होने पर तुरंत पंचर ठीक करने दुकान पर पहुँच जाते थे और फिर साईकिल मेकेनिक पानी में ट्यूब डुबो डुबो के पंचर ठीक करता था| दो साल में टायर ट्यूब, गद्दी वगरह बदलने का रिवाज होता था| एक भी पुर्जा इधर से उधर हुआ नहीं कि मैं और मेरा भाई रिंच पेंचकस लेकर तैयार हो जाते थे और यही कारण था कि साईकिल की मजबूती कई सालों बाद भी भी जस की तस थी| 

और ऐसा नहीं है कि साईकिल यूँ ही बस घर पर पड़ी रहती थी| साईकिल की वजह से मम्मी जी की कभी न ख़तम होने वाली हजार फरमाइशें पूरी करना अब आसान हो गया था| पास वाली दुकान से पकौड़ी बनाने के लिए एक पाव बेसन लाना हो या हलवे के लिए आधा किलो सूजी और शक्कर, बिजली चली जाने पर मोमबत्ती लानी हो या लालटेन का शीशा, सब्जी मंडी से सब्जी लानी हो या चौक से पनीर, नाश्ते के लिए जलेबी दही लाना हो या शाम के समोसे, अब हमारा सब काम साईकिल से ही होता था| आटा ख़तम हो गया? कोई बात नहीं साईकिल के मजबूत करियर पर गेहूं लाद कर चक्की तक पहुंचा आये| सिलेंडर ख़तम हो गया? साईकिल तैयार है, तीन डंडों के बीच में खाली सिलेंडर फंसाया और नया सिलेंडर लाद के ले आये| अब मुझे समझ आ रहा था की पिताजी क्यों स्टालिश लेकिन कमजोर फुसफुस रेंजर साईकिल लेने की बजाये एक मजबूत साईकिल लेना चाहते थे| 

खैर शहर बदला और मैं कॉलेज की पढाई के लिए इलाहबाद आ गया और मेरे भाई को साईकिल की इकलौती बादशाहत मिली|  लेकिन साईकिल धीरे-धीरे पुरानी हो रही थी, और उसमे जंग भी लगना चालू हो गयी थी| मेरी अनुपस्थिति में मेरे भाई को भी साईकिल के रखरखव में उतना आनंद नहीं आता था| ये फैसला हुआ की अब साईकिल को लोहे के भाव बेंच देना चाहिए, लेकिन इससे पहले की साईकिल की बिक्री होती, एक चोर महाशय रात के अँधेरे में आये और साईकिल घर के आंगन से उठा ले गए| मुझे कॉलेज में ये खबर मिली तो बड़ा दुःख हुआ की साईकिल को आखिरी बार टाटा भी नहीं बोल पाया| किसी बेजान चीज से उसके बाद शायद ही मुझे कभी इतना लगाव हुआ हो|

बीच के सालों में मोटरसाकिल की वजह से साईकिल के प्रयोग और महत्ता में भारी कमी आई थी | लेकिन इधर कुछ दिनों से एक नया और बहुत ही अच्छा प्रचालन निकला है| लोग साईकिल की महत्ता साईकिल के वातावरण-अनुकूल सवारी होने के कारण मानने लगे हैं और लोगों का साईकिल के प्रति स्नेह फिर से बढ़ने लगा है| कारण कोई भी हो मेरे इतना कुछ लिख देने के बाद आप इतना तो मान ही गए होंगे की साईकिल वाकई में एक बहुत ही क्रन्तिकारी अविष्कार था|