2/24/13

एक लोटा समंदर - भाग ४ (आखिरी भाग)

एक लोटा समंदर - भाग १
एक लोटा समंदर - भाग ३ 
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मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ| मेरे पैसे रमेश छीन कर भाग चुका था, और वो भी कोई आम पैसे नहीं थे, फीस के पैसे थे| ये बात बब्बा को पता लगी तो मेरी खैर नहीं थी| और कहीं गलती से ये पता लग गया की पैसे कैसे गए हैं तब तो और खैर नहीं थी| घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं होने के कारन पैसों की बहुत अहमियत थी, वैसे भी एक किसान के घर में एक एक पैसे का हिसाब रखा जाता है, तब पर भी पूरा नहीं पडता है|

पैसे वापस मिलना भी संभव नहीं था, अब तक तो रमेश ने उन पैसों से दूसरा लट्टू खरीद लिया होगा| अभी तो मैं स्कूल भी नहीं जा सकता था| मुझे ऐसा लग रहा था की मैं स्कूल गया तो मैडम फीस के बारे में जरूर पूछेंगी और फीस नहीं मिलने पर मेरा नाम आज ही कट जायेगा|

बब्बा की नजर में मैं बहुत अच्छा लड़का था, पढ़ने में बहुत होशियार, बड़ों का सम्मान करना, सभी काम समय से खतम करना जैसे आदर्श बालक के सभी गुण मेरे अंदर थे| और इन सब का बब्बा सभी के सामने बहुत बखान भी करते थे और गांव के बाकि लड़कों, बड़े क्या छोटे क्या, को मेरी मिसाल दिया करते थे| मुझे लगा की अब मैं बब्बा की नज़रों में गिर जाऊँगा|

ऐसी ही कई विचार, जिनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं था, मेरे दिमाग में आने लगे| जब आप छोटे होते हो तब आपकी दुनिया बहुत सीमित होती है| घर, परिवार, स्कूल, दोस्त यही सब आपकी दुनिया होती है, और इस दुनिया में थोडा सा असंतुलन आते ही आपका बाल मन सोचता है की अब सब खतम हो गया| मेरी भी हालत वही थी, अंततः मार खाने और नाम कटाने से बचने के लिए मैंने मन बनाया की मैं भाग जाऊँगा| मैंने सुन रखा था की बगल वाले गाँव के पास जो बजार है, उसके बाहर से जो सड़क जाती  है उस पर इलाहबाद जाने की बस मिलती है| वहाँ जाकर क्या करूँगा, ये अभी सोचा नहीं था|

सड़क से मुझे बहुत डर लगता था, सड़क पर तेज भागती गाड़ियों का खौफ गांव के सभी बचों में था, आज तक मैं सड़क तक अकेले नहीं गया था | सड़क बहुत दूर भी थी, लेकिन मैंने मन बना लिया था और अपने नन्हे कदम तेजी से बढाता जा रहा था| लेकिन जितना ही मैं के सड़क के करीब आता गया, उतना ही मेरा डर बढ़ता गया| मैं सड़क से कुछ दूरी पर आकर ठिठक कर रुक गया| सड़क पर बहुत गाडियां तो नहीं थी, लेकिन जो भी वो बहुत तेजी में होर्न बजती हुई, इधर से उधर भागी जाती थी|

तभी अचानक से एक सवारी जीप तेजी से होर्न बजाते हुए, सामने चलती बस को ओवरटेक करने के चक्कर में मेरे बहुत करीब से निकली| ये इतनी अचानक से हुआ की मुझे कुछ पता ही नहीं चला, अगले ही छन मैं तेजी से वापस कुएं की तरफ भाग रहा था| ठण्ड थी फिर भी मैं पसीने से तर-बतर हो गया, हांफ हांफ के जान निकली जा रही थी लेकिन फिर भी जब तक मैंने कुएं तक नहीं पहुंचा तब तक भागता ही रहा, और कुएं पर पहुँच कर उसके चबूतरे के पास ही गश खाकर गिर गया|

उसके बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं, जब मेरी आँखें खुली तो मैं अपने दालान के बाहर खटिया पर पड़ा था| मम्मी धीरे धीरे मेरा सर सहला रही थी| खटिया के सामने बब्बा खड़े थे और थोड़ी ही दूर पर रमेश भी खड़ा था|

“ कईसन हए अब ? ” बब्बा ने पूछा|
“ठीक हूँ”
“बिहोश कैसे होई गए ?”
“वो मैं वो ...” मैं इतना बोल कर चुप हो गया, मुझे लगा सड़क वाली बात तो इन्हें पाता नहीं होगी|
“सरकिया पे काउ करइ ग रहे ?” बब्बा को न जाने सब कैसे पाता चल चुका था|
मुझे इसका कोई जवाब नहीं सूझा, मैं बस मम्मी की गोद में सिमट गया|

असल में हुआ ये था की रमेश मुझसे पैसे छीन कर भाता तो, लेकिन स्कूल नहीं गया और न ही मेरे पैसों से उसने लट्टू ख़रीदा| मैं उसका सबसे अच्छा दोस्त था, और मेरे पैसे छीन कर वो बहुत दुखी था| पैसे वापस देने के लिए वो वापस से कुएं पर आने लगा तो उसने मुझे सड़क से कुएं की तरफ भागते हुए देखा, कुएं पर पहुँच कर जैसे ही मैं बेहोश हुआ वो पास के खेतों में काम कर रहे बब्बा को बुला लाया|

“अगली बार भागिहो तो बताई के भागिहो” बब्बा ने हंसते हुए कहा, और सभी लोग हंसाने लगे| उन्हें सब पाता लग गया था, मैं भी मम्मी की गोद में बैठे बैठे मुस्कुराने लगा|

अगली सुबह स्कूल जाने से पहले मैं रमेश के घर गया तो वो पहले ही निकल गया था| शायद वो अब भी लट्टू की घटना के कारण मुझसे नहीं मिलना चाह रहा था| मैं कुएं पर पहुंचा तो रमेश पहले से बैठा दिखा मुझे| मैं भी रुक गया| कुछ देर हमने कुछ नहीं बोला फिर उसने कहा - “माफ कर दे ना यार”

रमेश ने इस तरह माफ़ी मांगी तो मुझे लगा की गलती तो मेरी थी, लेकिन माफ़ी रमेश मांग रहा है| मैंने भी रमेश से कहा - “गलती मेरी ही थी, मुझे लट्टू चलाना नहीं आता था, तो मुझे जिद नहीं करनी चाहिए थी”

“चल सिखाता हूँ तुझे लट्टू”, ऐसा कहकर उसने दो चमकते हुए लट्टू जेब से निकाले|
“कहाँ से मिले ?”
“बब्बा ने फीस के पैसे वापस नहीं लिए और लट्टू खरीदने को कहा”|

लट्टू नचाते उछालते हम स्कूल की ओर चल दिए|


2/21/13

एक लोटा समंदर - भाग ३


कृपया पिछले भाग पहले के ब्लॉग में पढ़े - 

एक लोटा समंदर - भाग १

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रात भर मुझे लट्टू के ही सपने आते रहे| कभी मैं विशालकाय लाल पीले रंग के लट्टू पर बैठा लट्टू के साथ नाच रहा हूँ तो कभी लट्टू के ढेर में तैर रहा हूँ| कभी कोई राक्षस मेरा सोने का लट्टू छीन कर अठ्ठाहास करता हुआ भगा जाता है तो कभी स्कूल के पास वाले तालाब में मेरा लट्टू खो गया है और मैं उसे ढूंढ रहा हूँ|  कभी लगा लट्टू आकाश में उड़ा जा रहा है और उसके पीछे मैं भी उड़ा जा रहा हूँ|

किसी तरह रात बीती और सबेरा हुआ| रोज की भांति नहा धो कर मैं जैसे ही बब्बा के पास गया मुझे फीस की याद आ गयी| मैंने बब्बा से फीस मांगी तो बब्बा ने कहा की किसी के हाथों भिजवा देंगे और मुझे उसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है| लेकिन पता नहीं मुझे क्या हो गया, मैं नहीं माना और बब्बा से फीस के पैसे लेकर ही उठा| फीस लेकर, खाकर मैं रमेश के घर आज आधे घंटे पहले ही पहुँच गया, ताकि लट्टू नचाने के लिए थोडा समय मिले मुझे|

रमेश के घर पहुंचा तो देखा रमेश मजे से गन्ना चूस रहा है, मुझे देखकर बोला - “इतनी जल्दी क्यों आ गए ? नौ बज गए क्या ?”
“नहीं अभी नहीं, लेकिन आज थोडा जल्दी चलेंगे, मुझे लट्टू भी तो नाचना है”
मेरा ये बोलना था की रमेश ने मुहं पर उंगली रखकर मुझे चुप रहने का इशारा करते हुए फुसफुसाकर कहा -
“अबे तुम मरवाओगे| यहाँ ये सब बातें नहीं करो, अभी भैया ने सुन लिया तो खाल उधेड़ के भूसा भर देंगे”
“फिर कहाँ नचाएंगे ?”
“वहीँ कल वाली जगह, कुएं के पास| तुम थोड़ी देर रुको मैं कुछ खा के आता हूँ| वैसे भी तुम्हें न जाने लट्टू का कौन सा भूत सवार है जो तुम आधा घंटा पहले ही आ धमाके|”

मरता क्या न करता, वहीँ खटिया पर बैठ कर इन्तजार किया| थोड़ी देर में रमेश अपना स्लेट लेकर आ गया|

कुएं के पास पहुँच कर मैंने कहा - “अब दो मुझे|”
“हाँ हाँ इतने अधीर क्यों हो रहे हो, देते है ना| ” कहकर रमेश ने जेब से लट्टू और डोरी निकली और मुझे दे दिया| ऐसे तो देखने में लट्टू नचाना बड़ा आसान लगता था, लेकिन जब मैंने कोशिश की तो पता चला की इतना आसान काम नहीं है| मेरी कई कोशिशों के बावजूद लट्टू नहीं नाचा, कभी डोरी हाथ से फिसल जाती थी, तो कभी लट्टू कील के बल गिरने के बजाय उल्टा गिर जाता था|

हारकर मैंने रमेश से सिखाने को कहा, रमेश ने बड़े इत्मीनान से लट्टू नचाने की कला का बारीकी से वर्णन किया| किस तरह से डोरी लपटानी है, किस तरह से लट्टू को हाथ में पकडना है, और कितनी तेजी से किस कोण पर हवा में फेंकना है सब कुछ बताया|

ट्रेनिंग लेकर मैंने फिर से कोशिश की, लेकिन ढाक वही तीन पात, लट्टू फिर भी नहीं नाचा| फिर मेरे नन्हें दिमाग में एक ख्याल कौंधा, मुझे लगा की शायद मैं अगर जमीन की बजाय कुएं की पक्की जगत (चबूतरा) पर कोशिश करूँ तो कुछ काम बन जाये| हम दोनों चबूतरे पर चढ गए और फिर से डोरी लपेट कर मैंने लट्टू हवा में उछाला| इस बार लट्टू जैसे ही पक्के चबूतरे पर गिरा, तेजी से नाचने लगा| मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा| रमेश भी खुश हुआ की चलो सिखाना कुछ काम तो आया| हम दोनों चबूतरे पर खुशी के मारे उछालने लगे|

लेकिन ये खुशी बहुत देर नहीं रही, लट्टू नाचते हुए कुएं के और करीब पहुँच गया| मैं और रमेश लट्टू की ओर लपके, लेकिन इससे पहले की हम कुछ कर पाते, लट्टू हमारी आँखों के सामने कुएं में गिर गया| मुझे लगा की लकड़ी का लट्टू तो डूबेगा नहीं, लेकिन शायद लोहे की कील की वजह से पानी में गिरते ही लट्टू दुपुक की आवाज के साथ डूबकर रसातल की ओर चला गया|

मुझे काटो तो खून नहीं, लगा की पैर जम गए हैं और चबूतरे में धंसे जा रहे हैं, दिल की धडकन तो लट्टू के चबूतरे का किनारा छोडते ही रुक गयी थी| दिमाग एकदम खाली हो गया, कुछ सूझना बंद हो गया| रमेश कुछ देर तक तो कुएं में ही देखता रह गया, शायद उसे समझने में थोडा देर लगी की लट्टू डूब गया है| फिर वो चबूतरे से नीचे कूदा और जमीन पर पैर पटक पटक कर रोने, चिल्लाने लगा|

रमेश रोता जा रहा था और मेरा लट्टू डूबा दिया, मेरा लट्टू डूबा दिया चिल्लाता जा रहा था| मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ| थोड़ी देर बाद जब रमेश रो,चिल्ला कर थक गया तो मुझसे कहा - “मेरा लट्टू वापस करो”
“लेकिन वो तो डूब गया है ” मैंने मासूमियत से कहा, मनो उसे ये बात पाता नहीं हो|
“वो मुझे नहीं पाता, मुझे मेरा लट्टू वापस चाहिए”
“मैं कहाँ से लाकर दूं, दोस्ती की खातिर मुझे माफ कर दे” मैंने दोस्ती की दुहाई देकर रमेश को पटाने की कोशिश की|
रमेश ने थोड़ी देर सोचा भी, लेकिन उसे उस समय लट्टू की अहमियत दोस्ती से कहीं ज्यादा दिख रही थी| “नहीं, दोस्ती-वोस्ती नहीं पाता मुझे| मुझे मेरा लट्टू दो, नहीं तो लट्टू के पैसे दो”

पैसे का नाम सुनते ही मुझे याद आया की फीस के पैसे मेरी जेब में पड़े थे, पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगा की रमेश को ये बात पता चल गयी है, और इसीलिए वो पैसे मांग रहा है और मैं किसी भी हालात में फीस के पैसे उसे नहीं दे सकता था| मैं शर्ट की जेब पर हाथ रखकर वहाँ से भागा, लेकिन जैसा की मैंने पहले भी बता चुका हूँ की रमेश को खेल कूद में कोई नहीं हरा सकता था, उसने मुझे दौडकर थोड़ी ही देर में धर दबोचा और मेरे पैसे छीन कर भागा| मैंने थोड़ी देर तक उसका पीछा किया लेकिन उसकी तेज चाल के आगे मेरी एक न चली और वो थोड़ी ही देर में नज़रों से ओझल हो गया| मैं कुएं के पास वापस आकार चबूतरे से टेक लेकर फूट फूट कर रोने लगा|


2/20/13

एक लोटा समंदर - भाग २

कृपया भाग १ पिछले ब्लॉग में पढ़े - 

एक लोटा समंदर - भाग १

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हम स्कूल पहुंचे तो काफी बच्चे पहले से आ चुके थे| मैडम जी भी आ गयी थी| कक्षा एक और दो को एक ही मैडम सबेरे से लेकर शाम तक अकेले पढ़ाती थी| पढ़ाती तो क्या थी, यूँ कहिये कि टाइम पास करती थी| वैसे भी गाँव के उजड्ड देहाती बच्चों को दिन भर रोके रखना ही अपने आप में एक बहुत महान कार्य था| नीम के पेड़ के नीचे जमीन पर हमारी क्लास लगती थी, और बगल में ही एक बहुत बड़ी तलैया थी| क्लास में बैठने के लिए सबको अपना अपना कुछ जुगाड़ लेकर आना पड़ता था| अमूमन बच्चे खाद या बीज इत्यादि कि बोरी साथ में बैठने के लिए लाते थे और रमेश जैसे कुछ बच्चे वो तकल्लुफ उठाने कि भी जहमत नहीं उठते थे और कोई ईंट का टुकड़ा उठा कर उसी पर बैठ जाते थे|

स्कूल खत्म होते होते मैडम ने उन बच्चों कि लिस्ट बताईं जिन्होंने अभी तक इस महीने की फीस जमा नहीं कि थी और साथ ही ये भी बताया कि फीस ना जमा करने पर नाम भी कट सकता है| इस लिस्ट में मेरा और रमेश दोनों का नाम था| रमेश को कोई फर्क नहीं पड़ता था, उसका तो मैडम को भी नहीं पता चलता था कि कब नाम कटा हुआ है और कब लिखा हुआ| लेकिन मेरे साथ ये पहली बार ऐसा हुआ था, मेरी फीस बब्बा समय रहते गाँव के किसी ना किसी आदमी के हाथ भिजवा देते थे| मुझे न जाने क्यू डर लगा की अगर मैंने कल तक फीस जमा नहीं करी तो मेरा नाम कट जायेगा, इसलिए नाम कटने की शर्मिंदगी से बचने के लिए मैंने फैसला किया की मैं आज ही शाम को बब्बा से फीस मांग के झोले में रख लूँगा और कल जमा कर दूंगा|

स्कूल की छुट्टी की घंटी बजते ही सभी बच्चे भेड़ के झुण्ड की तरह निकले और अपने अपने रास्तों पर इधर उधर फ़ैल गए| हमारे स्कूल से घर के रास्ते में एक कुआँ पडता था| पुराने ज़माने में जब पम्पिंग मशीन नहीं आई थी तब सिंचाई या तो नहरों से होती थी, या तो कुओं पर पुराहट (ट्यूबवेल) चला कर, इसलिए ५-६ खेत बाद एक न एक कुआँ दिख ही जाता था| 


हम जैसे ही कुएं के पास पहुंचे रमेश ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकते हुए कहा -
“अबे रुक, एक चीज दिखता हूँ ”
“क्या है ? गांव चल के दिखा देना, अभी देरी हो गयी तो मम्मी पीटेंगी”
“अबे तुझे तो हमेशा ही देरी लगी रहती है, थोडा देर रुक के चलते हैं” इतना कहकर उसने जेब से लाल पीले रंग की चमकदार चीज निकली और कहा-
“ये देख ”
“ये क्या है”
“लट्टू"
“यार देखने में तो बड़ा मस्त है| इसे चला के दिखाओ”
“हाँ हाँ दिखाते हैं, दिखाते हैं, टेंशन कहे ले रहे हो मुन्ना” रमेश ने भाव खाते हुए अकडकर कहा और दूसरी जेब से डोरी निकली, फिर बड़े इत्मीनान से डोरी को लट्टू की कील से शुरू करके चारों और कई बार लपेटा| मैं बड़े कुतूहल के साथ सब देख रहा था|
“राजा अब देखो मजा| एक-दो-तीन" गिनकर रमेश ने झटके के साथ लट्टू फेंका और लट्टू जमीन पर गिरते ही तेजी के साथ गोल गोल  घूमने लगा|

बचपन में हमें हर गोल गोल घूमने वली चीज से प्यार होता है| फिर चाहे वो हवा से चलने वाली चरखी हो या स्प्रिंग से घूमने वाले नचौने| रंग बिरंगा गोल-गोल लट्टू देख कर मेरा मन मोहित हो गया|

“यार रमेश ये तो बड़ा मस्त है|”
“क्या कहा था मैंने” रमेश ने गर्व से कहा| फिर तो अगले आधे घंटे रमेश ने अपनी लट्टू कला का भरपूर प्रदर्शन किया| कभी जमीन पर नचाता था तो कभी कुएं के चबूतरे पर| कभी जमीन पर नचा कर हाथ में उठा लेता था तो कभी सीधे हवा में ही फेंककर हथेली  पर लैंड करा लेता था| लट्टू रमेश के इशारों पर नाच रहा था| मैं तो देख कर मंत्र मुग्धा हो गया|
“कब तुम ख़रीदे और कब सीख भी लिए ?"  लट्टू की चमक से जन पड़ता था की एकदम नया है, मैंने अपनी शंका निवारण के लिए पूछा|
“भैया का चुरा के सीख लिए था, ये वाला तो कल ही ख़रीदे बाजार से एकदम नया नया|"
फिर उसने लट्टू का और बखान किया "देखो रंग भी कितना मस्त है, लाल और पीला| हरे रंग का भी था, लेकिन वो पसंद नहीं आया मुझे| छूकर देखो कितना चिकना भी है| इसकी कील भी बहुत मजबूत है, कभी टूटेगा नहीं लट्टू मेरा|”
आप नयी चीज खरीदते हो तो आपको लगता है की सामने वाला भी उसकी तारीफ करे| उसी तारीफ की लालसा में रमेश मुझे लट्टू  से जुडी छोटी से छोटी चीज मजे से बता रहा था| और मैंने भी तारीफ करने में कोई कसर नहीं छोडी| वैसे लट्टू  था भी बहुत शानदार, और रमेश ने जिस कुशलता के साथ उसका प्रदर्शन किया था, उसके बाद तो उस लट्टू की तारीफ न करना खुद की अज्ञानता का परिचय देना था|

“मुझे भी चलाने दो"
“अबे कभी चलाये हो ?”
“नहीं”
“फिर टूट गया तो” मैंने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया|
उसने थोडा देर सोचा फिर कहा “अच्छा ठीक है, अभी तो लट्टू नया है तो मैं अभी नहीं दूंगा, लेकिन तुम इसे कल सबेरे चला सकते हो, सिर्फ हमारी पक्की दोस्ती की खातिर”

बचपन में, बचपन में ही क्या मैंने तो बड़े होने पर भी देखा है, दोस्ती चाहे जितनी गहरी हो, कोई भी नयी चीज बिना एक बार खुद इस्तेमाल किये दोस्त को देने का मन नहीं करता है| एकदम नयी नयी शर्ट आप कभी दोस्त को नहीं देंगे, एक बार पहनने के बाद भले ही आप जिंदगी भर के लिए दे दे|

लेकिन मैं कल सुबह के वायदे से भी बहुत खुश था ,फीस वीस सब मैं भूल चुका था, अब मेरे दिमाग में सिर्फ लट्टू घूम रहा था, आज की रात बड़ी लंबी होने वाली थी|


एक लोटा समंदर - भाग ३ 
एक लोटा समंदर - भाग ४ (आखिरी भाग)

एक लोटा समंदर - भाग १

कड़ाके की हड्डी गला देने वाली ठंडी पड़ रही थी, और साथ ही साथ थोडा थोडा कुहरा भी छाया हुआ था| धूप अभी निकलने की कोशिश ही कर रही थी, लेकिन इन सब की परवाह न करते हुए रोज की ही भांति बब्बा का कौड़ा (लकड़ी का अलाव) जल चुका था| वैसे मैं रोज बब्बा के जागने के बाद ही जागता था, इसलिए मुझे कभी पता नहीं चला की ये कौड़ा बब्बा कब जलाते हैं और कौड़ा जलाने के लिए इतनी ढेर साडी लकड़ी कहाँ से लाते हैं| लेकिन इतना पता था की सूरज की पहली किरण निकलने से पहले गोशाला के पास में कौड़ा जल जाता था और गाँव के सभी बूढ़े आ जाते थे|

जब मैं जगा तो गाँव के ५-६ बूढ़े पहले से ही बब्बा के पास पुआल पर आसान जमा के बैठे थे और हुक्के की गुड गुड के साथ सर्दी की सुबह वाली चाय का आनंद ले रहे थे| आज चर्चा का विषय ये था की चरखे पर किसके गन्ने की पेराइ होगी और किसका गुड बनेगा| गाँव में सभी लोग मिल बाँट कर काम करते हैं, तो एक ही चरखे पर बारी बारी से सब अपना गन्ना पेर लेते हैं| वैसे भी हमारे गाँव में सिर्फ घर के इस्तेमाल भर का ही गन्ना लोग उगाते थे इसलिए एक-दो दिन में ही एक खेत गन्ने की पेराई हो जाती थी|

खैर मुझे इन सब मामलों में कोई बहुत रूचि नहीं थी, वैसे भी ६ साल के बच्चे को इन सब मामलों में रूचि रहनी भी नहीं चाहिए| गाँव से कोई १ किलोमीटर की दूरी पर के एक स्कूल में मैं पढने जाता था| बाकि बच्चों के विपरीत मुझे स्कूल जाना बहुत अच्छा  लगता था और साथ ही मुझे किसी ने सिखा दिया था की हमेशा नहा के स्कूल जाना चाहिए| तो ठंडी पड़े, कुहरा पड़े, ओले पड़े लेकिन मैं रोज सुबह सुबह दुदहिया बाल्टी (बाल्टी जिदामे बब्बा दूध दुहते थे, ये बाल्टी बाकि बाल्टियों की अपेक्षा छोटी थी और चूँकि मैं भी बहुत छोटा था और बड़ी बाल्टी उठा नहीं पता था, इसलिए मैं हमेशा दुदहिया बाल्टी ही इस्तेमाल करता था) दालान के पास लगे सरकारी नल पर नहाने पहुँच जाता था| अब कायदे से नहाना तो मुझे आज तक नहीं आया तो बचपन में मैं तो क्या ही नहाता होऊंगा| आधा पानी मेरे ऊपर गिरता था, आधा नल के चबूतरे के पास लगे छोटे से नीम के पेड़ पर|

हर दिन की तरह आज भी जैसे ही जाड़े की गुगुनी धुप बढ़ी मैं नहा धो कर आ गया| सिर पर ढेर सारा सरसों का तेल चपोड़ा, और खाने के लिए बैठ गया| ठंडी के दिनों में अक्सर सबेरे खिचड़ी बनती थी| ठंडी का दिन हो और सुबह सुबह आलू मटर की खिचड़ी मिल जाये तो क्या कहने| और मैं तो जब तक दो-तीन चम्मच घी न डलवा लू खिचड़ी में तब तक हाथ भी नहीं लगता था| यादवों के घर में पैदा होने से ये एक फायदा तो हुआ था, बाकि किसी चीज की चाहे जितनी कमी हो लेकिन दूध दही घी की कमी कभी नहीं रही| मैंने खिचड़ी खायी और फिर बब्बा के पास जाकर बैठ गया| अब तक धूप भी अच्छे से निकल आई थी|

बब्बा मेरे दादा जी थे| बब्बा को घर में सभी लोग, चाहे वो बड़ा हो या छोटा, बब्बा ही कहते थे| मेरे पापा भी बब्बा को बब्बा कहते थे और मैं भी बब्बा को बब्बा कहते था| घर के बहार उनका दूसरा नाम था, सब उन्हें प्रधान कहके बुलाते थे| वो पहले १० साल तक गाँव के प्रधान रह चुके थे, और इसलिए उनका नाम प्रधान पद गया था, पूरा गाँव उन्हें प्रधान के नाम से ही जनता था| बस चिठ्ठी के ऊपर प्रधान लिख दो चिठ्ठी अपने आप हमारे ही घर पहुंचेगी, भले ही वो फिर वर्तमान प्रधान की ही क्यों न हो| बब्बा को मैंने हमेशा सफ़ेद धोती कुरते में देखा था और उनके साथ हमेशा एक बांस की चढ़ी रहती थी| शादी ब्याह में या किसी खास मौके पर बब्बा कुरते के ऊपर एक जैकेट भी पहनते थे और बांस की साधारण छड़ी की जगह शहर से मंगाई हुई एक महँगी छड़ी का इस्तेमाल करते थे| वैसे तो बब्बा घर पर हुक्का ही पीते थे लेकिन उनके साथ हमेशा बीडी का एक बंडल रहता था| पूर्व प्रधान होने की वजह से या किसी और वजह से ये तो मुझे पता नहीं, लेकिन बब्बा का पूरा गाँव बहुत सम्मान करता था|

स्कूल गाँव से काफ़ी दूरी पर था, इसलिए मैं अकेले नहीं जाता था, मेरे साथ मेरा पक्का दोस्त रमेश भी जाता था| रमेश मेरी ही उमर का था लेकिन मेरे विपरीत उसकी पढाई लिखाई में बिलकुल भी रूचि नहीं थी| लेकिन खेल कूद में उसका कोई सानी नहीं था| स्लेट रंगने के विभिन्न तरीकों से लेकर गाँव के बाहर पीपल और गूलर के पेड़ों पर विराजमान भूतों के बारे में उसको पूरा ज्ञान था, और ये ज्ञान वो मुझे मौका मिलने पर देता रहता था| साइकिल का टायर दौड़ने में वो हमारी बाल मंडली का चैंपियन था|

जैसे जैसे सूरज चढ़ा, बब्बा कि मंडली भी धीरे धीरे विसर्जित हो गयी और बब्बा भी खेत में जाने कि तैयारी करने लगे| मैं भी अपना झोला स्लेट लेकर रमेश के घर पहुँच गया| रमेश को स्कूल जाने के लिए किसी तैयारी कि जरूरत नहीं होती थी| वो जिस हाल में रहता था उसी हाल में अपना स्लेट लेकर स्कूल के लिए निकाल लेता था, वैसे भी पढाई उसे करनी नहीं होती थी| मैंने एक दो बार रमेश-रमेश आवाज़ दी और रमेश स्लेट लेकर हाजिर हो गया| हम दोनों हरे हरे मटर के खेतों में दो नन्हे खरगोशों कि भांति उछालते कूदते स्कूल के लिए निकाल दिए|


एक लोटा समंदर - भाग २
एक लोटा समंदर - भाग ३