कड़ाके की हड्डी गला देने वाली ठंडी पड़ रही थी, और साथ ही साथ थोडा थोडा कुहरा भी छाया हुआ था| धूप अभी निकलने की कोशिश ही कर रही थी, लेकिन इन सब की परवाह न करते हुए रोज की ही भांति बब्बा का कौड़ा (लकड़ी का अलाव) जल चुका था| वैसे मैं रोज बब्बा के जागने के बाद ही जागता था, इसलिए मुझे कभी पता नहीं चला की ये कौड़ा बब्बा कब जलाते हैं और कौड़ा जलाने के लिए इतनी ढेर साडी लकड़ी कहाँ से लाते हैं| लेकिन इतना पता था की सूरज की पहली किरण निकलने से पहले गोशाला के पास में कौड़ा जल जाता था और गाँव के सभी बूढ़े आ जाते थे|
जब मैं जगा तो गाँव के ५-६ बूढ़े पहले से ही बब्बा के पास पुआल पर आसान जमा के बैठे थे और हुक्के की गुड गुड के साथ सर्दी की सुबह वाली चाय का आनंद ले रहे थे| आज चर्चा का विषय ये था की चरखे पर किसके गन्ने की पेराइ होगी और किसका गुड बनेगा| गाँव में सभी लोग मिल बाँट कर काम करते हैं, तो एक ही चरखे पर बारी बारी से सब अपना गन्ना पेर लेते हैं| वैसे भी हमारे गाँव में सिर्फ घर के इस्तेमाल भर का ही गन्ना लोग उगाते थे इसलिए एक-दो दिन में ही एक खेत गन्ने की पेराई हो जाती थी|
खैर मुझे इन सब मामलों में कोई बहुत रूचि नहीं थी, वैसे भी ६ साल के बच्चे को इन सब मामलों में रूचि रहनी भी नहीं चाहिए| गाँव से कोई १ किलोमीटर की दूरी पर के एक स्कूल में मैं पढने जाता था| बाकि बच्चों के विपरीत मुझे स्कूल जाना बहुत अच्छा लगता था और साथ ही मुझे किसी ने सिखा दिया था की हमेशा नहा के स्कूल जाना चाहिए| तो ठंडी पड़े, कुहरा पड़े, ओले पड़े लेकिन मैं रोज सुबह सुबह दुदहिया बाल्टी (बाल्टी जिदामे बब्बा दूध दुहते थे, ये बाल्टी बाकि बाल्टियों की अपेक्षा छोटी थी और चूँकि मैं भी बहुत छोटा था और बड़ी बाल्टी उठा नहीं पता था, इसलिए मैं हमेशा दुदहिया बाल्टी ही इस्तेमाल करता था) दालान के पास लगे सरकारी नल पर नहाने पहुँच जाता था| अब कायदे से नहाना तो मुझे आज तक नहीं आया तो बचपन में मैं तो क्या ही नहाता होऊंगा| आधा पानी मेरे ऊपर गिरता था, आधा नल के चबूतरे के पास लगे छोटे से नीम के पेड़ पर|
हर दिन की तरह आज भी जैसे ही जाड़े की गुगुनी धुप बढ़ी मैं नहा धो कर आ गया| सिर पर ढेर सारा सरसों का तेल चपोड़ा, और खाने के लिए बैठ गया| ठंडी के दिनों में अक्सर सबेरे खिचड़ी बनती थी| ठंडी का दिन हो और सुबह सुबह आलू मटर की खिचड़ी मिल जाये तो क्या कहने| और मैं तो जब तक दो-तीन चम्मच घी न डलवा लू खिचड़ी में तब तक हाथ भी नहीं लगता था| यादवों के घर में पैदा होने से ये एक फायदा तो हुआ था, बाकि किसी चीज की चाहे जितनी कमी हो लेकिन दूध दही घी की कमी कभी नहीं रही| मैंने खिचड़ी खायी और फिर बब्बा के पास जाकर बैठ गया| अब तक धूप भी अच्छे से निकल आई थी|
बब्बा मेरे दादा जी थे| बब्बा को घर में सभी लोग, चाहे वो बड़ा हो या छोटा, बब्बा ही कहते थे| मेरे पापा भी बब्बा को बब्बा कहते थे और मैं भी बब्बा को बब्बा कहते था| घर के बहार उनका दूसरा नाम था, सब उन्हें प्रधान कहके बुलाते थे| वो पहले १० साल तक गाँव के प्रधान रह चुके थे, और इसलिए उनका नाम प्रधान पद गया था, पूरा गाँव उन्हें प्रधान के नाम से ही जनता था| बस चिठ्ठी के ऊपर प्रधान लिख दो चिठ्ठी अपने आप हमारे ही घर पहुंचेगी, भले ही वो फिर वर्तमान प्रधान की ही क्यों न हो| बब्बा को मैंने हमेशा सफ़ेद धोती कुरते में देखा था और उनके साथ हमेशा एक बांस की चढ़ी रहती थी| शादी ब्याह में या किसी खास मौके पर बब्बा कुरते के ऊपर एक जैकेट भी पहनते थे और बांस की साधारण छड़ी की जगह शहर से मंगाई हुई एक महँगी छड़ी का इस्तेमाल करते थे| वैसे तो बब्बा घर पर हुक्का ही पीते थे लेकिन उनके साथ हमेशा बीडी का एक बंडल रहता था| पूर्व प्रधान होने की वजह से या किसी और वजह से ये तो मुझे पता नहीं, लेकिन बब्बा का पूरा गाँव बहुत सम्मान करता था|
स्कूल गाँव से काफ़ी दूरी पर था, इसलिए मैं अकेले नहीं जाता था, मेरे साथ मेरा पक्का दोस्त रमेश भी जाता था| रमेश मेरी ही उमर का था लेकिन मेरे विपरीत उसकी पढाई लिखाई में बिलकुल भी रूचि नहीं थी| लेकिन खेल कूद में उसका कोई सानी नहीं था| स्लेट रंगने के विभिन्न तरीकों से लेकर गाँव के बाहर पीपल और गूलर के पेड़ों पर विराजमान भूतों के बारे में उसको पूरा ज्ञान था, और ये ज्ञान वो मुझे मौका मिलने पर देता रहता था| साइकिल का टायर दौड़ने में वो हमारी बाल मंडली का चैंपियन था|
जैसे जैसे सूरज चढ़ा, बब्बा कि मंडली भी धीरे धीरे विसर्जित हो गयी और बब्बा भी खेत में जाने कि तैयारी करने लगे| मैं भी अपना झोला स्लेट लेकर रमेश के घर पहुँच गया| रमेश को स्कूल जाने के लिए किसी तैयारी कि जरूरत नहीं होती थी| वो जिस हाल में रहता था उसी हाल में अपना स्लेट लेकर स्कूल के लिए निकाल लेता था, वैसे भी पढाई उसे करनी नहीं होती थी| मैंने एक दो बार रमेश-रमेश आवाज़ दी और रमेश स्लेट लेकर हाजिर हो गया| हम दोनों हरे हरे मटर के खेतों में दो नन्हे खरगोशों कि भांति उछालते कूदते स्कूल के लिए निकाल दिए|
एक लोटा समंदर - भाग २
एक लोटा समंदर - भाग ३
जब मैं जगा तो गाँव के ५-६ बूढ़े पहले से ही बब्बा के पास पुआल पर आसान जमा के बैठे थे और हुक्के की गुड गुड के साथ सर्दी की सुबह वाली चाय का आनंद ले रहे थे| आज चर्चा का विषय ये था की चरखे पर किसके गन्ने की पेराइ होगी और किसका गुड बनेगा| गाँव में सभी लोग मिल बाँट कर काम करते हैं, तो एक ही चरखे पर बारी बारी से सब अपना गन्ना पेर लेते हैं| वैसे भी हमारे गाँव में सिर्फ घर के इस्तेमाल भर का ही गन्ना लोग उगाते थे इसलिए एक-दो दिन में ही एक खेत गन्ने की पेराई हो जाती थी|
खैर मुझे इन सब मामलों में कोई बहुत रूचि नहीं थी, वैसे भी ६ साल के बच्चे को इन सब मामलों में रूचि रहनी भी नहीं चाहिए| गाँव से कोई १ किलोमीटर की दूरी पर के एक स्कूल में मैं पढने जाता था| बाकि बच्चों के विपरीत मुझे स्कूल जाना बहुत अच्छा लगता था और साथ ही मुझे किसी ने सिखा दिया था की हमेशा नहा के स्कूल जाना चाहिए| तो ठंडी पड़े, कुहरा पड़े, ओले पड़े लेकिन मैं रोज सुबह सुबह दुदहिया बाल्टी (बाल्टी जिदामे बब्बा दूध दुहते थे, ये बाल्टी बाकि बाल्टियों की अपेक्षा छोटी थी और चूँकि मैं भी बहुत छोटा था और बड़ी बाल्टी उठा नहीं पता था, इसलिए मैं हमेशा दुदहिया बाल्टी ही इस्तेमाल करता था) दालान के पास लगे सरकारी नल पर नहाने पहुँच जाता था| अब कायदे से नहाना तो मुझे आज तक नहीं आया तो बचपन में मैं तो क्या ही नहाता होऊंगा| आधा पानी मेरे ऊपर गिरता था, आधा नल के चबूतरे के पास लगे छोटे से नीम के पेड़ पर|
हर दिन की तरह आज भी जैसे ही जाड़े की गुगुनी धुप बढ़ी मैं नहा धो कर आ गया| सिर पर ढेर सारा सरसों का तेल चपोड़ा, और खाने के लिए बैठ गया| ठंडी के दिनों में अक्सर सबेरे खिचड़ी बनती थी| ठंडी का दिन हो और सुबह सुबह आलू मटर की खिचड़ी मिल जाये तो क्या कहने| और मैं तो जब तक दो-तीन चम्मच घी न डलवा लू खिचड़ी में तब तक हाथ भी नहीं लगता था| यादवों के घर में पैदा होने से ये एक फायदा तो हुआ था, बाकि किसी चीज की चाहे जितनी कमी हो लेकिन दूध दही घी की कमी कभी नहीं रही| मैंने खिचड़ी खायी और फिर बब्बा के पास जाकर बैठ गया| अब तक धूप भी अच्छे से निकल आई थी|
बब्बा मेरे दादा जी थे| बब्बा को घर में सभी लोग, चाहे वो बड़ा हो या छोटा, बब्बा ही कहते थे| मेरे पापा भी बब्बा को बब्बा कहते थे और मैं भी बब्बा को बब्बा कहते था| घर के बहार उनका दूसरा नाम था, सब उन्हें प्रधान कहके बुलाते थे| वो पहले १० साल तक गाँव के प्रधान रह चुके थे, और इसलिए उनका नाम प्रधान पद गया था, पूरा गाँव उन्हें प्रधान के नाम से ही जनता था| बस चिठ्ठी के ऊपर प्रधान लिख दो चिठ्ठी अपने आप हमारे ही घर पहुंचेगी, भले ही वो फिर वर्तमान प्रधान की ही क्यों न हो| बब्बा को मैंने हमेशा सफ़ेद धोती कुरते में देखा था और उनके साथ हमेशा एक बांस की चढ़ी रहती थी| शादी ब्याह में या किसी खास मौके पर बब्बा कुरते के ऊपर एक जैकेट भी पहनते थे और बांस की साधारण छड़ी की जगह शहर से मंगाई हुई एक महँगी छड़ी का इस्तेमाल करते थे| वैसे तो बब्बा घर पर हुक्का ही पीते थे लेकिन उनके साथ हमेशा बीडी का एक बंडल रहता था| पूर्व प्रधान होने की वजह से या किसी और वजह से ये तो मुझे पता नहीं, लेकिन बब्बा का पूरा गाँव बहुत सम्मान करता था|
स्कूल गाँव से काफ़ी दूरी पर था, इसलिए मैं अकेले नहीं जाता था, मेरे साथ मेरा पक्का दोस्त रमेश भी जाता था| रमेश मेरी ही उमर का था लेकिन मेरे विपरीत उसकी पढाई लिखाई में बिलकुल भी रूचि नहीं थी| लेकिन खेल कूद में उसका कोई सानी नहीं था| स्लेट रंगने के विभिन्न तरीकों से लेकर गाँव के बाहर पीपल और गूलर के पेड़ों पर विराजमान भूतों के बारे में उसको पूरा ज्ञान था, और ये ज्ञान वो मुझे मौका मिलने पर देता रहता था| साइकिल का टायर दौड़ने में वो हमारी बाल मंडली का चैंपियन था|
जैसे जैसे सूरज चढ़ा, बब्बा कि मंडली भी धीरे धीरे विसर्जित हो गयी और बब्बा भी खेत में जाने कि तैयारी करने लगे| मैं भी अपना झोला स्लेट लेकर रमेश के घर पहुँच गया| रमेश को स्कूल जाने के लिए किसी तैयारी कि जरूरत नहीं होती थी| वो जिस हाल में रहता था उसी हाल में अपना स्लेट लेकर स्कूल के लिए निकाल लेता था, वैसे भी पढाई उसे करनी नहीं होती थी| मैंने एक दो बार रमेश-रमेश आवाज़ दी और रमेश स्लेट लेकर हाजिर हो गया| हम दोनों हरे हरे मटर के खेतों में दो नन्हे खरगोशों कि भांति उछालते कूदते स्कूल के लिए निकाल दिए|
एक लोटा समंदर - भाग २
एक लोटा समंदर - भाग ३