7/9/15

कैरम बोर्ड

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अगर आपने मेरी और कहानियां पढ़ी होंगी तो आपको पता होगा कि हमारी गर्मी की छुट्टियाँ गाँव में ही बीतती थी| जून का महीना जब ख़तम होने को होता था और मानसून की दो चार फुहारें जमीन को भिगोने लगती थी तो हम लोग अपना बोरिया बिस्तर बाँध के वापस गाँव से रवानगी लेते थे|

बचपन में गाँव से वापस आना हम लोगों को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था| एक तो छुट्टियाँ ख़तम होने का दुःख ऊपर से माई (दादी) और बब्बा (दादाजी) से बिछड़ने का गम| वापस आने पर कम से कम २-३ दिन तक तो हम तीनों भाई बहन गाँव की याद में आँसू बहाते रहते थे| फिर जब पापा हमें सांत्वना देते थे की माई और बब्बा हमसे मिलने जल्दी ही आयेंगे तो हम धीरे धीरे अपने पुराने रंग में वापस आते थे|

ऐसी ही गर्मी की छुट्टियाँ बिता कर हम एक बार वापस अपने फतेहपुर वाले घर में आये तो हमें पता लगा की कॉलोनी में कुछ नए लोग ट्रांसफर होके आये हैं| इनमे से एक थे कुशवाहा अंकल जिनकी अभी कुछ दिन पहले नयी नयी शादी हुई थी| कुशवाहा आंटी को आंटी बुलाओ तो वो मना करती थी और कहती थी की दीदी बुलाया करो| वैसे बाद में हम सभी बच्चों ने उन्हें खुद ही दीदी बुलाना शुरू कर दिया था क्यों की वो हम लोगों से दोस्तों सा ही व्यवहार करती थी| चाकलेट खानी हो या फ्री की कोका कोला पीनी हो, दीदी के घर में ये सब व्यवस्था रहती थी| हालाँकि हम सभी बच्चों ने बाद में उनके यहाँ जाना कम कर दिया था क्यों की उन्होंने दो काले रंग के बड़े बड़े डाबरमैन कुत्ते खरीद लिए थे जो हम बच्चों के बीच अपने कुत्तापे के लिए खासे बदनाम थे| 

उनके घर के बगल में आये थे विजय भैया और उनका परिवार| उनसे भी हम बच्चों की खासी दोस्ती हो गयी थी| इसका एक मुख्य कारण ये था कि वो भूतों की कहानियां सुनाने में माहिर थे | शाम को बिजली चली जाने पर हम सभी उनके घर इकठ्ठा होते थे और वो हम लोगों को कहानी सुनाया करते था| उनकी कहानियां शुरू तो बड़े खुशनुमा अंदाज में होती थी, लेकिन कहानी बढ़ने के साथ ही उसमे भूतों का आगमन होता था और ख़तम होते होते तक हमारी हालत ख़राब हो लेती थी| हालत तो ख़राब होती थी, लेकिन कहानियां सुनकर डरने में मजा भी बड़ा आता था| बिजली आने पर सबको अपने अपने घर जाना होता था तो बाहर सड़क पर अकेले निकलने में सबकी मौत आती थी| एक-दो-तीन बोलके सभी बच्चे एक सांस में भागते थे और अपने अपने घर जाकर ही रूकते थे मानो वाकई में कोई भूत उनका पीछा कर रहा है|

एक शाम मैं विजय भैया के यहाँ पहुंचा तो मंटू भैया और विवेक भैया पहले से ही वहां पर थे और उनके सामने बड़ा सा लकड़ी का एक बोर्ड रखा हुआ था| पता चला की ये कैरम बोर्ड है| कुछ ही देर में इस खेल ने  मुझे मंत्र मुग्ध कर दिया| आसन सा खेल था काले सफ़ेद रंग की गोटियाँ थी और उन्हें एक बड़ी गोटी जिसे स्ट्राइकर कहते थे, उसकी मदद से बोर्ड के कोने में बने चार छेदों में पिलाना होता था| काले रंग की गोटियों के ५ अंक और सफ़ेद रंग की गोटियों के १०| और कहीं लाल रंग की रानी पिला ली तो ५०, लेकिन उसके साथ एक कोई कवर भी पिलाना होता था | उनका एक खेल ख़तम हुआ तो मैंने भी खेलने के लिए कहा| वो पहले से तीन ही थे, उन्हें भी लगा होगा की ४ लोग होंगे तो खेल में ज्यादा मजा आएगा तो उन्होंने एक तरफ मुझे भी बैठा लिया| 

खेलना शुरू किया तो समझ आया की देखने में जितना आसान था खेलने में उतना आसान नहीं है| कितनी भी कोशिश करूं गोटी छेद के इर्द गिर्द जाके अटक जाती थी| इतनी खीझ लगती थी कि सब उठा के फेंक दूं| गर्मी का दिन था और मैं बाकी छोटे बच्चों की भांति हाफ पेंट पहनता था| पैर में पसीना आ रहा था और जैसे जैसे शाम हो रही थी वैसे वैसे मच्छरों ने पैरों के आस पास आतंक मचाना शुरू कर दिया था| नीचे पैर में मच्छर काट रहे हैं तो ऊपर गोटी पिलाने में ध्यान लगे तो कैसे| खैर खेल ख़तम होने से बस थोडा सा पहले मैंने एक काली गोटी पिलाई| ऐसा एहसास हुआ की मानों नोबल पुरस्कार जीत लिया हो| 

फिर क्या था, खेल में मजा आने लगा| थोड़ी देर में विवेक भैया और मंटू भैया अपने घरो में चले गए| विजय भैया भी उठना चाहते थे लेकिन मेरा मायूस चेहरा देख कर बेचारे मेरे साथ लगे रहे| अँधेरा होने पर बिजली गयी तो बाकी बच्चे आ गए| फिर मुझे पता लगा की हम ही निखट्टू रह गए थे, बाकी लोगों ने तो ये तिलिस्मी खेल मेरे से पहले ही सीख लिया था | फिर आज भूतों की कहानियां नहीं हुई, मैं कॉलोनी के बच्चों के साथ कैरम ही खेलता रहा| बिजली वापस आने पर जब सब चले गए तो कुछ देर तक तो मैं अकेले ही खुटर-पुटर करता रहा| 

घर आने पर चैन कहाँ, दिमाग में तो बस कैरम की काली सफ़ेद गोटियाँ घूम रही थी| सोचा की कितना बढ़िया खेल है, अगर बाहर बारिश हो रही है, या फिर सोचो की धूप है तो घर में खेलने के लिए कितना अच्छा खेल है| ताश हमारे घर में मना था, “चोर राजा मंत्री सिपाही”, या फिर “नाम जगह शहर” वगैरह खेल खेल के हम लोग बोर होने लगे थे| मुझे लूडो और सांप सीढ़ी कभी नहीं भाये क्यों की उसमे मुझे ऐसा लगता था कि सब भाग्य से होता है जो की मेरा कभी अच्छा नहीं रहा|  लेकिन कैरम ऐसा नहीं था| इसे खेलने के लिए कला चाहिए भाग्य नहीं| 

कैरम कॉलोनी में सिर्फ विजय भैया के यहाँ था| अब उनके यहाँ खेले भी तो कितना खेले, और फिर उनकी बोर्ड की परीक्षा भी थी इस साल| फिर धीरे धीरे जब ये खेल मेरे भाई को भी भा गया तो हमने फैसला किया की कैरम बोर्ड तो घर में होना ही चाहिए| कैरम बोर्ड कितने का मिलेगा ये तो हमें नहीं पता था लेकिन बाकि छोटे मोटे लूडो टाइप खेलों से कई गुना  महंगा होगा ये हमें पता था और ये भी की इसके लिए पिताजी को पटाना आसन काम नहीं होगा|

एक दिन शाम के समय अच्छे बचों की भांति हमने पढाई लिखाई करने के बाद चाय के समय अपने पिताजी से ये बाद जाहिर की| पापा ने तो पहले कुछ देर पुछा की भाई ये कैरम किस बला का नाम है | फिर बताने पर उन्होंने थोडा सोचा और कहा कि अगर इस बार के वार्षिक परीक्षा में मैं फर्स्ट आया तो परीक्षा ख़तम होने पर हमें कैरम बोर्ड दिला दिया जायेगा|

अब मेरे लिया कक्षा में फर्स्ट आना वैसे तो अभी तक  कोई बड़ी बात नहीं हुआ करती थी| लेकिन इसी साल आदित्य नाम के एक नए लड़के ने हमारे स्कूल में प्रवेश लिया था और उससे मेरी कांटे की टक्कर थी| और आदित्य का एडमिशन भी मेरे स्कूल में मेरी ही वजह से हुआ था| हुआ ये की आदित्य के पिताजी और मेरे पिताजी दोस्त थे और आदित्य के पुराने स्कूल से उसके पापा खुश नहीं थे| उसके पापा जब मुझसे मिले तो मेरी पढाई लिखाई से बहुत प्रभावित हुए, मैंने भी अपनी शेखी बघारने के लिए उन्हें २५ तक के पहाड़े आनन फानन में ही सुना दिए| फिर क्या था उन्होंने आदित्य का नाम भी मेरे स्कूल में लिखा दिया| यानि की कुल मिला के आप ये कह सकते हैं की मैंने अपने लिए कुआँ खुद ही खोदा|

खैर वार्षिक परीक्षा में बहुत दिन नहीं बचे थे| मैं परीक्षा की तैयारी में जी जान से जुट गया| सारे पाठ १०-१० बार पढ़े| पढने में ऐसा तल्लीन हुआ की बीच बीच में भूल जाता था कि मैं  इतना पढ़ क्यों रहा हूँ इस बार, लेकिन फिर जैसे ही याद आता था की ये कैरम के लिए है तो लाल लाल रानी मेरी आँखों के सामने घूमने लगाती थी और मैं दोबारा जोर शोर से जुट जाता था|

जैसे तैसे सारे एग्जाम ख़तम हुए| अंत में बस एक चित्रकला की परीक्षा बाकी थी| मैंने शाम को ही साड़ी का किनारा, सेब, आम, पपीता, कमल, गुलाब जैसे चित्रों को बना के अच्छी तैयारी कर ली थी| मैं पानी, कैमल का १५ रंगों वाला डब्बा ले के पहुँच गया| आम और साड़ी का किनारा बनाना था| मजे से दोनों चीजों बनायीं, रंगी और परीक्षा ख़तम की | 

मेरे सारे पेपर्स अच्छे हुए थे और मुझे लग रहा था कि फर्स्ट आने में मुझे कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए| उन दिनों परीक्षा की कॉपी जांचने के बाद एक दिन सब बच्चों को बुला के दिखाई जाती थी| उस दिन मेरा दिल तो रेलगाड़ी की गति से भाग रहा था| सुबह ब्रेड का एक टुकडा भी गले के नीचे नहीं उतरा| एक बार तो मन किया कि जाऊं ही नहीं और जो भी है शाम तक कोई न कोई दोस्त आके बता ही देगा| फिर लगा की नहीं जाके देख लेना चाहिए, मैं इंतजार तो वैसे भी नहीं कर पाऊँगा| 

गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान वगैरह की कॉपियां एक एक करके दिखाई जाने लगी और मैं आदित्य से बस थोडा आगे चल रहा था| आखिरी में जब चित्रकला का नंबर आया तो मैं ९ नंबर से आगे था| मुझे लगा की अब तो बस कैरम आई ही समझो, चित्रकला में मैं इतना भी ख़राब नहीं था और आम तो क्या ही मस्त बनाया था मैंने | लेकिन ये क्या, चित्रकला में मुझे ५० में से सिर्फ ३० नंबर मिले और आदित्य को ४०| मेरे तो होश ही फाख्ता हो गए| ये कैसे हो गया, मेरे आम को २५ में सिर्फ ७ नंबर| मुझे समझ नहीं आया| मैंने आदित्य से उसकी कॉपी दिखाने को कहा, पहले तो उसने मना किया लेकिन फिर मेरे मिन्नतें करने के बाद मान गया, उसका आम मेरे आम से ख़राब ही था, बेहतर तो किसी हाल में नहीं कह सकते|

मैं कॉपी लेके रामबाबू आचार्य जी के पास पहुँच गया, वो मुझे बहुत मानते थे| मैंने उनसे पूछा कि आम को इतने कम नंबर क्यों मिले तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा - “कैसे बनाया आम, राहुल”| मुझे समझ नहीं आया| फिर उन्होंने बोला - “रंग घोलने वाले आम से चित्र बनाया न तुमने?”

असल में उन दिनों रंग घोलने के लिए आम के आकर का एक छोटा प्लास्टिक का बर्तन आता था, उसमें रंग रखने और घोलने के लिए कई खांचे बने रहते थे| कई लड़कों के पास था और लड़के आम की रूपरेखा उसी से खींच लेते थे आचार्य जी को लगा की मैंने भी वही किया है| मैंने उनसे विनती करी कि नहीं मैंने खुद से बनाया है| उन्होंने एक लड़के से रंग घोलने वाला आम का बर्तन मंगाया और उसे मेरे चित्र के ऊपर रखा| मुझे अपनी आँखों पे भरोसा नहीं हुआ, एकदम लाइन के ऊपर लाइन, ये एक मात्र संयोग था लेकिन आचर्य जी को मैं समझा नहीं पाया| उन्होंने पुचकारते हुए कहा की आगे से खुद से बनाया करो और मुझे भगा गिया| अब मैं उन्हें कैसे समझाता की ये सब तो अनजाने में ऐसा हो गया|

अब कुछ नहीं हो सकता था| मेरी आँखों में आंसूं आ गए| दिल भारी भारी हो गया, समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ| स्कूल में सभी टीचर मुझे अच्छा बच्चा मानते थे और ख़ास तौर से रामबाबू आचार्य जी जो की मेरे क्लास टीचर भी थे, और मुझ पर ऐसा इलज़ाम मुझे बहुत खटक रहा था| फिर याद आया की अब तो कैरम भी हाथ से गया| और रोना आया| खैर मरता क्या न करता, भारी मन से घर के लिए निकला| 

घर पहुंचा तो क्या देखता हूँ कि मेरे घर भीड़ लगी हुई  है| कॉलोनी के सभी बचे झुण्ड लगा के आगे के कमरे में किसी चीज के इर्द गिर्द बैठे है| भीड़ में घुस के देखा तो मेरी आँखों को विश्वास नहीं हुआ| लकड़ी का एक बड़ा सा एकदम नया कैरम| मेरा भाई रोहित गोटियों और स्ट्राइकर वाला पैकेट खोल ही रहा था| मैंने रोहित से पुछा कि किसका है तो उसने बड़े भाव से कहा- “अपना ही है”| पापा जी बगल में ही बैठे थे, मैंने उनकी और देखा तो उन्होंने बस इतना कहा -”रामबाबू जी मिले थे, बोल रहे थे की अच्छी अंक प्राप्त किये हैं तुम लोगों ने इस साल"| फिर तो मेरी आँखों में फिर से आंसूं आ गए, इस बार ख़ुशी के| पिताजी ने तो पहले से ही कैरम खरीदने का सोच करके रखा था|

कैरम बहुत बढ़िया था, उसकी गोटियाँ प्लास्टिक की थी और लकड़ी की गोटियों के मुकाबले ज्यादा चमकदार थी| दो स्ट्राइकर थे जिनमे फूल पत्ती वाली डिजाईन भी बनी हुई थी| छेदों के नीचे जालीदार कपड़ा लगा हुआ था ताकि गोटियाँ नीचे न गिरें| पाउडर के लिए तुरंत पोंड्स की बड़ी बोतल लायी गयी और हमने उस दिन देर रात तक कैरम खेला| छुट्टी तो हो  ही गयी थी|

अब दिक्कत ये होती थी की हम तीन भाई बहन थे, और जो बीच में बैठता था उसे बिना वजह फायदा हो जाता था| इस समस्या से निपटने के लिए हमने मम्मी को कैरम सिखाया| और कुछ ही दिनों में मम्मी ने ऐसा सीखा की वो अब हम सबको टक्कर देने लगी थी| छुट्टी में खूब कैरम चलता था| हमने  कैरम के  कुछ एक नए खेल भी सीखे, मसलन इलाके वाला कैरम जिसमे आप कैरम के छेद, और बोर्ड पर के विभिन्न भाग इत्यादि गोटियाँ बीच में रख कर खरीद सकते थे| फिर आपके ख़रीदे इलाके पर कोई भी गोटी आये तो वो गोटी आपकी| इलाके के खेल में मम्मी को पछाड़ना मुश्किल था|

आने वाले सालों में हमारे घर में और भी बोर्ड गेम्स जैसे शतरंज इत्यादि आये लेकिन कैरम की महत्ता नहीं घटी |धीरे धीरे उसका रंग उतरने लगा और बोर्ड भी खुरदुरा  सा होने लगा था, लेकिन अब भी पोंड्स का कमाल था की मजे से खेल सकते थे| जब हम सभी भाई बहन घर से निकल गए तो कैरम बोर्ड हमने अपने भतीजों को दे दिया| 

अमेरिका में आने के बाद सालों बाद फिर से एक दिन कैरम खेलने का मौका मिला, लेकिन शायद गोटियाँ पिलाने की वो कला अब मैं भूल गया था, गोटियाँ फिर से छेद के इर्द गिर्द जाके रह जाती थी| ये तो नहीं पता कि आजकल के बच्चे मोबाइल गेम और विडियो गेम के ज़माने में कितना कैरम खेलते हैं लेकिन जो क्रेज कैरम को लेके हमारे बचपन में था वैसा क्रेज होना अब मुश्किल है|

4/14/15

केश कर्तनालय

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हालाँकि ऐसी चीजों की संख्या बहुत कम है, लेकिन कुछ चीजों से मुझे जीवन पर्यंत नफरत रही है | और ऐसी ही चीजों में से एक है बाल कटाना| फिर चाहे वो मुरलीधर चाचा की जंग लगी कैची से छंदूदर कट हो या फिर रोजी के कोमल हाथों से “lacope froce de hair” कट  हो, आज भी बाल कटाने के नाम पर खीझ जाता हूँ| ऐसा लगता है की किसी शाशक के गुलाम हैं, वो जो भी कहता है करना पड़ता है, मुंडी इधर करो उधर करो, नीचे टिका के बैठे  रहो, मन कहता है कि बोल दूं - चाचा उस्तरा उतार ही दो गर्दन पर ये झंझट तो ख़तम हो कम से कम |


गाँव में हमें बाल कटाने के लिए नाई की दुकान पर नहीं जाना होता था, बल्कि  नाई खुद ही हमारे घर आता था| मुरलीधर चाचा महीने में एक दिन अपना साजो सामान लेके आते थे और जब आते थे तो बड़े इत्मीनान से आते थे पूरे दिन के लिए| सबेरे सबेरे हमारे जागने के पहले ही उपस्थित हो जाते थे, और उन्हें देखते ही घर के सभी  बच्चे चूजों की भांति इधर उधर तितर बितर हो जाते थे, संयुक्त परिवार था तो घर  में बच्चों की संख्या भी कम नहीं थी|


कुए पर ही मुरलीधर चाचा नहाते थे और फिर खाना पीना खाकर अपनी दुकान सजाते थे| दो कैंचियाँ जिन पर जंग की थोड़ी झलक आने लगी थी, एक छोटा शीशा, दो-तीन उस्तरे,साबुन, फिटकरी और पानी रखने का एक कटोरा | कुछ सालों के बाद इस पोटली में एक झाग वाले क्रीम और पाउडर की भी भर्ती हो गयी थी  सब साजों समान फिट करने के बाद बाल कटाई का कार्यक्रम चालू होता था फिर आपके बाल चाहे छोटे हो या बड़े, इससे कोई मतलब नहीं, घर के सभी बच्चों को ढूँढ ढूँढ कर बाल कटाए जाते थे| अंत में सबके बाल कट जाने के बाद बब्बा अपनी दाढ़ी बनवाते थे और बाल कटवाते थे और एक दो सेर गेहूं या चावल देके मुरलीधर चाचा की विदाई  करते थे| मुरलीधर चाचा हमारे घर की शादी बारात में भी आते थे कुछ रस्में अदा करने जो की एक नाई ही करता है, लेकिन मैं उनसे हमेशा दूरी बनाये रखता था की कहीं अभी कैंची उस्तरा निकाल के कटाई न चालू कर दे|


फतेहपुर में आने के बाद बाल कब कटने है और कैसे कटने हैं  इसका फैसला हमारे पिताजी लिया करते थे| बाल बढ़ के कान पर आये नहीं कि “घसियारा" “जंगली" “भूत” जैसे शब्दों से पहले तो कुछ दिन अभिनन्दन होता था और फिर पिताजी मुझे और मेरे भाई को लेके जुम्मन चाचा की दुकान पर पहुँच जाते थे |


गाँव से नया नया आने पर उनके “मॉडर्न केश कर्तनालय एवं सज्जा" नामक सलून ने मुझे बहुत प्रभावित किया| दीवार पर तीन ओर शीशे लगे थे, और हीरो हीरोइंस की भिन्न भिन्न मुद्राओं में तस्वीरें दीवार पर चिपकी थी| मोहम्मद अजहरूदीन के पोस्टर वाला एक कैलंडर टेंगा हुआ हा | दो तीन तरह के अख़बार पड़े रहते थे और कोने में ऊपर की तरफ एक छोटी से टीवी भी राखी हुई थी| फिर इनके साथ भिन्न भिन्न प्रकार की  कैंचियाँ, उस्तरे, क्रीम और न जाने क्या क्या| और इन सब के साथ थी गोल घूमने वाली गद्दीदार कुर्सियां, जो की महँगी होने के साथ साथ ही कानपुर से मंगाई गयी थी| हम  जितनी बार बाल कटाने गए, उतनी बार पिताजी को उन  महँगी कुर्सियों की खरीद की कहानी जुम्मन चाचा से सुनने को मिलती थी| लेकिन हमारा दुर्भाग्य ये की हम कभी उन गद्दीदार कुर्सियों पर बैठ नहीं पाए, क्यों की बच्चों के बाल काटने के लिए कुर्सी पर ही एक लकड़ी का  पटारा लगा दिया जाता था और बच्चों को उस पर बिठा दिया जाता था |


लेकिन इन सब सुविधाओ के कारण जुम्मन चाचा की दुकान पर हमेशा भीड़ रहती थी| और कुछ चेहरे तो हमेशा ही उस भीड़ का हिस्सा रहते थे| उन्हें बाल नहीं कटाना होता तो भी वो टाइम पास करने के लिए जुम्मन चाचा की दुकान पर हाजिरी लगाने आ जाते थे| क्रिकेट में सचिन की बल्लेबाजी के किस्से हो की फिल्मों में धरमेंदर के बेटे  सनी देओल की दिलेरी के किस्से| इन सब से जी न भरे तो कांग्रेस की विदेश नीति पर चर्चा ही सही| बैठे बैठे ही जुम्मन चाचा की दुकान पर पूरे देश का बजट  बन जाता था|


खुद से बाल कटाने की छूट मुझे पहली बार आठवीं कक्षा में मिली| कह नहीं सकता की मुझे इस बात से ख़ुशी हुई थी या नहीं, लेकिन हाँ एक अलग तरह की स्वतंत्रता का अनुभव जरूर हुआ| लेकिन पिताजी के साथ न जाने का एक नुकसान ये हुआ की अब मुझे बहुत देर तक लाइन में बैठना पड़ता था| और इसकी वजह से न जाने ही कितनी बार मेरा फेवरिट प्रोग्राम कैप्टन व्योम छूटा था| और प्रतापगढ़ में हमें जो नाइ की दुकान मिली उसके रंग अलग ही थे| दूकान के बिल्कुल सामने एक नाला हुआ करता था| दूकान में भी दीवारों पर सीलन हुआ करती थी और इन सब की वजह से मच्छरों का पूरा झुण्ड दुकान में स्वछंद सार्टी किया करता था| गलती से हाफ  पेंट पहनकर बाल कटाने चले गए तो फिर तो पूछिए ही मत|


और रामलाल चाचा भी ये नहीं की बाल काटें| बाल काटते काटते बीच में ही रूक के न जाने कहाँ कहाँ की कहानिया सुनाने लगते थे बाकि बैठे लोगों को| बाबा आदम के ज़माने का एक पंखा लगा हुआ था, जिसे देख के ऐसा लगता था की चट से अब गिरा की तब गिरा| गर्मी में पसीना आये जा रहा है, बाल काटने से चुनचुनाहट हो रही है| माचर काटे जा रहा है, तिलमिलाहट अलग हो रही है लेकिन सर हिला नहीं सकते की उस्तरा लगा हुआ है| हाथ में पैर में गर्दन पर न जाने कहाँ कहाँ से मच्छरों ने सुई चुभोई हुई होती थी|  लकिन रामलाल जी की कहानी नहीं थमती थी| चाचा के लड़की की शादी में बन्दूक चल गयी, पडोसी के भैंस मेरा खेत चर गयी,  हमारा भाई बम्बई में हीरो बनाने गया है, चकबंदी ऑफिस में पागल कुत्ता घुस गया था, और न जाने  क्या क्या| मन करता था बोल दूं की चाचा ऐसा करो पहले उस्तरा हमारी गर्दन पे उतार दो फिर बैठ के आराम से देश विदेश की कहानियाँ सुनाओ| बाल काटने के बाद जब पाउडर लगा के रामलाल जी बोलते थे की भाई राहुल चलो बाल कट गए, तो ऐसा लगता था मानों सालों काले पानी की सजा काटने के बाद आज जेल से छुट्टी हुई है| ठंडी हो चाहे गर्मी, नहाने में उस दिन जो आनंद आता था उसे  शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है|


जब तक मैं कालेज में नहीं गया तब तक मेरी न तो हेयर स्टाइल में कोई बदलाव  आया और न ही बाल कटाई के पैसो में|  कैसे काटने हैं? इस सवाल का एक ही जवाब होता था, छोटे छोटे कर दो| मुझे लगता था की जितने छोटे रहेंगे उतना ही अच्छा है, संभालना नहीं पड़ेगा| और इन सब के लगते थे ज्यादा से ज्यादा १० रूपये कभी  रोड साइड खुले में सिर्फ कुर्सी शीशे सेशे वाली दुकान पे कटा लिया तो ५ रूपये में ही काम चल जाये|


कालेज में भी पहला सेमेस्टर तो छोटे बालों में ही बीता, हमारे परम पूज्यनीय आदरणीय सीनियर्स ने बाल बढ़ने ही नहीं दिए| फ्रेशेर्स के बाद जब बाल कटाने की नौबत आई तो लड़कों ने सिविल लाइन्स में स्थित  R K मेंस पार्लर ढूँढ निकला| पहली बार मैंने २५ रूपये की बाल कटाई देखी| बाल कटाई भी क्या, नाई ने कैची बस बालों को दिखा दिखा के हटा ली| वहां का एक नाई सुनील बड़ा ही फैशनी था, उसके अनुसार उसने दुबई में बाल काटने की कला सीखी थी | अगर उसे नाई बोलो तो बड़ा गुस्सा करता था, वो अपने आपको हेयर स्टाइलिशट या फिर कम से कम बार्बर कहलाना पसंद करता था|


झटका तो मुझे तब लगा जब मैं पढाई करने अमरीका आया| मैं तो भारत से ही बाल एकदम छोटे छोटे करा के गया था की जल्दी कटाने न पड़े| एकदिन मेरा एक दोस्त बल कटा के आया, मैंने पूछा की कितने लगे तो उसने बोला टिप के साथ २०$| मैंने मन ही मन गुणा भाग किया,२०$ यानि की १००० रूपये|  मतलब की जिंदगी भर की बाल कटाई में जितने पैसे नहीं लगे उतने तो यहाँ एक ही बार में लग जाने हैं| और टिप ? बाल कटाने में टिप कैसा ! ऊपर से बाल कटाने जाओ तो इतने सवालों से स्वागत होता है की लगता है नकारी के लिए इंटरव्यू देने आये हैं| क्लिपर लगाना है की नहीं, लगाना है तो कितने नंबर का, शैम्पू करना है क्या, और न जाने क्या क्या   मेरे बाल भी बहुत बढे हुए थे, लेकिन मैंने तुरंत बाल कटाने का प्रोग्राम पोस्टपोन किया| २०$ की कहानी अपने भाई को बताई तो उसने बाल कटाई को ही बाकी चीजों के मूल्य का पैमाना बना लिया| भाई मोबाइल कितने का है ? ५००$ का ? यानि की सिर्फ २५ बाल कटाई, बड़ा सस्ता है फिर तो !


सेमेस्टर बीतता रहा और बाल बढ़ते रहे| लेकिन जाब बाल इतने बढ़ गए की घर वालों के साथ वीडियो चैट में  कम से कम आधे घंटे मुझे मेरे बालों पर व्याख्यान दिया जाता था, तो मुझे बाल कटाने जाना ही पड़ा| हेयर स्टाइलिशट ने इंटरव्यू लेना चालू किया की कैसे काटने हैं तो मैंने सिर्फ इतना कहा की मैडम कैसे भी कर के बस छोटे छोटे कर दो ताकि वापस न आना पड़े कई महीने| फिर क्या रोजी ने अपने कोमल हाथों से क्लिपर लेके २ मिनट के अन्दर मेरे बालों की चार महीने की खेती धराशायी कर दी| ऐसा लगा मानों सर से ३-४ किलों का वजन कम हो गया है|

खैर अभी तो बहुत जिंदगी बाकी है, और बाल तो बढ़ते ही रहेंगे और ऐसी कहानियाँ भी बनती ही रहेंगी | और मेरा आपसे वादा है की मैं वो कहानियाँ सुनाता रहूँगा |



12/26/14

आओ ना




आओ ना
जरा पास आओ ना
दो प्याली चाय बनाते हैं,
थोडा अदरक और ज्यादा इलायची डालेंगे
एक तुम पीना एक मैं पीता हूँ
फिर बैठ करेंगे ढेरों बातें
कुछ मैं अपनी बताता हूँ
कुछ तुम अपनी सुनाओ ना
जरा पास आओ ना
याद है तुम जान बूझ कर चीनी कम कर देती थी
शिकायत पर कैसा गुस्सा होने का नाटक करती थी
फिर चखने के बहाने मेरी चाय जूठी कर देती थी
मैं कहता तुम्हारे होंठ छूकर अब मीठी हो गयी है
तो कैसे खिलखिला के हँसती थी
फिर वैसे ही मुस्कुराओ ना
जरा पास आओ ना
गुलाब का एक फूल तुमने टूटी बाल्टी में लगाया था
बालकनी में घंटो बैठ कर निहारा करती थी उसे
याद तो होगा उसे एक दिन बन्दर नोच गया था
तुम कैसे तकिये में घंटों सर छिपा के रोई थी
तुम्हे देख मुझे भी रोना आ गया था
फिर वैसे ही रुलाओ ना
जरा पास आओ ना
याद है जिद करी थी तुमने एक दिन कुछ पकाने की
फिर गैस खुला छोड़ सब धुआं धुआं कर दिया था
पैर पे पैर रखे उँगलियों में उंगलियाँ फंसाए खड़ी थी
धीरे से मैंने तुम्हारे गाल पर प्यार भरी चपत मारी थी
फिर हम दोनों ने जला खाना ही खाया था उस दिन
फिर वैसा कुछ खिलाओ ना
जरा पास आओ ना


गर्मी में लाल हरा बरफ का गोला खाना पसंद था तुम्हे
एक बरफ का गोला तुमने मेरी सफ़ेद शर्ट पर गिराया था
फिर दाग धोते धोते उसकी एक बटन टूट गयी थी
वो मेरी पसंदीदा शर्ट थी, मैं बहुत गुस्सा हुआ था तुम पर
मेरे गुस्से पर भी तुमने प्यार जता शर्ट की बटन टांक दी थी
फिर वैसा प्यार जताओ ना
जरा पास आओ ना
पड़ोस वाले फ्लैट की आंटी से तुम कितना चिढ़ती थी
उनका कुत्ता घुस आया था एक दिन घर में
बालकनी में उसे छिपा कैसा दुखी होने का ढोंग किया था तुमने
लेकिन फिर उनके घर छोड़ जाने पर बहुत दुखी हुई थी तुम
मेरे कंधे पर सर रख डबडबाती आँखों से शाम बितायी थी तुमने
फिर वैसी एक शाम बिताओ ना
जरा पास आओ ना


याद है अचानक बिजली चली गयी थी एक दिन
हम छत पर चटाई लेकर चले गए थे चाँद देखने
तारे निहारते हमारी आँखे चार हुई थी
मेरे होठ तुम्हारी ओर बढे थे
शरमाकर तुमने उँगलियों से उन्हें सी दिया था
फिर वैसे शरमाओ ना
जरा पास आओ ना
तुम जो कुछ कहते रूक गयी थी एक दिन
टेबल का किनारा पकड़ सर नीचे कर के रोने लगी थी
मैं बेवकूफों सा असमंजस में खड़ा था
फिर वो बात अधूरी ही छूट गयी थी
वो बात अब भी अधूरी ही है
क्या बात थी बताओ ना
जरा पास आओ ना

आओ ना
जरा पास आओ ना

6/18/14

एक खाऊँ दो खाऊँ तीन खाऊँ चारों

ये एक बाल कहानी है, जिसे मेरे पिताजी ने बचपन में हमें न जाने कितनी बार सुनाई है| इस कहानी से कुछ शिक्षा मिलती है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन इस कहानी में वो सब कुछ था जिसकी तलाश एक बच्चे को होती है| अब जैसा की मैंने कहा ये एक बाल कहानी है तो कृपया इस कहानी को बाल मन से पढ़ने की कोशिश करें|

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तो भाई ऐसे ऐसे करके कई दिन पहले किसी गाँव में एक ब्राह्मण हुआ करता था| उसके पिता गाँव के पण्डित थे और पूजा पाठ का काम किया करते थे| लेकिन न तो पोथी पत्री उसके पल्ले पड़ी और न ही मन्त्रों से उसकी मित्रता हो पाई और फिर पिता की मृत्यु के बाद उसे गरीबी ने घेर लिया| जब ब्राह्मण देव की शादी हुई तो उन्हें लगा की अब ऐसे तो जीवन निर्वाह होने से रहा| हालत गिरती गयी और जब खाने पीने के भी लाले पड़ गए तो उन्होंने अपनी पत्नी से सलाह मशवरा करके फैसला किया कि शहर जाकर कुछ कमाई की जाये|

अब शहर बहुत दूर था तो पंडित जी ने शाम को ही सब सामान तैयार किया और अपनी पोटली बना ली| तडके सुबह उठकर नहाये धोये| पत्नी ने एक गठ्ठर में थोडा सत्तू बाँध दिया और उसके साथ ही एक खोइंचा बना के रख दिया| खोइंचा एक बहुत मोटी रोटी होती है जिसमे लहसुन, नमक, मिर्च इत्यादि पहले से ही पड़ा रहता है, इसलिए खोइंचा आप यूँ की बिना किसी सालन के खा सकते हैं| खैर सब तैयारी करके पंडित जी घर से निकल लिए|

चलते चलते सुबह बीती और फिर धूप बढ़ी तो पंडित जी ने अपना गमछा निकल कर सर पर रख लिया| लेकिन फिर भी कुछ राहत नहीं मिली| पसीने के वजह से शरीर से पानी भी निकल रहा था और बहुत जल्द ही पंडित जी को प्यास लगने लगी| अब घर से तो पानी लेके चले नहीं थे पंडित जी और फिर बीच में कहीं कुएं इत्यादि पर रूक के कुछ जलपान भी नहीं किया था तो उनकी हालत जो है वो ख़राब होने लगी|

फिर कुछ दूर जाकर उन्हें आम के पेड़ों का एक बाग़ दिखा, पंडित जी ने सोचा की चलो पानी न सही, थोडा देर अमराई की छाया में आराम कर लिया जाये फिर आगे जाके पानी ढूँढेंगे| लेकिन पंडित जी की शायद किस्मत तेज़ थी, बाग़ में पहुंचे तो देखा की बाग़ में ही एक कुआँ भी है, पंडित जी फूले नहीं समाये| फटाफट अपने रस्सी और लोटे से पानी निकल कर पिया | गला थोडा तर हुआ तो जान में जान आई| पंडित जी ने सोचा की अब न जाने कितनी दूर पर पानी मिले, तो क्यों न यही कुछ जलपान भी कर लिया जाये|

कुएं के चबूतरे पर पंडित जी ने पोटली खोल के देखा की पंडिताइन ने क्या रखा है खाने के लिए| सत्तू पंडित जी को कुछ खास पसंद नहीं था तो उनका दिल खोइंचे पर आया| लेकिन खोइंचा देख कर पंडित जी दुविधा में पड़ द गए, खोइंचा काफी बड़ा और मोटा था, और पंडित जी को अभी इतनी भूख भी नहीं लगी थी | फिर पंडित जी को लगा की अभी न जाने कितना समय लगे शहर पहुँचने में और न जाने खाने का क्या इन्तेजाम हो पायेगा| इसी उधेड़ बन में उन्होंने खोइंचे के चार तुकडे किये और अपने से ही बोलने लगे “एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों |”

उसी कुएं में चार भूत भी रहते थे| वो भी मजे से शायद सो रहे थे की उन्होंने पंडित जी की आवाज सुनी - “एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों” भूतों ने ये सुना तो उनकी हालत ख़राब हो गयी| उन्हें लगा की पंडित को पता लग गया है की कुएं में चार भूत रहते हैं और वो रहे हैं की कितने भूतों को खाया जाये| चारों भूत डर गए और आपस में सलाह मशवरा करने लगे की अब इस विकट समस्या का समाधान कैसे हो| बहुत सोच विचार करके उन्होंने फैसला किया की सीधे जाकर ब्राह्मण देवता से बात करनी चाहिए और जान छोड़ देने की विनती करनी चाहिए|

चारों भूत बाहर निकले और पंडित जी के सामने हाथ जोड़ के खड़े हो गए | पंडित जी ने अपने सामने चार भूत देखे तो उनकी घिग्घी बंध गयी, लगा की अब ये विपत्ति कहाँ से आ गयी| लेकिन एक भूत ने विनती भरे स्वर में कहा - “हे विप्र देव| आपकी महिमा अपरम्पार है, आप की मंत्र शक्ति से कौन नहीं डरता है| लेकिन आप हम भूतों को क्यों खाना चाहते हैं| हमसे ऐसी क्या भूल हो गयी है ब्राह्मण देवता |”

पंडित जी ने भूत के ये शब्द सुने तो उन्हें तुरंत सब माजरा समझ आ गया| उन्हें लगा की इस मौके का फायदा उठाना चाहिए | तुरंत गमछे से खोइंचे को ढकते हुए कहा - “तुम भूतों ने बहुत आतंक मचा रखा है, तुम्हारे डर से न तो कोई इस बाग़ में आम खाने आता है न ही पानी पीने| और फिर मुझे भूख भी बहुत लगी है | आज मैं तुम लोगों को खा के तुम्हरे इस आतंक का अंत कर दूंगा|”

ब्राह्मण के ऐसे कठोर शब्द सुने तो भूतों के होश फाख्ता हो गए| पंडित जी का अभिनय रंग लाया था | अब क्या किया जाये, विप्र देव तो बहुत ही गुस्से में लग रहे थे| एक भूत ने किसी तरह अपने को संयत करते हुए कहा -” विप्र देव आप हमारी जान बख्श दे | हम गाँव के किसी भी व्यक्ति को परेशान नहीं करते हैं| और जहाँ तक आपकी भूख का सवाल है तो उसका हल हमारे पास है|”

“क्या हल है ” पंडित जी ने कुतूहल वश पुछा| बाकि तीन भूत भी उसकी ओर आशा भरी नज़रों से देखने लगे की भाई ने ऐसा क्या प्लान बनाया है |

“इम भीम क्डीम” करके एक भूत ने मंत्रोच्चारण किया और तुरंत एक चाँदी की कड़ाही प्रकट हो गयी| पंडित जी तो देख के दंग रहे गए| कड़ाही पंडित जी को देते हुए भूत ने फिर कहा - “ हे विप्र देव| ये लीजिये चमत्कारी कड़ाही, जब भी आप को भूख लगे आप बस अपने मन पसंद व्यंजन का विचार मन ही मन आँख बंद करके करे और आँख खोलते ही कड़ाही वो व्यंजन आपके सामने प्रस्तुत कर देगी|”

पंडित जी को लगा की ये तो भाग्य ही खुल गए| बैठे बैठे ही खाने की समस्या का जिंदगी भर के लिए समाधान हो गया, वैसे भी पंडित जी  को खाने के सिवाय और चाहिए भी क्या| पंडितजी ने तुरंत कड़ाही लेते हुए बनावटी गुस्से से कहा “ठीक है ठीक है| हम तुम्हारी कड़ाही से प्रसन्न हुए, इसलिए तुम्हारी जान बख्शते हैं|” भूतों ने सुना तो खुश हो गए| कड़ाही देकर पंडित जी को विदा किया और वापस कुएं के अन्तः तल में विलीन हो गए |

अब पण्डित जी कहानी लेकर ख़ुशी ख़ुशी वापस चले अपने घर की ओर| लेकिन शायद रास्ता भटक गए और रात होने तक भी आधी ही दूरी तय कर पाए| अँधेरा हो गया था, रास्ते में  एक घर दिखाई दिया, पंडित जी ने सोचा की क्यू न रात भर के लिए ठहराने का आग्रह किया जाये|

पंडित जी ने दरवाजा खटखटा कर पूछा तो पता चला की घर का स्वामी तेल का व्यापारी था, और उसने एक ब्राह्मण को अपने द्वार पर देखा तो बहुत खुश हुआ और ख़ुशी ख़ुशी पंडित जी को रात भर ठहराने के लिए हामी भर दी| थोड़ा जलपान करने के बाद व्यापारी ने अपनी पत्नी से पंडित जी के लिए भोजन बनाने को कहा तो पंडित जी को कड़ाही याद आ गयी| तुरंत उन्हें रोकते हुए कहा की कहाँ परेशान परेशां होते हैं और अपनी जादूई कड़ाही निकाली|

फिर तो क्या था, पण्डित जी ने देखते ही देखते हलवा पूरी, मटर पनीर की सब्जी, कटहल की तरकारी, खीर, सेवई, मिठाई, रायता और न जाने क्या क्या सब सामने परोस दिया| ऐसी चमत्कारी कड़ाही देख के व्यापारी का तो मन ही डोल गया| सभी ने जम कर भोजन किया और सोने चले गए|

लेकिन व्यापारी को अब नींद कहाँ, उसके सामने अभी भी चमत्कारी कड़ाही ही घूम रही थी| ऐसी कड़ाही मिल जाये तो क्या कहने एक ढाबा खोल लूँ, बिना कुछ किये हजारों का धंधा तो ऐसे ही हो जाये| व्यापारी के मन में चोर घुसा गया| अपनी पत्नी को जगा कर मन की बात बताई, उसे भी ये बात जँच गयी| अपने रसोई से वो वैसी ही दिखने वाली एक कड़ाही लेकर आई, और व्यापारी ने जाकर पंडित जी की कड़ाही बदल दी |

सबेरा हुआ, पंडित जी ने व्यापारी से विदा ली और नकली कड़ाही लेकर घर की ओर निकल लिए| मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे की पंडिताइन देखेगी तो कितना खुश होगी| जल्दी जल्दी कदम बढाकर दोपहर के खाने से पहले घर पहुँच गए| पंडिताइन ने पंडित को आते हुए देखा तो पहले तो बहुत नाराज हुई, कहा की अभी कल तो गए थे इतनी जल्दी मुहं उठा के चले आये, कमाने गए थे की सैर करने?  मैंने तो खाना भी नहीं बनाया आज| लेकिन पंडित जी ने कड़ाही निकलते हुए कहा “अरे पंडिताइन गुस्सा क्यू होती हो, थूक दो गुस्सा और खाने की तो तुम परेशानी लो ही नहीं| आज मैं जो चीज लाया हूँ की तुम जिंदगी भर मेरे चरण धो के पियोगी| तुम्हारा दिल खुश कर देंगे| अभी देखो तुमहरा मनपसंद हलवा तैयार करते हैं|”

पंडिताइन को लगा की पण्डित पगला गया है लेकिन फिर भी वो कुछ न बोली और कड़ी रही| पंडित जी ने कड़ाही निकाली और आँख बंद करके पंडिताइन का मनपसंद गाजर का हलवा मन में सोचा और आँखे खोली| लकिन ये क्या कड़ाही तो वैसी की वैसी ही रही, कुछ बने भी कैसे कड़ाही तो व्यापारी ने बदल दी थी| कई बार प्रयत्न किया लेकिन ढाक के वही तीन पात, कुछ नहीं हुआ| पंडिताइन ने उपहास करते हुए कहा कहा - “वाह क्या हलवा था, भाई मेरा तो मन भर गया, थोडा तुम भी खा लो" और रसोई में चली गयी|

पंडित जी को समझ नहीं आ रहा था की आखिर क्या हो गया, व्यापारी ने काफी आवभगत करी थी इसलिए उन्हें उस पर शक नहीं हुआ| उन्हें लगा की भूतों ने ही घटिया क्वालिटी की कड़ाही दी होगी, लेकिन अब ये कहानी पत्नी को बताते तो और मजाक बनता इसलिए उन्होंने चुप्पी रखने में ही अपनी समझदारी समझी|

खैर कुछ दिन और बीते और फिर से पंडित जी ने शहर जाने के लिए पत्नी से मशवरा क्या| असल मे तो उनका प्लान ये था कि भूतों की खबर ली जाएगी| फिर से सब तैयारी करके, गठरी, खोइंचा और साथ में वो कड़ाही लेकर पंडित जी फिर से कुएं पर पहुंचे और खोइंचे के टुकड़े करके बोलने लगे - एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चारों

भूतों ने सुना तो सोचा की ये विपदा फिर से कैसे आ गयी| “विप्र देव को हमसे क्या दुश्मनी है, इन्हें चमत्कारी कड़ाही तो दे दी फिर भी हमें खाने पर ही तुले हुए हैं” एक भूत ने कहा| पंडित जी और जोर जोर से बोलने लगे| डर कर भूत फिर से बाहर निकले और कहा - “हे विप्र श्रेष्ठ, हमसे क्या भूल हो गयी अब?”

“धूर्त हो तुम लोग, ये लो अपनी कड़ाही, किसी काम की नहीं है| बस एक बार इसने खाना बनाया और फिर उसके बाद ख़राब हो गयी” पंडित जी ने कड़ाही भूतों की ओर फेंकते हुए कहा| जिस भूत ने कड़ाही दी थी उसकी ओर बाकि भूतों ने गुस्से भरी नज़रों से देखा| उस भूत ने भी कड़ाही की जांच पड़ताल की लेकिन उसे समझ नहीं आया की आखिर ये समस्या कैसे आ गयी|

“मैं तुम सब को अभी भस्म करता हूँ” पंडित जी ने गरजते हुए कहा | सभी भूत डर गए उन्हें समझ आ रहा था की फिर से सिर्फ एक कड़ाही थमा देने से पंडित जी के कोप से बचा नहीं जा सकता है| इसलिए एक भूत ने फिर से “इम भीम क्डीम” का जाप करते हुए चांदी के सिक्के से भरी एक पोटली पंडित जी को दी| पोटली का रहस्य ये था की जितने ही सिक्के पोटली से निकाले जायेंगे उतने ही सिक्के फिर से पोटली में अपने आप भर जायेंगे| एक तरह से ये एक अनंत सिक्कों वाली एक पोटली थी|

इस उपहार से पंडित जे कैसे इनकार कर सकते थे| ख़ुशी ख़ुशी पोटली ली और भूतों से विदा लेके वापस घर की ओर चले, लेकिन फिर से पंडित जी रास्ता भटक गए और रात गुजरने के लिए व्यापारी के यहाँ रुके| रात के भोजन के बाद पंडित जी ने अपनी शेखी बघारने के लिए व्यापारी को पोटली दिखा दी|

अब जैसा की आप अनुमान लगा सकते हैं, हुआ वाही, रात में व्यापारी ने पोटली बदल दी| और जब पंडित जी घर पहुंचे पोटली से चाँदी के सिक्के निकाल के पंडिताइन को दिए| पंडिताइन खुश हो गयी लेकिन पण्डित जी ने देखा कि पोटली तो फिर से भरी ही नहीं| फिर से पंडित जी का शक भूतों पर ही गया| और इस बार पंडित जी गुस्से से आग बबूला हो गए और अगली ही सुबह फिर से कुएं पर जा धमाके|

खैर इस बार जब पंडित जी ने एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ या चरों का जाप किया तो भूतों को भी गुस्सा आ गया| हालाँकि पण्डित जी कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि भूतों को तो सिर्फ वहम था की पंडित जी कोई पहुंचे हुए ब्राह्मण हैं और मन्त्रों से भूतों को ख़तम कर देंगे, लेकिन फिर भी पंडित जी भूतों के डरने की वजह से वाकई में खुद को पहुंचा हुआ तांत्रिक समझने लगे थे और पूरे गर्मजोशी से भूतों को ललकार रहे थे| जब भूत निकले तो भूतों ने पण्डित जी से पूरी घटना सुनाने को कहा| पंडित जी ने पूरी कहानी कह सुनाई| कहानी सुनकर भूतों को समझ आ गया की हो न हो ये सब उस तेल व्यापारी की ही कारस्तानी है|

लेकिन ये बात पण्डित जी को बताने के बजाय उन्होंने एक दूसरा उपाय सोचा| “इम भीम क्डीम” करके एक भूत ने इस बार पंडित जी के लिए एक रस्सी और एक डंडा निकल के दिया| पंडित जी ने पूछा कि ये क्या काम करता है तो भूतों ने कहा की बस पंडित जी अप ऐसा कहियेगा की “ले झपट दे पलट काम कर दनादन” और फिर देखिये रस्सी डंडे का कमाल| पंडित जी के मन में शंका तो थी की आखिर क्या कम करेगी ये लेकिन फिर भी वो विदा लेके चल दिए|

पंडित जी रात गुजारने के लिए फिर से व्यापारी के यहाँ रुके| व्यापारी को कुतूहल तो था ही कि इस बार पंडित जी क्या लाये हैं उसने पंडित जी को जलपान करते ही पुछा| फिर क्या था, पहले की तरह ही पंडित जी ने रस्सी डंडा निकला और जैसे ही उन्होंने कहा “ले झपट दे पलट काम कर दनादन" रस्सी ने झट से व्यापारी को बाँध लिया और डंडे ने उसकी धुनाई चालू कर दी|

“मार डाला रे मार डाला रे” चिल्लाते हुए व्यापारी इधर उधर भागने लगा लेकिन डंडे ने उसका पीछा नहीं छोड़ा| व्यापारी की पत्नी आ गयी और पंडित जी से आग्रह करने लगी कि रस्सी डंडे को रोकिये| लेकिन अब पंडित जी  को तो कुछ पता ही नहीं था की इसे रोकना कैसे है “रूक जा, बंद हो जा, थम जा” जैसे न जाने कितने जुमले पंडित जी ने उपयोग किये लेकिन डंडा पिटाई करता ही रहा| पत्नी को लगा की शायद ये सब उनकी चोरी का नतीजा है, तो उसने पंडित जी को कड़ाही और सिक्कों वाली पोटली की बात बता दी और दोनों लाके पंडित जी को वापस कर दिए|

ऐसा करते ही डंडा रूक गया और रस्सी ने भी व्यापारी को छोड़ दिया | पंडित जी एक तरफ तो गुस्से में थे कि लाला ने चोरी की और धोखा दिया, लेकिन फिर खुश भी थे कि उन्हें उनका सामान वापस मिल गया| व्यापारी ने क्षमा याचना की तो पंडित जी ने उदार हृदयता दिखाते हुए लाला को क्षमा कर दिया और ख़ुशी ख़ुशी कडाही और पोटली लेकर अपने घर की ओर चल दिए|

अगले दिन जब पंडित ने असली कड़ाही से गाजर का हलवा बनाकर पण्डिताइन को खिलाया तो फिर तो क्या कहने| पण्डिताइन ने पण्डित जी को गले से लगा लिया|