3/8/14

हाशिये पर कविता



क्या तुमने कभी किसी हासिये से उसके खालीपन का एहसास पूछा है ?
यूं ही बिना वजह पन्ने से इतर किये जाने का, क्या है आभास पूछा है ?
नीली स्याही से सजाकर, बाकि पन्ने को आड़े तिरछे शब्दों से कलम
पास होकर भी छू भी न सके तुम मुझे, क्यूं करती परिहास पूछा है ?


पन्ने का ही हिस्सा था कभी वो, जन्म से खुद को पन्ने के ही साथ देखा
फिर तुमने किया पन्ने को पन्ने से अलग और बिना वजह खींच दी रेखा
स्याही कम पड़ गयी थी दवात में या शब्द सूख गए थे स्मृति में जो
बाकि पन्ने को भरा बड़े लाड़ से और हासिये को कर दिया था अनदेखा


फिर जब छींटे थे तुमने दो चार शब्द उस पर यूँ ही शायद खाके तरस
था शायद दिनाँक या कुछ क्रमांक, पूरी की थी तुमने अपनी बहस
लगा हासिये को कि इतर तो किया है, नहीं हो शायद अभी भूले लेकिन
फिर बैठा रहा आस में वो, उसे लगा की बस अभी शब्द जायेंगे कहीं से बरस


शब्द तो मिले नहीं, सीने के बींचोबीच आर पार बस दो गहरे जखम मिले थे
सलाखें पड़ गयी उनमें फिर, सड़ गए सपने, जीवन के सब प्रतिबिम्ब हिले थे
शब्द न गिर जाये कहीं तुम्हारे, इसलिए अभी तक पकड़ के रखा है सलाखों को
बस एक बार फिर से फेर दो कलम, पक्का भूल जायेंगे सब जो शिकवे गिले थे


क्या तुमने कभी किसी हासिये से उसके खालीपन का एहसास पूछा है ?
यूं ही बिना वजह पन्ने से इतर किये जाने का, क्या है आभास पूछा है ?
नीली स्याही से सजाकर, बाकि पन्ने को आड़े तिरछे शब्दों से कलम
पास होकर भी छू भी न सके तुम मुझे, क्यूं करती परिहास पूछा है ?