2/1/14

महाराज मेला आपके शहर प्रतापगढ़ में पहली बार

बात उस समय की है जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था| हमारे शहर प्रतापगढ़ में एक बार मेला लगा| वैसे तो मेला हमारे गाँव में भी लगता था और लेकिन गाँव और शहर के मेले में बहुत अंतर होता है| गाँव का मेला दिन में लगता है क्योंकि रात में रोशनी का कोई इंतजाम नहीं रहता, वहीँ दूसरी ओर शहर का मेला रात में अपनी रंग में आता है| जहाँ गाव के मेले में सिर्फ रंगों का प्रभुत्व रहता है, वहीं शहर के मेले में रंगों के साथ रंग बिरंगी रोशनी भी सभी को मोहित करती है| फिर बड़े-बड़े मोटार से चलने वाले झूले, बात करने वाले रोबोट, बिजली से चलने वाली छोटी रेल जैसी कई चीजें गावं के मेले में देखने को नहीं मिलती|

कुल मिला कर मेला लगाने से शहर में रौनक बढ़ गयी थी| ये बात भी चल निकली थी की महाराजा मेला में बम्बई से आये कारीगरों ने काम किया है, तो मेले का टशन और भी बढ़ गया था| मेले से कई दिन पहले ही मेले का प्रचार चालू हो गया था| एक आदमी रिक्शे पर भोपूं लगा कर दिन भर शहर में घूमता रहता था और मेले का प्रचार करता रहता था| और इस बार के मेले की खासियत थी जुरासिक पार्क के जंगलों से पकड़ कर लाया गया डायनासोर| अंग्रेजी फिल्म तो हमने नहीं देखी थी, लेकिन डायनासोर के बारे में किताब में पढ़ा जरूर था| बहुत विशाल प्राणी होता है, बहुत साल पहले उल्का पिंड धरती पर गिराने की वजह से विलुप्त हो गया था, वगरह वगरह| और फिर “छिपकली के नाना है, छिपकली के हैं ससुर, दानासुर दानासुर” वाले कार्टून प्रोग्राम से भी डायनासोर के बारे में थोडा ज्ञान हो गया था|

“जी हाँ भाइयों और बहनों, आपके शहर प्रतापगढ़ में पहली बार| जुरासिक पार्क के खतरनाक जंगलों से पकड़ कर लाया गया दुनिया का सबसे खूँखार जानवर| दस मंजिली ईमारत से भी ऊंचा| हजार हाथियों से भी ज्यादा ताकत रखने वाला भीमकाय प्राणी| दिल दहला देने वाली आवाज - ग्र्र्र.र्र्र्र.र्र्र.र्र.र्र.र्र.र्र| अरे भाई साहब दूर से देखिये, पास जाने की कोशिश न कीजिये| जुरासिक पार्क का किंग - डायनासोर| बच्चों के लिए ज्ञान वर्धक, मम्मी को भी लाइये पापा को भी लाइए| महाराजा मेला आपके लिए लाये है पहली बार| इतना ही नहीं और भी देखिये, मौत से दिल्लगी करते जाबांज वीर मौते के कुएं में, बम्बई के कारीगरों द्वारा बनाया विशाल झूला और भी बहुत कुछ| जी हाँ भाइयों और बहनों, आपके अपने शहर प्रतापगढ़ में पहली बार जुरासिक पार्क के खतरनाक जंगलों से …….. ” और फिर एक अजीब से दहाड़ने वाली आवाज जो की शायद डायनासोर जी की थी| पूरे शहर में प्रचार जोरों पर था| जगह जगह पोस्टर भी लग गए थे| शहर में महाराजा मेले की धूम थी|

पहले तो पापा ने मना किया की क्या जाओगे समय की बर्बादी होगी| लेकिन फिर मेरे भाई के सहपाठियों ने जो दानासुर की तारीफों के पुल बांधे तो उसने जाने की ठान ली और रो रो कर घर में हडकंप मचा दिया| उसी समय हमारे सुरेन्द्र मामा भी आये हुए थे, तो पिता जी ने मामाजी के साथ हमारा जाना तय किया|

फिर क्या था, तेल फुलेल चपोड़ के रंग-बिरंगे कपडे पहन कर हम मामाजी के साथ पहुँच गए मेला देखने| रंग बिरंगे ट्यूब लाईट और बल्ब की कतारों में पूरा माहौल चकाचौंध था| घुसते ही विभिन्न प्रकार की आवाजों और लाइटों से लैस भविष्य बताने वाले रोबोट थे| एक बार सोचा की भविष्य जान लिया जाये, लेकिन फिर परीक्षा के रिजल्ट आने वाले थे, इसलिए भविष्य जानने का प्लान स्थगित करना पड़ा| आगे जाने पर सियामी जुड़वा भाइयों की प्रदशनी, लोहे के छल्ले फेंक कर इनाम जीतने वाली दुकान और बन्दूक से गुब्बारे फोड़ने वाली दुकान थी इत्यादि| मुझे बचपन में बन्दूक देख के ही डर लगता था तो हम आगे बढ़ लिए|

मेले के एक छोर पर एक बड़ा सा गोल झूला था| इतना बड़ा झूला मैंने सिर्फ फिल्मों में ही देखा था| झूला एक आटोमेटिक मोटर से चल रहा था| मामा जी ने मुझसे और मेरे भाई से पूछा की झूलना है क्या? मुझे थोडा डर लग रहा था, लेकिन इससे पहले की मैं कुछ सोच पाटा मेरे भाई ने गर्मजोशी से हामी भर दी| मरता क्या न करता, हम तीनों लोग झूले की एक टोकरी में बैठ गए| सभी के बैठ जाने पर जब मोटर की तेज़ आवाज के साथ झूला स्टार्ट हुआ तो मेरा डर और बढ़ गया, फिर धीरे धीरे जब हमारी टोकरी एकदम ऊपर पहुंची तो ऊपर से रंगों और रौशनी में नहाया पूरा मेला दिखता था| दृश्य बड़ा लुभावना था, लेकिन मेरी हालत तो मोटर की तेज़ आवाज और ऊंचाई की वजह से ख़राब थी|

फिर जब टोकरी नीचे आई तो लगा की मेरा दिल, पेट, गुर्दा सर सब कुछ ऊपर ही छूट गया और मैं बिना शारीर नीचे आ रहा हूँ| लेकिन फिर बगल में छोटे भाई को हँसते देखा तो जान में जान आई| १५-२० चक्कर के बाद जब झोला रूका तो लगा की नाहक ही डर रहा था, हालाँकि थोड़ी देर तक ऐसा लगता रहा की मैं अभी भी हवा में उड़ रहा हूँ |

फिर उसके बाद एक बड़े चबूतरे पर बहुत से नट अपना कमाल दिखा रहे थे, कोई एक पहिये की साईकिल चलता थे तो कोई दो बड़े डंडों में अपना पैर फंसा के चलता था| इन सबके पीछे मौत का कुआँ था, और मुझे जरा भी इल्म नहीं था की आखिर ये होता क्या है| उत्सुकतावश मैं और मेरा भाई टिकेट लेके मामाजी के साथ कुएं की छोर पर खड़े हो गए| काफी देर तक कुछ नहीं हुआ, मुझे समझ नहीं आ रहा था की देखना क्या है| तभी अचानक तेज़ आवाज करते हुई दो बाइक सवार दिखाई दिए जो कुएं की दीवार पर बाइक चला रहे थे, मैंने देखा तो मेरे तो होश ही फाख्ता हो गए| समझ ही नहीं आया की हो कैसे रहा है ये सब| फिर मामाजी ने थोड़ी इसके पीछे की विज्ञानं गणित समझाई तो लगा की शायद करना संभव होगा| लेकिन ऐसे अजीबोगरीब कारनामे को देखने के बाद तो हमारे रोंगटे ही खड़े हो गए|

मौत के कुएं के बाद हम मेले के मुख्य आकर्षण दानासुर के पास पहुंचे| एक बड़ा सा पहाड़ नुमा कृतिम टीला बनाया हुआ था और उसमे घुसाने के लिए एक छोटी से गुफा भी बनायीं हुई थी| जनता को ये फील देने की कोशिश की जा रही थी की दानासुर पहाड़ के अन्दर रहता है| बाहर बहुत भीड़ लगी हुई थी, टिकेट खरीदने के लिए मारामारी मची थी, मामाजी ने किसी तरह से ३ टिकट्स का जुगाड़ किय फिर हम गुफा के बहार से शुरू होने वाली लाइन में लग गए| जैसे जैसे लाइन आगे बढ़ रही थी वैसे वैसे मैं दानासुर को अपने मन में चित्रित किये जा रहा था| कितना बड़ा होगा, किस रंग का होगा, दांत नाखून तो बहुत बड़े होंगे, चेहरा डरावना होगा, ये सब मैं सोचे जा रहा था और गुफा में अँधेरा होने की वजह से डरे भी जा रहा था| मैं और मेरा भाई अँधेरे में एक दूसरे का हाथ पकडे आगे बढ़ते रहे|

गुफा के ख़तम होने पर हमें दानासुर के दर्शन हुए, और मेरी आशा के विपरीत दानासुर जी बहुत फुसफुसे निकले| कपडे, टाट, मिटटी, मोम और रबर का बना हुआ कृतिम दानासुर, जिसकी ऊंचाई बमुश्किल १५ फीट रही होगी| आँखों की जगह जीरो वाट के दो बल्ब चमक रहे थे, और आवाज के लिए लगे हुए स्पीकर पीछे साफ़ देखे जा सकते थे| थोडा और पास जाके देखा तो पता चला की दानासुर का जबड़ा किसी मशीन से जुड़ा था और आवाज के साथ ही खुलता और बंद होता था|

दानासुर को देख के अब डर तो बहुत दूर की बात है, मुझे हंसी आ रही थी| तभी अचानक से शायद कुछ शोर्ट सर्किट हुआ और दानासुर का जबड़ा आवाज के साथ खुला तो सही लेकिन फिर खुला का खुला ही रह गया | बेचारे दनासुर महोदय जी, जो कि डरावने होने के लिए पूरे शहर में मशहूर किये गए थे आज जनता की हंसी का पात्र थे|

खैर दानासुर की प्रदर्शनी से लुत्फ़ उठाकर हम बाहर निकले तो हमें अगली दुकान पर बच्चों का एक झुण्ड नजर आया| घुस के देखा तो खिलौनों की दुकान थी और सभी मिल कर पानी में चलने वाली एक छोटी से आटोमेटिक नाव को देख रहे थे| नाव के साथ एक छोटा सा चम्मच था जिसमें तेल, या मोम से आग जला के नाव में रख दो तो नाव खुद-ब-खुद कट-कट की आवाज के साथ आगे बढती जाती थी| हमें लगा की अब मेले में आये हैं तो कुछ तो वापस ले ही जाना चाहिए, तो हमने भी एक नाव खरीद ली|

फिर आगे खाने पीने का ढेर सारा सामान था| घर से हिदायत मिली थी की हमें बहार की चीजें नहीं खानी है, जलेबी मिठाई पकौड़ी इत्यादि की दुकान तक तो हमने आपने आपको रोक लिया लेकिन चाट और गोलगप्पे देखकर हमारा मन डोल गया| फिर शाम के ६ बजे से निकले निकले रात के ९ भी बज चुके थे, भूख भी लगी थी| हम दोनों भाई ठिठक के खड़े हो गए, मामाजी खुद भी चाट समोसे के बहुत बड़े शौक़ीन थे, फिर मामाजी ने हमारे मन का भाव पढ़ा तो हमने चाट और ६ रूपये के गोलगप्पे यूँ ही निपटा दिए| फिर थोडा मम्मी और दीदी के लिए पैक कराया और वापस घर के लिए रवाना हो गए|

उसके बाद कभी वापस मेला देखने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ और शायद कभी ऐसा मेला लगा भी नहीं| दानासुर जी के साथ अपनी पहली मुलाकात आज भी गुदगुदा जाती है|