जब तक मैं अपने गाँव में रहता था तब तक तो मैंने TV का नाम सुना ही नहीं था | मुझे पता भी नहीं था कि TV नाम की कोई चीज भी होती है | फिर पापा की नौकरी लगने पर हम सभी लोग फतेहपुर आ गए | वहां पर भी मैंने पहली बार TV कब देखा कुछ याद नहीं |
मैं तब शायद ६ या ७ साल का था और दूसरी कक्षा में पढता था | रविवार का दिन था और हम सभी भाई बहन घर पर ही थे | तभी पापा एक आदमी के साथ आये| उस आदमी के हाथ में एक बड़ा सा डब्बा था | डब्बे पर TV का एक चित्र बना हुआ था | अब मुझे याद तो नहीं लेकिन TV का चित्र देख कर हम खुश ही हुए होंगे | खैर टीवी निकाला गया डब्बे से और लगा दिया गया | TV बहुत बड़ा नहीं था, जहाँ तक मुझे याद है २१ इंच की था | TV काले रंग का था और नीचे की तरफ एक स्पीकर था जिसे आप स्पीकर के लिए बने छोटे छोटे छेदों से पहचान सकते थे | उसके बगल में नीचे की तरफ ही एक ढक्कन लगा था जिसे खोलने पर TV को कण्ट्रोल करने वाली चार घुन्डियाँ लगी थी| उनमें से एक घुंडी TV के चित्र का रंग काला सफ़ेद कण्ट्रोल करने के लिए थी, और बाकि की घुन्डिया क्या करती थी ये तो मुझे आज तक भी नहीं पता | ढक्कन के बगल में एक और छोटी घुंडी थी, जिसे घुमाने पर TV ऑन हो जाता था और उसी घुंडी से आवाज भी कण्ट्रोल होती थी | सबसे नीचे कि तरफ सुनहरे अक्षरों में TV का ब्रांड T -Series लिखा हुआ था | आप इतना तो समझ ही गए होंगे की TV श्वेत श्याम थी | फतेहपुर में दूरदर्शन का ऑफिस हमारे घर के एकदम बगल में ही था, इसलिए हमें एंटीना लगाने की जरूरत नहीं होती थी | TV के ऊपर ही एक छोटा सा एरियल लगाना होता था | वैसा एरिअल हम अक्सर रेडियो के साथ लगा देखते हैं जिसे रेडियो सुनते समय हम खींच के बड़ा कर देते हैं | TV लगाकर जब उस आदमी ने ऑन किया तो उसमें कोई दूसरी भाषा की फिल्म आ रही थी | उन दिनों दूरदर्शन पर रविवार के दिन दोपहर में दूसरी भाषा की फिल्म आती थी | पिक्चर साफ़ नहीं आ रही थी, उस आदमी ने घुन्डिया कुछ इधर उधर घुमाई और थोड़ी देर में ही साफ़ पिक्चर साफ़ आवाज के साथ आने लगी | वो आदमी सब सेट करके चला गया | मुझे अब भी याद है की उस दिन हमने उस फिल्म को पूरा देखा था, हालाँकि दूसरी भाषा की होने के कारण हमें समझ में एक अक्षर भी नहीं आया होगा | उन दिनों TV पर सिर्फ दूरदर्शन आता था और बहुत ज्यादा प्रोग्राम नहीं आते थे | दिन के समय जब कुछ देर के लिए प्रसारण बंद होने के कारण कुछ भी नहीं आता था, उस समय TV खोलने पर उस पर कुछ झिलमिल सा आता था, जिसे हम कहते थे की "बारिश हो रही है " क्योंकि उसकी आवाज बारिश की आवाज की तरह लगाती थी | फिर प्रसारण शुरू होने से कुछ देर पहले सतरंगी धारियां टूं की आवाज के साथ आती थी, और उसके बाद एक खास दूरदर्शन संगीत के साथ दूरदर्शन का लोगो बन के आता था जिसके नीचे "सत्यम शिवम् सुन्दरम" लिखा होता था | धीरे धीरे हमें TV पर आने वाले सभी कार्यक्रमों का समय रट गया था, और हमारा खाने - खेलने का समय भी TV के कार्यक्रमों के हिसाब से निर्धारित हो गया था | मसलन हम शाम को चार बजे बच्चों का कार्यक्रम देख के खेलने जाया करते थे | पांच साल फतेहपुर में रहने के बाद पापा का ट्रान्सफर प्रतापगढ़ हो गया | वहां पर पापा को एक साल के लिए सरकारी मकान नहीं मिला, तो हम लोग एक किराये के मकान में रहते थे | हमने जब वहां पर TV खोल कर लगाया तो उसमें कुछ नहीं आया, हमें बाद में पता लगा की प्रतापगढ़ में दूरदर्शन का ऑफिस ही नहीं है, और वहां पर एंटीना लगाना पड़ेगा जो की इलाहबाद के दूरदर्शन के ऑफिस से सिग्नल पकड़ेगा | इन सब ताम-झाम से बचने के लिए एक साल के लिए जब तक हम उस किराये के मकान में रहे हमने रेडियो से ही कम चलाया | एक साल बाद हमें जो सरकारी मकान मिला वो दुमंजिले मकान की पहली मंजिल पर था, एंटीना ख़रीदा गया, छत पर एंटीना लगाया | लेकिन एंटीना लगाने पर भी चित्र साफ़ नहीं आया| अगल बगल पता किया गया तो पता चला की इलाहबाद बहुत दूर होने के कारण सिग्नल नहीं पकड़ता और सभी लोग बूस्टर नामक एक यन्त्र का इस्तेमाल करते हैं | अब TV तो देखना ही था, इसलिए बूस्टर ख़रीदा गया | बूस्टर असलियत में दो छोटो छोटे हथेली के साइज़ के यन्त्र थे | एक को ऊपर छत पर एंटीना के साथ लगाना होता था, दूसरे को नीचे TV के साथ लगाना होता था, और दोनों यन्त्र एंटीना के तार के साथ जुड़े होते थे | बूस्टर लगाने पर चित्र और आवाज तो साफ़ आने लगी लेकिन फिर भी कभी कभी चित्र ख़राब हो जाने का झंझट हमेशा रहा | मेरा भाई या मैं ऊपर छत पर जाकर एंटीना घुमाते थे और नीचे से "आ गया " "नहीं आया" बोलकर हमें बताया जाता था की कब घुमाना बंद करना है | हमें किसी ने ये भी बता दिया था की तार जहाँ पर बूस्टर से जुड़े होते थे वहां कार्बोन जम जाता है, तो महीने में एक बार मैं और मेरा भाई पेंचकस लेकर तार को बूस्टर से अलग करके उसे साफ़ करके फिर से जोड़ देते थे | पता नहीं इसका फरक पड़ता था की नहीं लेकिन ये हमारा हर महीने का पक्का कार्यकम था | शुक्रवार के दिन दूरदर्शन पर हिंदी फिल्म दिखाई जाती थी | रात के समाचार के एक घंटे या आधे घंटे के बाद | हम सभी को और खास तौर से मेरे भाई को फ़िल्म बहुत पसंद थी | टीवी पापा मम्मी के बेद रूम में लगी थी और हमारे पापा सोने के मामले में समय के बहुत पाबंद थे | इसलिए शाम से ही फ़िल्म के लिए माहौल बनाया जाता था | उस दिन मेरा भाई एक्स्ट्रा पढाई करता था, या यूं कहिये कि पढाई करने का नाटक करता था | पापा को ये आश्वासन भी देना पड़ता था की हम लोग बिलकुल शोर नहीं मचाएंगे और धीमी आवाज में TV देखेंगे | और तो और पापा को ये भी सुर्रा देते थे की हम फिल्म के बीच में जो प्रचार आते हैं, उस दौरान पढाई करेंगे | भला बताओ, फिल्म के बीच में तो फरिश्तों की औलादें भी न पढ़े, हम तो फिर भी इंसान थे | रात के समाचार के साथ खाना खाने के बाद गुड नाईट कॉइल जला कर जमीन पर टीवी के सामने चटाई बिछायी जाती थी और फ़िल्म का आनंद लिया जाता था | फ़िल्म के बीच बीच में प्रचार आते थे, और मम्मी की आदत थी उन प्रचारों के बीच में ही सो जाने की | फिर मम्मी को सुबह विस्तार से रात की फ़िल्म का ब्यौरा दिया जाता था | फिर कुछ दिनों के बाद जब मैं नवीं कक्षा में था तो हमारे नीचे वाली आंटी के यहाँ केबल लगा केबल बहुत मजेदार चीज थी | ढेर सरे चैनल्स, ढेर सारे प्रोग्राम्स और ढेर सारी फ़िल्म्स | केबल का तार हमारे घर के ऊपर से ही जाता था, इसलिए कभी कभी हमारी टीवी पर भी केबल पकड़ लेता था | जैसा कि मैंने पहले भी बताया मेरे भाई को बचपन से ही फ़िल्म्स का काफी शौक था इसलिए उसने बहुत कोशिश की कि घर में केबल लग जाये, लेकिन ऐसा प्रचलित था की केबल लगवाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं इसलिए मम्मी ने कभी इस चीज के लिए इज़ाज़त नहीं दी | और वैसे भी ईमानदारी से बोलूँ तो उस छोटी से ब्लैक एंड व्हाइट TV में केबल लगवाने का कोई मतलब भी नहीं था| फिर एक दिन हमारी TV ख़राब हो गयी | हमने सारी घुन्डियाँ इधर उधर चरों ओर घुमा फिरा के देख ली लेकिन टीवी नहीं चली | टीवी काफी पुरानी भी हो चली थी , और वैसे भी अब कलर TV का जमाना आ गया था, इसलिए मेरे छोटे भाई ने पापा से बहुत मिन्नतें करी कि अब इस TV को रिटायर कर दिया जाये और एक रंगीन TV लायी जाये | १-२ हफ्ते बाद पापा भी मान गए की अब इस टीवी को अलविदा कह देना चाहिये | इस फैसले से हम सभी बहुत खुश हुए थे, खास तौर से मेरा भाई | हमने तो ओनिडा का एक रंगीन TV भी चुन लिया था जिसके प्रचार में एक आदमी राक्षस की तरह सीन्घे लगा के आता था | लेकिन इससे पहले की दूसरी TV आये, पापा के ऑफिस में किसी ने पापा को एक TV मेकैनिक के बारे में बता दिया | उनका नाम राम प्रसाद था | पापा ने उनको बुला लिया, और उन्होंने TV के सब अर्जे पुर्जे खोले तो पता लगा की TV के पीछे चूहों ने छेद बना दिया था और कुछ तार वार काट दिए थे इसलिए TV ख़राब हो गयी थी | खैर उन्होंने तार वगैरह जोड़ के TV ठीक कर दी और पीछे के उस छेद में रुई भर दी | TV ठीक होने पापा को जीतनी ख़ुशी हुई थी उससे कहीं ज्यादा दुःख मेरे छोटे भाई को हुआ | TV का ख़राब होना रंगीन TV आने का एक मात्र जरिया था, लेकिन राम प्रसाद जी ने सब गुड़ गोबर कर दिया था | उसी समय हमारे घर में वोल्टेज की समस्या आने लगी | वोल्टेज कभी बहुत हाई हो जाता था तो TV चलता ही नहीं था, और कभी बहुत लो हो जाता था तो टीवी पर चित्र बहुत काले आते थे और देखना मश्किल हो जाता था | खैर इसका हल भी निकाला गया, पहले तो स्तैबलाइज़र से जितना वोल्टेज मैनेज हो सकता था उतना स्तैबलाइज़र से करते थे | फिर वोल्टेज ज्यादा होने पर घर में हीटर , पानी गरम करने वाला गीजर सब ऑन कर देते थे | वोल्टेज कम होने पर घर के सारे बिजली के उपकरण यहाँ तक की बल्ब्स भी बंद कर देते थे, तब जाके TV का आनंद ले पाते थे | खैर ये सब चीजें TV भी कितने दिन झेलता| TV अब अक्सर ख़राब हुआ रहता था लेकिन राम प्रसाद जी हमेशा आ के ठीक कर जाते थे | फिर मैं बारहवी पास कर के इलाहबाद आ गया | छोटा भाई भी बारहवी पास कर के कानपुर चला गया आगे की पढाई के लिए | पापा का ट्रान्सफर भी झाँसी हो गया | अब TV एकदम से चलना बंद हो गया था |
मैं तब शायद ६ या ७ साल का था और दूसरी कक्षा में पढता था | रविवार का दिन था और हम सभी भाई बहन घर पर ही थे | तभी पापा एक आदमी के साथ आये| उस आदमी के हाथ में एक बड़ा सा डब्बा था | डब्बे पर TV का एक चित्र बना हुआ था | अब मुझे याद तो नहीं लेकिन TV का चित्र देख कर हम खुश ही हुए होंगे | खैर टीवी निकाला गया डब्बे से और लगा दिया गया | TV बहुत बड़ा नहीं था, जहाँ तक मुझे याद है २१ इंच की था | TV काले रंग का था और नीचे की तरफ एक स्पीकर था जिसे आप स्पीकर के लिए बने छोटे छोटे छेदों से पहचान सकते थे | उसके बगल में नीचे की तरफ ही एक ढक्कन लगा था जिसे खोलने पर TV को कण्ट्रोल करने वाली चार घुन्डियाँ लगी थी| उनमें से एक घुंडी TV के चित्र का रंग काला सफ़ेद कण्ट्रोल करने के लिए थी, और बाकि की घुन्डिया क्या करती थी ये तो मुझे आज तक भी नहीं पता | ढक्कन के बगल में एक और छोटी घुंडी थी, जिसे घुमाने पर TV ऑन हो जाता था और उसी घुंडी से आवाज भी कण्ट्रोल होती थी | सबसे नीचे कि तरफ सुनहरे अक्षरों में TV का ब्रांड T -Series लिखा हुआ था | आप इतना तो समझ ही गए होंगे की TV श्वेत श्याम थी | फतेहपुर में दूरदर्शन का ऑफिस हमारे घर के एकदम बगल में ही था, इसलिए हमें एंटीना लगाने की जरूरत नहीं होती थी | TV के ऊपर ही एक छोटा सा एरियल लगाना होता था | वैसा एरिअल हम अक्सर रेडियो के साथ लगा देखते हैं जिसे रेडियो सुनते समय हम खींच के बड़ा कर देते हैं | TV लगाकर जब उस आदमी ने ऑन किया तो उसमें कोई दूसरी भाषा की फिल्म आ रही थी | उन दिनों दूरदर्शन पर रविवार के दिन दोपहर में दूसरी भाषा की फिल्म आती थी | पिक्चर साफ़ नहीं आ रही थी, उस आदमी ने घुन्डिया कुछ इधर उधर घुमाई और थोड़ी देर में ही साफ़ पिक्चर साफ़ आवाज के साथ आने लगी | वो आदमी सब सेट करके चला गया | मुझे अब भी याद है की उस दिन हमने उस फिल्म को पूरा देखा था, हालाँकि दूसरी भाषा की होने के कारण हमें समझ में एक अक्षर भी नहीं आया होगा | उन दिनों TV पर सिर्फ दूरदर्शन आता था और बहुत ज्यादा प्रोग्राम नहीं आते थे | दिन के समय जब कुछ देर के लिए प्रसारण बंद होने के कारण कुछ भी नहीं आता था, उस समय TV खोलने पर उस पर कुछ झिलमिल सा आता था, जिसे हम कहते थे की "बारिश हो रही है " क्योंकि उसकी आवाज बारिश की आवाज की तरह लगाती थी | फिर प्रसारण शुरू होने से कुछ देर पहले सतरंगी धारियां टूं की आवाज के साथ आती थी, और उसके बाद एक खास दूरदर्शन संगीत के साथ दूरदर्शन का लोगो बन के आता था जिसके नीचे "सत्यम शिवम् सुन्दरम" लिखा होता था | धीरे धीरे हमें TV पर आने वाले सभी कार्यक्रमों का समय रट गया था, और हमारा खाने - खेलने का समय भी TV के कार्यक्रमों के हिसाब से निर्धारित हो गया था | मसलन हम शाम को चार बजे बच्चों का कार्यक्रम देख के खेलने जाया करते थे | पांच साल फतेहपुर में रहने के बाद पापा का ट्रान्सफर प्रतापगढ़ हो गया | वहां पर पापा को एक साल के लिए सरकारी मकान नहीं मिला, तो हम लोग एक किराये के मकान में रहते थे | हमने जब वहां पर TV खोल कर लगाया तो उसमें कुछ नहीं आया, हमें बाद में पता लगा की प्रतापगढ़ में दूरदर्शन का ऑफिस ही नहीं है, और वहां पर एंटीना लगाना पड़ेगा जो की इलाहबाद के दूरदर्शन के ऑफिस से सिग्नल पकड़ेगा | इन सब ताम-झाम से बचने के लिए एक साल के लिए जब तक हम उस किराये के मकान में रहे हमने रेडियो से ही कम चलाया | एक साल बाद हमें जो सरकारी मकान मिला वो दुमंजिले मकान की पहली मंजिल पर था, एंटीना ख़रीदा गया, छत पर एंटीना लगाया | लेकिन एंटीना लगाने पर भी चित्र साफ़ नहीं आया| अगल बगल पता किया गया तो पता चला की इलाहबाद बहुत दूर होने के कारण सिग्नल नहीं पकड़ता और सभी लोग बूस्टर नामक एक यन्त्र का इस्तेमाल करते हैं | अब TV तो देखना ही था, इसलिए बूस्टर ख़रीदा गया | बूस्टर असलियत में दो छोटो छोटे हथेली के साइज़ के यन्त्र थे | एक को ऊपर छत पर एंटीना के साथ लगाना होता था, दूसरे को नीचे TV के साथ लगाना होता था, और दोनों यन्त्र एंटीना के तार के साथ जुड़े होते थे | बूस्टर लगाने पर चित्र और आवाज तो साफ़ आने लगी लेकिन फिर भी कभी कभी चित्र ख़राब हो जाने का झंझट हमेशा रहा | मेरा भाई या मैं ऊपर छत पर जाकर एंटीना घुमाते थे और नीचे से "आ गया " "नहीं आया" बोलकर हमें बताया जाता था की कब घुमाना बंद करना है | हमें किसी ने ये भी बता दिया था की तार जहाँ पर बूस्टर से जुड़े होते थे वहां कार्बोन जम जाता है, तो महीने में एक बार मैं और मेरा भाई पेंचकस लेकर तार को बूस्टर से अलग करके उसे साफ़ करके फिर से जोड़ देते थे | पता नहीं इसका फरक पड़ता था की नहीं लेकिन ये हमारा हर महीने का पक्का कार्यकम था | शुक्रवार के दिन दूरदर्शन पर हिंदी फिल्म दिखाई जाती थी | रात के समाचार के एक घंटे या आधे घंटे के बाद | हम सभी को और खास तौर से मेरे भाई को फ़िल्म बहुत पसंद थी | टीवी पापा मम्मी के बेद रूम में लगी थी और हमारे पापा सोने के मामले में समय के बहुत पाबंद थे | इसलिए शाम से ही फ़िल्म के लिए माहौल बनाया जाता था | उस दिन मेरा भाई एक्स्ट्रा पढाई करता था, या यूं कहिये कि पढाई करने का नाटक करता था | पापा को ये आश्वासन भी देना पड़ता था की हम लोग बिलकुल शोर नहीं मचाएंगे और धीमी आवाज में TV देखेंगे | और तो और पापा को ये भी सुर्रा देते थे की हम फिल्म के बीच में जो प्रचार आते हैं, उस दौरान पढाई करेंगे | भला बताओ, फिल्म के बीच में तो फरिश्तों की औलादें भी न पढ़े, हम तो फिर भी इंसान थे | रात के समाचार के साथ खाना खाने के बाद गुड नाईट कॉइल जला कर जमीन पर टीवी के सामने चटाई बिछायी जाती थी और फ़िल्म का आनंद लिया जाता था | फ़िल्म के बीच बीच में प्रचार आते थे, और मम्मी की आदत थी उन प्रचारों के बीच में ही सो जाने की | फिर मम्मी को सुबह विस्तार से रात की फ़िल्म का ब्यौरा दिया जाता था | फिर कुछ दिनों के बाद जब मैं नवीं कक्षा में था तो हमारे नीचे वाली आंटी के यहाँ केबल लगा केबल बहुत मजेदार चीज थी | ढेर सरे चैनल्स, ढेर सारे प्रोग्राम्स और ढेर सारी फ़िल्म्स | केबल का तार हमारे घर के ऊपर से ही जाता था, इसलिए कभी कभी हमारी टीवी पर भी केबल पकड़ लेता था | जैसा कि मैंने पहले भी बताया मेरे भाई को बचपन से ही फ़िल्म्स का काफी शौक था इसलिए उसने बहुत कोशिश की कि घर में केबल लग जाये, लेकिन ऐसा प्रचलित था की केबल लगवाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं इसलिए मम्मी ने कभी इस चीज के लिए इज़ाज़त नहीं दी | और वैसे भी ईमानदारी से बोलूँ तो उस छोटी से ब्लैक एंड व्हाइट TV में केबल लगवाने का कोई मतलब भी नहीं था| फिर एक दिन हमारी TV ख़राब हो गयी | हमने सारी घुन्डियाँ इधर उधर चरों ओर घुमा फिरा के देख ली लेकिन टीवी नहीं चली | टीवी काफी पुरानी भी हो चली थी , और वैसे भी अब कलर TV का जमाना आ गया था, इसलिए मेरे छोटे भाई ने पापा से बहुत मिन्नतें करी कि अब इस TV को रिटायर कर दिया जाये और एक रंगीन TV लायी जाये | १-२ हफ्ते बाद पापा भी मान गए की अब इस टीवी को अलविदा कह देना चाहिये | इस फैसले से हम सभी बहुत खुश हुए थे, खास तौर से मेरा भाई | हमने तो ओनिडा का एक रंगीन TV भी चुन लिया था जिसके प्रचार में एक आदमी राक्षस की तरह सीन्घे लगा के आता था | लेकिन इससे पहले की दूसरी TV आये, पापा के ऑफिस में किसी ने पापा को एक TV मेकैनिक के बारे में बता दिया | उनका नाम राम प्रसाद था | पापा ने उनको बुला लिया, और उन्होंने TV के सब अर्जे पुर्जे खोले तो पता लगा की TV के पीछे चूहों ने छेद बना दिया था और कुछ तार वार काट दिए थे इसलिए TV ख़राब हो गयी थी | खैर उन्होंने तार वगैरह जोड़ के TV ठीक कर दी और पीछे के उस छेद में रुई भर दी | TV ठीक होने पापा को जीतनी ख़ुशी हुई थी उससे कहीं ज्यादा दुःख मेरे छोटे भाई को हुआ | TV का ख़राब होना रंगीन TV आने का एक मात्र जरिया था, लेकिन राम प्रसाद जी ने सब गुड़ गोबर कर दिया था | उसी समय हमारे घर में वोल्टेज की समस्या आने लगी | वोल्टेज कभी बहुत हाई हो जाता था तो TV चलता ही नहीं था, और कभी बहुत लो हो जाता था तो टीवी पर चित्र बहुत काले आते थे और देखना मश्किल हो जाता था | खैर इसका हल भी निकाला गया, पहले तो स्तैबलाइज़र से जितना वोल्टेज मैनेज हो सकता था उतना स्तैबलाइज़र से करते थे | फिर वोल्टेज ज्यादा होने पर घर में हीटर , पानी गरम करने वाला गीजर सब ऑन कर देते थे | वोल्टेज कम होने पर घर के सारे बिजली के उपकरण यहाँ तक की बल्ब्स भी बंद कर देते थे, तब जाके TV का आनंद ले पाते थे | खैर ये सब चीजें TV भी कितने दिन झेलता| TV अब अक्सर ख़राब हुआ रहता था लेकिन राम प्रसाद जी हमेशा आ के ठीक कर जाते थे | फिर मैं बारहवी पास कर के इलाहबाद आ गया | छोटा भाई भी बारहवी पास कर के कानपुर चला गया आगे की पढाई के लिए | पापा का ट्रान्सफर भी झाँसी हो गया | अब TV एकदम से चलना बंद हो गया था |
इस बार घर गया तो कमरे के कोने में वो पुराना TV नहीं दिखा | मम्मी ने बताया उसे कुछ ही दिनों पहले २०० रूपये में एक मेकैनिक को बेचा गया | पता नहीं एक अजीब सा खालीपन लगा ये खबर सुनकर | वो कोना भी बड़ा अजीब सा खाली खाली लग रहा था मानो वो TV उस कोने का ही एक हिस्सा हो | जिस तरह बहता पानी तो गुजर जाता है लेकिन हथेली गीली कर जाता है और गीली हथेली बार बार उस पानी का एहसास कराती है उसी तरह वक़्त भी गुज़र जाता है लेकिन कुछ यादें छोड़ जाता है जिनके सहारे आप फिर से पुराने वक़्त को जी सकें | वो ख़ाली कोना अब भी रह रह कर लड़कपन के उन दिनों कि याद कराता है | अब घर में केबल भी है औए एक नया रंगीन TV भी, लेकिन वो बचपन नहीं है जिसका वो ब्लैक एंड व्हाइट TV एक अटूट हिस्सा था |