ये कहानी है मेरी पहली इलाहबाद यात्रा की. जी हाँ वही इलाहबाद जिसे अल्लाहाबाद भी कहते है. उस समय हमारा परिवार फतेहपुर में रहता था | अगर आप कभी इलाहबाद से कानपुर जाये तो आपको रास्ते में फतेहपुर मिलेगा. छोटा सा शहर है. कई लोग इसे गलती से फतेहपुर सीकरी भी समझ लेते हैं. इसी शहर में मेरा बचपन बीता. बात उस समय की है जब मेरे पापा गाँव जाने वाले थे. चूँकि मेरी छुट्टी चल रही थी इसलिए मैंने भी गाँव जाने का प्लान बना लिया. मेरा गाँव जौनपुर में पड़ता है, जहाँ जाने का तरीका ये था की पहले तो फतेहपुर से इलाहबाद जाये, फिर वहां से जौनपुर वाली बस पकड़ ले. और आपको जौनपुर से करीबन २१ किलोमीटर पहले उतर जाना होगा. वहां से हमारा गाँव पैदल रास्ते पर एक किलोमीटर है.
मैं उस समय पांचवीं कक्षा में पढता था. जाने की पूरी तैयारी मम्मी ने कर दी थी. पापा की काली अटैची में, जिसे मैं पापा के पास बचपन से देख रहा था, मेरे कपडे रख दिए गए थे | मैं भी फुल पैंट पहन कर (उस समय फुल पैंट पहनना मुझे बहुत अछा लगता था, क्यों की उसे पहन कर लगता था की अब मैं भी बड़ा हो गया हूँ ) , स्कूल वाले नीले मोज़े और काले जूते, मम्मी का बुना हुआ एक कई रंगों वाला स्वेटर पहन कर तैयार हो गया. हमारा प्लान ये था की पहले ट्रेन से इलाहबाद जायेंगे फिर वहां से बस पकड़ कर जौनपुर | शाम के करीब ४ बज रहे थे और करीब ५ बजे की ट्रेन थी |
सभी पापाओं की तरह मेरे पापा भी हमेशा ट्रेन के निर्धारित समय से पहले स्टेशन पहुँच जाना उचित समझते हैं | तो हम साढ़े चार बजे स्टेशन पहुँच गए, वहां जाने पर पता चला की ट्रेन तो १ घंटे की देरी से आएगी | मुझे अब सोचकर बड़ा अजीब लगता है लेकिन उस समय मैं ये सूचना सुनकर खुश हो गया था | शायद इसलिए की उस समय हम ट्रेन से बहुत कम यात्रायें करते थे | इसलिए स्टेशन पर आने और वहां की चीजों का आनंद लेने का मौका बहुत कम मिलता था हमें | खैर हम लोग प्लात्फोर्म पर लगी एक विश्राम कुर्सी पर बैठ गए | उस समय आज की अपेक्षा बहुत कम भीड़ रहती थी, खासतौर पर छोटे स्टेशनों पर | मुझे कायदे से याद नहीं लेकिन मैंने पापा से बहुत प्रश्न पूछे थे, और वास्तव में बहुत सी चीजें ऐसी थी जिनका उत्तर मुझे बहुत बाद में पता लगा | मसलन पहले मैं ये सोचकर बहुत अचंभित रहता था की ट्रेन का ड्राईवर कैसे इतनी सफाई के साथ हैंडल मोड़ता है की ट्रेन पटरी से नहीं उतरती है, और उस समय तो मैं ये भी सोचता था की ट्रेन की पटरी पर कोई सिका रखो और ट्रेन उस पर से गुजर जाये तो सिक्का वाकई चांदी में बदल जाता है |
खैर यही सब सोचते साचते, मूंगफली खाते खाते काफी समय बीत गया | स्टेशन पर भीड़ भी बहुत बढ़ गयी | उस गाडी से जाने वाले काफी लोग आ गए थे | करीब साढ़े ६ बजे ट्रेन आई और हम उस पर सवार हो गए | हालाँकि उस ट्रेन यात्रा का वर्णन भी बड़ा ही अविस्मर्णीय है, लेकिन वो मैं फिर कभी करूंगा | ढाई तीन घंटे की यात्रा के बाद हम लोग करीब ९ बजे इलाहबाद पहुंचे | अब चूँकि काफी समय हो चुका था, जौनपुर के लिए बस का मिलना मुश्किल था | यानि की कुल मिला कर हमें अब रात इलाहबाद में ही रूकना था | चूंकि पापा ने अपना पूरा विद्यार्थी जीवन इलाहबाद में ही गुजरा था, वहां पापा के कई जानने वाले थे | लेकिन मैंने जिद करके पापा से कहाँ की मामा के यहाँ चलेंगे |
मेरे सुरेन्द्र मामा उस समय पढाई करते थे और कमरा लेकर अल्लाह्पुर में (अगर आप इलाहबाद के है तो आपको पता होगा की वहां बहुत से विद्यार्थी कमरा लेकर रहते हैं ) रहते थे | पापा मामा को परेशान नहीं करना चाहते थे लेकिन मेरी जिद पर हम लोग ऑटो और फिर रिक्शा करके अल्लाह्पुर के लिए निकल लिए | (मुझे इलाहबाद के रिक्शे उस समय बिलकुल नहीं पसंद थे, क्यों की वो फतेहपुर के रिक्शों की अपेक्षा बहुत ऊँचे रहते थे, और छोटा होने के कारण मेरीं टाँगें हमेशा लटकती रहती थी, जोकि मुझे बार बार याद दिलाती थी की मैं अभी भी कितना छोटा हूँ. ) हम लोग साढ़े ९ बजे के करीब मामा के रूम पर पहुंचे, वहां पर पहुँच कर देखा तो ताला लगा हुआ था | मकान मालिक ने बताया की वो अपने घर, यानि की मेरे ननिहाल के लिए शाम को ही निकल लिए थे | मैं बहुत दुखी हुआ | पापा परेशान हो गए क्यों की पापा के सारे जान पहचान वाले सलोरी, प्रयाग, जोकि वहां से दूरी पर था वहां रहते थे | ठण्ड की रात थी काफी अँधेरा भी था, और अल्लाह्पुर में लाइट की व्यवस्था भी कोई खास नहीं थी | मुझे थोडा डर भी लगाने लगा था | मकान मालिक ने कहा की हम चाहे तो उनके यहाँ रूक सकते हैं, शायद वो पापा को पहचानता था (वैसे अगर नहीं भी पहचानता था तो भी वो रूकने के लिए आमंत्रित कर सकता था, उन दिनों लोग एक दूसरे पर भरोसा कर सकते थे ) | लेकिन पापा ने मना कर दिया और हम लोग घर से बाहर निकल आये |
फिर पापा बिना कुछ बोले एक गली में मुड़ गए | मुझे थोड़ी ठण्ड भी लग रही थी, और चूँकि अँधेरा था और मुझे उस समय भूतों से बहुत डर लगता था, मैं पापा के साथ चिपक कर चल रहा था | करीब १० मिनट गलियों में चलने के बाद हम एक स्कूल टाइप घर में घुसे | मैं उसे स्कूल टाइप इसलिए कह रहा हूँ क्यों की उसे सिर्फ और सिर्फ विद्यार्थियों को किराये पर देने के लिहाज़ से बनवाया गया था, और इसलिए उसमें सिर्फ कमरे थे, जैसे की सरकारी स्कूलों में होते हैं | करीब ७-८ कमरें होंगे, और सब कुछ एक चहारदीवारी से घिरा हुआ था. किनारे पर कामन बाथरूम बना हुआ था.( इलाहबाद में अगल बगर के कई शहरों के विद्यार्थी आकर पढ़ते हैं, इसलिए वहां पर स्टुडेंट्स के लिए बने हुए ऐसे कई स्कूल टाइप माकन आपको उस समय मिल जाते) |
पापा ने एक कमरे में दरवाजा खटखटाया, मुझे अभी तक नहीं पता था की हम किसके यहाँ आये हैं | खैर हमारे फतेहपुर के ही एक सतीश भैया ने दरवाजा खोला | वो मेरे पापा के एक दोस्त के छोटे भाई थे | हम कई बार उनसे फतेहपुर में मिल चुके थे | पहली बार मुझे पता लगा की सतीश भैया भी इलाहबाद में ही रहते हैं | करीब दस बज गए थे और सतीश भैया बना कर खा कर पढाई कर रहे थे | वो एक छोटा सा रूम था | दो बिस्तर पड़े थे |दोनों पर मछरदानी लगी थी | एक पीले रंग का चमकदार बल्ब जल रहा था | दीवाल में ही दो अलमीरा बनी थी, जो की मोटी मोटी किताबों से भरी पड़ी थी | दरवाजे के पास एक बाल्टी पानी से भरी राखी थी | एक बाल्टी रूम के अन्दर भी थी, उस पर ढक्कन भी लगा हुआ था, शायद वो पीने और खाना बनाने वाला पानी रखने की बाल्टी थी | एक छोटा स्टोव भी वही रखा था | पहले तो सतीश भैया तुरंत बाहर गए और मेरे लिए एक पारले-G लेकर आये | हमने खाकर पानी पिया.वो बाल्टी वाकई में पीने के पानी वाली बाल्टी थी | भैया ने खाने का पुछा और ये पता लगने पर की हमने रात का खाना नहीं खाया है ,तुरंत बनाने में जुट गए | तुरंत आलू टमाटर निकाला | उनका रूम मेट नहीं था इसलिए वो अकेले ही काटने लगे | पापा ने आग्रह किया की मदद कर देते हैं | लेकिन उन्होंने पापा से बैठे रहने को कहा |
फिर उन्होंने सब काट-धो के स्टोव जलाया और खाना बनाना स्टार्ट किया | मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था की कैसे एक ही रूम में सब कुछ हो रहा है | पापा ने बताया की वो भी अपने स्टुडेंट टाइम में इसी तरह के रूम में रहते थे | सतीश भैया भी पापा वाली ही पढाई कर रहे थे, इसलिए वो खाना बनाने के साथ पापा से बहुत सी चीजें पूछ रहे थे | खैर मुझे उन सब में कोई इंटेरेस्ट नहीं था | मुझे भूख लग रही थी और मैं बेचैनी के साथ खाने का इन्तजार कर रहा था | सब्जी बन गयी | इसी बीच आटा भी गूथा गया, और रोटियां बनी | मैं और पापा खाने बैठे | भैया तो पहले ही खा चुके थे | रोटियां मोटी थी लेकिन आलू टमाटर की उस सब्जी के साथ उस समय उन रोटियों का जो स्वाद आ रहा था वो मैंने अपनी जिंदगी में कभी दुबारा अनुभव नहीं किया | मैंने पेट भर के खाया | १२ बजने को हो रहा था | भैया ने तुरंत एक बिस्तर ठीक किया और पापा से सोने को कहा | पापा भी काफी थक चुके थे, और उससे ज्यादा मैं थक चुका था | मैं भी स्वेटर उतर कर पापा के साथ ही वाही लेट गया | मुझे कब नींद आई याद नहीं |
सुबह पापा ने ७ बजे जगाया. थोडा कुहरा पड़ा था. हम लोग फ्रेश हुए, और भैया के साथ बहार चाय पीने आये. हम अपना बैग साथ ले आये थे ताकि चाय पी के तुरंत निकल ले. हम एक दुकान पर चाय पीने बैठ गए. दुकान बहुत छोटी सी थी. लेकिन भीड़ भरपूर थी. ढेर सारे स्टुडेंट्स खड़े थे, बातें कर रहे थे, चाय पी रहे थे और साथ में हिंदी अख़बार पढ़ रहे थे.एक तरफ छोटी टोकरी में जलेबी, पकोड़े बने रखे थे . समोसे कडाही में तल रहे थे. हमने भी चाय मंगाई, और मेरे लिए पापा ने टोस्ट मंगाया. सब ख़तम होने के बाद भैया ने पापा के पांव छुए और हम लोग रिक्शा पकड़ के सिविल लाइंस बस अड्डे के लिए निकल लिए. थोड़ी थोड़ी धूप निकलना शुरू हो गयी थी. बीच में पापा कई जगहें दिखाई; काली प्रसाद इंटर कॉलेज नाम का एक बड़ा सा स्कूल, मेडिकल कॉलेज, अस्पताल वगरह. थोड़ी ही देर में हम बस अड्डे पर खड़े थे. हमें वहां पर ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा और थोड़ी ही देर में एक कंडक्टर , "जौनपुर, आजमगढ़, जौनपुर" चिल्लाता हुआ आ गया. हम बस पर बैठे और गाँव के लिए रवाना हो गए.
हालाँकि मेरा ये पहला इलाहबाद अनुभव बहुत छोटा सा था, लेकिन ये यात्रा मुझे हमेशा याद रही. ये वो जमाना था जब हम जसपाल भट्टी का फ्लॉप शो देखते थे TV पर. ये वो जमाना था जब शाहरूख खान स्टार नहीं था और फौजी नमक धारावाहिक में कम करता था, ये वो जमाना था जब हम दूर सम्बन्धियों बात करने के लिए बगल वाली आंटी के घर जाकर फ़ोन की घंटी बजने का इंतज़ार करते थे , ये वो जमाना था जब हम बच्चे पार्क में दूसरे बच्चों के साथ जंजीरा, छुपा-छुपौल, मार-कुटाई, गुथम-गुथा, सुतौलिया खेलते थे. ये वो जमाना था जब हमें स्कूल में सिखाया जाता था की मम्मी पापा के पैर छूकर स्कूल आया करो. ये वो जमाना था जब लोग हिंदी कहानियां भी चाव से पढ़ते थे.
मुझे उस समय नहीं पता था की मैं भविष्य में इलाहबाद में ही फिर से पढाई करने आऊँगा. हालाँकि मैंने अपने कॉलेज के दिन उन स्टुडेंट्स की तरह नहीं गुजरे लेकिन फिर भी इलाहबाद की इस स्टुडेंट संस्कृति से मैं अपने आप को बहुत जुड़ा हुआ पाता हूँ.
मैं उस समय पांचवीं कक्षा में पढता था. जाने की पूरी तैयारी मम्मी ने कर दी थी. पापा की काली अटैची में, जिसे मैं पापा के पास बचपन से देख रहा था, मेरे कपडे रख दिए गए थे | मैं भी फुल पैंट पहन कर (उस समय फुल पैंट पहनना मुझे बहुत अछा लगता था, क्यों की उसे पहन कर लगता था की अब मैं भी बड़ा हो गया हूँ ) , स्कूल वाले नीले मोज़े और काले जूते, मम्मी का बुना हुआ एक कई रंगों वाला स्वेटर पहन कर तैयार हो गया. हमारा प्लान ये था की पहले ट्रेन से इलाहबाद जायेंगे फिर वहां से बस पकड़ कर जौनपुर | शाम के करीब ४ बज रहे थे और करीब ५ बजे की ट्रेन थी |
सभी पापाओं की तरह मेरे पापा भी हमेशा ट्रेन के निर्धारित समय से पहले स्टेशन पहुँच जाना उचित समझते हैं | तो हम साढ़े चार बजे स्टेशन पहुँच गए, वहां जाने पर पता चला की ट्रेन तो १ घंटे की देरी से आएगी | मुझे अब सोचकर बड़ा अजीब लगता है लेकिन उस समय मैं ये सूचना सुनकर खुश हो गया था | शायद इसलिए की उस समय हम ट्रेन से बहुत कम यात्रायें करते थे | इसलिए स्टेशन पर आने और वहां की चीजों का आनंद लेने का मौका बहुत कम मिलता था हमें | खैर हम लोग प्लात्फोर्म पर लगी एक विश्राम कुर्सी पर बैठ गए | उस समय आज की अपेक्षा बहुत कम भीड़ रहती थी, खासतौर पर छोटे स्टेशनों पर | मुझे कायदे से याद नहीं लेकिन मैंने पापा से बहुत प्रश्न पूछे थे, और वास्तव में बहुत सी चीजें ऐसी थी जिनका उत्तर मुझे बहुत बाद में पता लगा | मसलन पहले मैं ये सोचकर बहुत अचंभित रहता था की ट्रेन का ड्राईवर कैसे इतनी सफाई के साथ हैंडल मोड़ता है की ट्रेन पटरी से नहीं उतरती है, और उस समय तो मैं ये भी सोचता था की ट्रेन की पटरी पर कोई सिका रखो और ट्रेन उस पर से गुजर जाये तो सिक्का वाकई चांदी में बदल जाता है |
खैर यही सब सोचते साचते, मूंगफली खाते खाते काफी समय बीत गया | स्टेशन पर भीड़ भी बहुत बढ़ गयी | उस गाडी से जाने वाले काफी लोग आ गए थे | करीब साढ़े ६ बजे ट्रेन आई और हम उस पर सवार हो गए | हालाँकि उस ट्रेन यात्रा का वर्णन भी बड़ा ही अविस्मर्णीय है, लेकिन वो मैं फिर कभी करूंगा | ढाई तीन घंटे की यात्रा के बाद हम लोग करीब ९ बजे इलाहबाद पहुंचे | अब चूँकि काफी समय हो चुका था, जौनपुर के लिए बस का मिलना मुश्किल था | यानि की कुल मिला कर हमें अब रात इलाहबाद में ही रूकना था | चूंकि पापा ने अपना पूरा विद्यार्थी जीवन इलाहबाद में ही गुजरा था, वहां पापा के कई जानने वाले थे | लेकिन मैंने जिद करके पापा से कहाँ की मामा के यहाँ चलेंगे |
मेरे सुरेन्द्र मामा उस समय पढाई करते थे और कमरा लेकर अल्लाह्पुर में (अगर आप इलाहबाद के है तो आपको पता होगा की वहां बहुत से विद्यार्थी कमरा लेकर रहते हैं ) रहते थे | पापा मामा को परेशान नहीं करना चाहते थे लेकिन मेरी जिद पर हम लोग ऑटो और फिर रिक्शा करके अल्लाह्पुर के लिए निकल लिए | (मुझे इलाहबाद के रिक्शे उस समय बिलकुल नहीं पसंद थे, क्यों की वो फतेहपुर के रिक्शों की अपेक्षा बहुत ऊँचे रहते थे, और छोटा होने के कारण मेरीं टाँगें हमेशा लटकती रहती थी, जोकि मुझे बार बार याद दिलाती थी की मैं अभी भी कितना छोटा हूँ. ) हम लोग साढ़े ९ बजे के करीब मामा के रूम पर पहुंचे, वहां पर पहुँच कर देखा तो ताला लगा हुआ था | मकान मालिक ने बताया की वो अपने घर, यानि की मेरे ननिहाल के लिए शाम को ही निकल लिए थे | मैं बहुत दुखी हुआ | पापा परेशान हो गए क्यों की पापा के सारे जान पहचान वाले सलोरी, प्रयाग, जोकि वहां से दूरी पर था वहां रहते थे | ठण्ड की रात थी काफी अँधेरा भी था, और अल्लाह्पुर में लाइट की व्यवस्था भी कोई खास नहीं थी | मुझे थोडा डर भी लगाने लगा था | मकान मालिक ने कहा की हम चाहे तो उनके यहाँ रूक सकते हैं, शायद वो पापा को पहचानता था (वैसे अगर नहीं भी पहचानता था तो भी वो रूकने के लिए आमंत्रित कर सकता था, उन दिनों लोग एक दूसरे पर भरोसा कर सकते थे ) | लेकिन पापा ने मना कर दिया और हम लोग घर से बाहर निकल आये |
फिर पापा बिना कुछ बोले एक गली में मुड़ गए | मुझे थोड़ी ठण्ड भी लग रही थी, और चूँकि अँधेरा था और मुझे उस समय भूतों से बहुत डर लगता था, मैं पापा के साथ चिपक कर चल रहा था | करीब १० मिनट गलियों में चलने के बाद हम एक स्कूल टाइप घर में घुसे | मैं उसे स्कूल टाइप इसलिए कह रहा हूँ क्यों की उसे सिर्फ और सिर्फ विद्यार्थियों को किराये पर देने के लिहाज़ से बनवाया गया था, और इसलिए उसमें सिर्फ कमरे थे, जैसे की सरकारी स्कूलों में होते हैं | करीब ७-८ कमरें होंगे, और सब कुछ एक चहारदीवारी से घिरा हुआ था. किनारे पर कामन बाथरूम बना हुआ था.( इलाहबाद में अगल बगर के कई शहरों के विद्यार्थी आकर पढ़ते हैं, इसलिए वहां पर स्टुडेंट्स के लिए बने हुए ऐसे कई स्कूल टाइप माकन आपको उस समय मिल जाते) |
पापा ने एक कमरे में दरवाजा खटखटाया, मुझे अभी तक नहीं पता था की हम किसके यहाँ आये हैं | खैर हमारे फतेहपुर के ही एक सतीश भैया ने दरवाजा खोला | वो मेरे पापा के एक दोस्त के छोटे भाई थे | हम कई बार उनसे फतेहपुर में मिल चुके थे | पहली बार मुझे पता लगा की सतीश भैया भी इलाहबाद में ही रहते हैं | करीब दस बज गए थे और सतीश भैया बना कर खा कर पढाई कर रहे थे | वो एक छोटा सा रूम था | दो बिस्तर पड़े थे |दोनों पर मछरदानी लगी थी | एक पीले रंग का चमकदार बल्ब जल रहा था | दीवाल में ही दो अलमीरा बनी थी, जो की मोटी मोटी किताबों से भरी पड़ी थी | दरवाजे के पास एक बाल्टी पानी से भरी राखी थी | एक बाल्टी रूम के अन्दर भी थी, उस पर ढक्कन भी लगा हुआ था, शायद वो पीने और खाना बनाने वाला पानी रखने की बाल्टी थी | एक छोटा स्टोव भी वही रखा था | पहले तो सतीश भैया तुरंत बाहर गए और मेरे लिए एक पारले-G लेकर आये | हमने खाकर पानी पिया.वो बाल्टी वाकई में पीने के पानी वाली बाल्टी थी | भैया ने खाने का पुछा और ये पता लगने पर की हमने रात का खाना नहीं खाया है ,तुरंत बनाने में जुट गए | तुरंत आलू टमाटर निकाला | उनका रूम मेट नहीं था इसलिए वो अकेले ही काटने लगे | पापा ने आग्रह किया की मदद कर देते हैं | लेकिन उन्होंने पापा से बैठे रहने को कहा |
फिर उन्होंने सब काट-धो के स्टोव जलाया और खाना बनाना स्टार्ट किया | मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था की कैसे एक ही रूम में सब कुछ हो रहा है | पापा ने बताया की वो भी अपने स्टुडेंट टाइम में इसी तरह के रूम में रहते थे | सतीश भैया भी पापा वाली ही पढाई कर रहे थे, इसलिए वो खाना बनाने के साथ पापा से बहुत सी चीजें पूछ रहे थे | खैर मुझे उन सब में कोई इंटेरेस्ट नहीं था | मुझे भूख लग रही थी और मैं बेचैनी के साथ खाने का इन्तजार कर रहा था | सब्जी बन गयी | इसी बीच आटा भी गूथा गया, और रोटियां बनी | मैं और पापा खाने बैठे | भैया तो पहले ही खा चुके थे | रोटियां मोटी थी लेकिन आलू टमाटर की उस सब्जी के साथ उस समय उन रोटियों का जो स्वाद आ रहा था वो मैंने अपनी जिंदगी में कभी दुबारा अनुभव नहीं किया | मैंने पेट भर के खाया | १२ बजने को हो रहा था | भैया ने तुरंत एक बिस्तर ठीक किया और पापा से सोने को कहा | पापा भी काफी थक चुके थे, और उससे ज्यादा मैं थक चुका था | मैं भी स्वेटर उतर कर पापा के साथ ही वाही लेट गया | मुझे कब नींद आई याद नहीं |
सुबह पापा ने ७ बजे जगाया. थोडा कुहरा पड़ा था. हम लोग फ्रेश हुए, और भैया के साथ बहार चाय पीने आये. हम अपना बैग साथ ले आये थे ताकि चाय पी के तुरंत निकल ले. हम एक दुकान पर चाय पीने बैठ गए. दुकान बहुत छोटी सी थी. लेकिन भीड़ भरपूर थी. ढेर सारे स्टुडेंट्स खड़े थे, बातें कर रहे थे, चाय पी रहे थे और साथ में हिंदी अख़बार पढ़ रहे थे.एक तरफ छोटी टोकरी में जलेबी, पकोड़े बने रखे थे . समोसे कडाही में तल रहे थे. हमने भी चाय मंगाई, और मेरे लिए पापा ने टोस्ट मंगाया. सब ख़तम होने के बाद भैया ने पापा के पांव छुए और हम लोग रिक्शा पकड़ के सिविल लाइंस बस अड्डे के लिए निकल लिए. थोड़ी थोड़ी धूप निकलना शुरू हो गयी थी. बीच में पापा कई जगहें दिखाई; काली प्रसाद इंटर कॉलेज नाम का एक बड़ा सा स्कूल, मेडिकल कॉलेज, अस्पताल वगरह. थोड़ी ही देर में हम बस अड्डे पर खड़े थे. हमें वहां पर ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा और थोड़ी ही देर में एक कंडक्टर , "जौनपुर, आजमगढ़, जौनपुर" चिल्लाता हुआ आ गया. हम बस पर बैठे और गाँव के लिए रवाना हो गए.
हालाँकि मेरा ये पहला इलाहबाद अनुभव बहुत छोटा सा था, लेकिन ये यात्रा मुझे हमेशा याद रही. ये वो जमाना था जब हम जसपाल भट्टी का फ्लॉप शो देखते थे TV पर. ये वो जमाना था जब शाहरूख खान स्टार नहीं था और फौजी नमक धारावाहिक में कम करता था, ये वो जमाना था जब हम दूर सम्बन्धियों बात करने के लिए बगल वाली आंटी के घर जाकर फ़ोन की घंटी बजने का इंतज़ार करते थे , ये वो जमाना था जब हम बच्चे पार्क में दूसरे बच्चों के साथ जंजीरा, छुपा-छुपौल, मार-कुटाई, गुथम-गुथा, सुतौलिया खेलते थे. ये वो जमाना था जब हमें स्कूल में सिखाया जाता था की मम्मी पापा के पैर छूकर स्कूल आया करो. ये वो जमाना था जब लोग हिंदी कहानियां भी चाव से पढ़ते थे.
मुझे उस समय नहीं पता था की मैं भविष्य में इलाहबाद में ही फिर से पढाई करने आऊँगा. हालाँकि मैंने अपने कॉलेज के दिन उन स्टुडेंट्स की तरह नहीं गुजरे लेकिन फिर भी इलाहबाद की इस स्टुडेंट संस्कृति से मैं अपने आप को बहुत जुड़ा हुआ पाता हूँ.